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Tuesday 5 June 2018

दस्तक दहलीज पर

दस्तक दे रहा दहलीज पर कोई
चलूं उठ के देखूं कौन है
कोई नही दरवाजे पर
फिर ये धीरे धीरे मधुर थाप कैसी
चहुँ और एक भीना सौरभ
दरख्त भी कुछ मदमाये से
पत्तों की सरसराहट
एक धीमा राग गुनगुना रही
कैसी स्वर लहरी फैली
फूल कुछ और खिले खिले
कलियों की रंगत बदली सी
माटी महकने लगी है
घटाऐं काली घनघोर,
मृग शावक सा कुचाले भरता मयंक
छुप जाता जा कर उन घटाओं के पीछे
फिर अपना कमनीय मुख दिखाता
फिर छुप जाता
कैसा मोहक खेल है
तारों ने अपना अस्तित्व
जाने कहां समेट रखा है
सारे मौसम पर मद होशी कैसी
हवाओं मे किसकी आहट
ये धरा का अनुराग है
आज उसका मनमीत
बादलों के अश्व पर सवार है
ये पहली बारिश की आहट है
जो दुआ बन दहलीज पर
बैठी दस्तक दे रही है
चलूं किवाडी खोल दूं
और बदलते मौसम के
अनुराग को समेट लूं
अपने अंतर स्थल तक।
         कुसुम कोठारी।

3 comments:

  1. अप्रतिम, मनोहारी रचना... गज़ब की पेशकश है, ऐसी बेहतरीन कृति के लिए साधुवाद। सदा नये कीर्तिमान रचती रहें। सादर...👌👌👌👏👏👏

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  2. क्षमा करें आदरणीया पर मुझ मंदबुद्धि को, इस रचना की १४वीं पंक्ति में "कुचाले" के स्थान पर "कुलाँचें" समझ में आ रहा है। शायद टंकण त्रुटि हो गई है। कृपया अन्यथा न लें।🙏🙏🙏

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  3. जी सादर आभार।
    त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने का बहुत बहुत धन्यवाद ।
    सादर

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