कुछ अशआर मु-फा-ई-लुन (1-2-2-2)×4
सुनों ये बात है सच्ची जहाँ दिन चार का मेला।
फ़कत दिन चार के खातिर यहां तरतीब का खेला।
शजर-ए-शाख पर देखो अरे उल्लू लगे दिखने।
नहीं ये रात की बातें ज़बर क़िस्मत लगे लिखने।
कदम इक ना चले साथी सफ़र-ए-जिंदगी में जब।
अगर सोचें रखा क्या है भला इस जिंदगी में अब।
किसी आहट अगर चौंको निगाहें बस उठा लेना।
खड़े हम आज तक रहबर नजर भर मुस्कुरा देना।
कभी तदबीर सोयी सी कभी आलस जगा रहता।
करें दोनों कि जब छुट्टी फिरे तकदीर मैं कहता ।
किसी भी राह गुजरेंगे मगर मंजिल वही होगी।
सभी के काफिले रहबर सफर की इन्तहां होगी।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'