Tuesday, 27 December 2022

अशआर मेरे


 कुछ अशआर मु-फा-ई-लुन (1-2-2-2)×4


सुनों ये बात है सच्ची जहाँ दिन चार का मेला।

फ़कत दिन चार के खातिर यहां तरतीब का खेला। 


शजर-ए-शाख पर देखो अरे उल्लू लगे दिखने।

नहीं ये रात की बातें ज़बर क़िस्मत लगे लिखने।


कदम इक ना चले साथी सफ़र-ए-जिंदगी में जब।

अगर सोचें रखा क्या है भला इस जिंदगी में अब।


किसी आहट अगर चौंको निगाहें बस उठा लेना।

खड़े हम आज तक रहबर नजर भर मुस्कुरा देना।


कभी तदबीर सोयी सी कभी आलस जगा रहता।

करें दोनों कि जब छुट्टी फिरे तकदीर मैं कहता ।


किसी भी राह गुजरेंगे मगर मंजिल वही होगी।

सभी के काफिले रहबर सफर की इन्तहां होगी।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 24 December 2022

शशधर


 गीतिका:1222×4


शशधर


उठा राकेश निंद्रा से  सकल दिशि ज्योत्सना छाई।

नवल उस ज्योति की आभा क्षितिज से भूमि तक‌ आई।।


रजत की इक वरूथी पर सुधाधर बैठ आया है।

निशा का नील आनन भी चमक से हो रहा झाई।।


चमाचम हीर जग बुझ कर कलाधर को नमन करते।

वहाँ मंदाकिनी भी साथ अपने कर चँवर लाई।।


अहा इस रात का सौंदर्य वर्णन  कौन कर सकता।

कवित की कल्पना में भी न ऐसी रात ढल पाई।।

 

रजत के ताल बैठा शशि न जाने कब मचल जाए।

भ्रमित से स्नेह बंधन में जकड़ कर रात गहराई।। 


'कुसुम' इस रात पर मोहित निहारे चाँद अनुपम को।

हवाओं ने मधुर स्वर में सरस सी रागिनी गाई।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 19 December 2022

शंख रव (महामंजीर सवैया)


 महामंजीर सवैया, मापनी:-112 112 112 112, 112 112 112 112 12.


शंख रव

कलियाँ महकी महकी खिलती, अब वास सुगंधित भी चहुँ ओर है।

जब स्नान करे किरणें सर में, लगती निखरी नव सुंदर भोर है।

बहता रव शंख दिशा दस में, रतनार हुआ नभ का हर कोर है।

मुरली बजती जब मोहन की, खुश होकर नाच उठे मन मोर है।।


स्वरचित 

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'।

Tuesday, 13 December 2022

व्यंजना पीर जाई


 व्यंजना पीर जाई


पीर ही है इस जगत में

व्यंजनाओं में ढली जो

आँख से टपकी कभी वो

मन वीथिका में पली जो।।


रात के आँसू वही थे

लोक में जो ओस फैली

चाँद की भी देह सीली

व्योम की भी पाग मैली

ये हवाएँ क्यूँ सिसकती 

थरथरा कर के चली जो।।


त्रास के बादल घुमड़ते

और व्यथा से घट झरा है

वेदना की दामिनी से

शूल का भाथा भरा है

नित सुलगती ताप झेले

अध जली काठी जली जो।।


भाव मणियाँ गूँथती है 

मसी जब आकार लेती

तूलिका से पीर झांके 

लक्षणा जब थाप देती

गूढ़ मन के गोह बैठी

भावना से है छली जो।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 7 December 2022


 मोहिनी 


चंद्रमुख आभा झरे

रूपसी मन मोहिनी

उच्च शोभित भाल है

मीन दृग में चाँदनी।।


देह चंदन महकता

गाल पाटल रच रहे

नाशिका शुक चोंच सम

भाव शुचिता के गहे

तुण्ड़ कोमल मखमली 

ओष्ठ रंगत लोहिनी।।


रूप पुष्पित पुष्प ज्यों

भृंग लट उड़ते मधुप

माधुरी लावण्य है

चाल चलती है अनुप

देख परियाँ भी लजाए

स्वर्ण काया सोहिनी।


बेल फूलों की नरम 

कल्पना कवि लेख सी

किस भुवन की लावणी

श्रेष्ठ दुर्लभ रेख सी

मेह हो अनुराग का

कामिनी प्रियदर्शिनी।। 


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 2 December 2022

सूर्य मिलन की चाह


 गीतिका 

11212×4


सूर्य मिलन की चाह


क्षणदा दबे चरणों चली शशिकांत भी मुख मोड़ता।

निशि रंग में निज को समा कुछ छाप भी वह छोड़ता।


रजनी ढली अब जा रही उगती किरण लगती भली।

उजला कहाँ अब चाँद वो जब देह ही निज गोड़ता।


मन चाह लेकर याद में भटका रहा हर रात में।

पर सूर्य तो अनभिज्ञ सा चलता रहा बस दौड़ता।


झरती प्रभा शत हाथ से  नित चंद्र के हर भाग से।

मन में यही अभिलाष है कब तार सूरज जोड़ता।


घर एक ही उनका मगर पर मिल नहीं सकते कभी।

गति चाल ही बस है अलग हर दिन सदा हिय तोड़ता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 28 November 2022

सृजन का बाना


 सृजन का बाना


अनुपम भाव सृजन गढ़ता जब

प्रतिभा से आखर मिलता 

ओजस मूर्ति कलित गढ़ने को

शिल्पी ज्यूँ काठी छिलता।


गागर आज भरा रस भीना

मधु सागर जाए छलका

बादल ओट हटा कर देखो

शशि मंजुल अम्बर झलका

बैठा कौन रचे यह गाथा

या भेदक नव पट सिलता।।


कविगण रास कवित से खेले

भूतल नभ तक के फेरे

अंबर नील भरा सा दिखता

रूपक गंगा के घेरे

मोहक कल्प तरू लहराए

रचना का डोला हिलता।।


कर श्रृंगार नये बिंबों से

रचना इठलाती प्यारी

भूषण धार चले जब कविता

दुल्हन सी लगती न्यारी 

महके काव्य सुमन पृष्ठों पर

उपवन पुस्तक का खिलता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 26 November 2022

बैठे ठाले


 बैठे ठाले


बैठे ठाले स्वेटर बुन लो

फंदे गूंथ सलाई से।


स्वेटर की तो बात दूर हैं

घर के काम लगे भारी

झाड़ू दे तो कमर मचकती

तन पर बोझ लगे सारी

रोटी बननी आज कठिन है

बेलन छोड़ कलाई से।।


पिट्जा बर्गर आर्डर कर दो

कोक पैप्सी मंगवाना

खटनी करते अब हारी मैं

पार्लर सखी संग जाना

आइसक्रीम तैयार मिले

झंझट कौन मलाई से।।


चलभाष का व्यसन अति भारी

उसमें जी उलझा रहता

कुछ देरी में काम सभी हो

बार-बार मन यह कहता

लोभ भुलावे अंतस अटका 

भागा समय छलाई से।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 21 November 2022

श्वासों का सट्टा


 श्वासों का सट्टा


हर दिवस की आस उजड़ी

दर्द बहता फूट थाली

अब बगीचा ठूँठ होगा

रुष्ठ है जब दक्ष माली।


फड़फड़ाता एक पाखी

देह पिंजर बैठ भोला

तोड़कर जूनी अटारी

कब उड़ेगा छोड़ झोला

ठाँव फिर भू गोद में ही

व्यूढ़ का है कौन पाली।।


मौन हाहाकार रोता

खड़खड़ाती जिर्ण द्वारी

सत निचोड़ा गात निर्बल

काल थोड़ा शेष पारी

श्वास सट्टा हार बैठी

खेलती विधना निराली।।


भ्रम का कुहरा जगत ये 

ड़ोलता ज्यों सिंधु धारा

बीच का गोता लगाकर

इक लहर ढूढ़े किनारा

बाँध कर मुठ्ठी अवाई

जा रहे सब हाथ खाली।।


बगीचा=यहां काया है

दक्ष माली=स्वास्थ्य या सांसें

जीर्ण द्वारी=वृद्धावस्था

व्यूढ़=निर्जीव

पाली =पालने वाला

अवाई=आगमन


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 16 November 2022

यौतुक की जलती वेदी


 यौतुक की जलती वेदी


विद्रुप हँसकर यौतुक बोला

मेरा पेट कुए से मोटा

लिप्सा मेरी नहीं पूरता

थैला मुद्रा का छोटा।


दुल्हा बिकता ढेर दाम में

दाम चुकाने वाला खाली

वस्तु उसे ठेंगा मिलती है

खाली होती घर की थाली

बिकने वाला खून चूसता

मानुषता का पूरा टोटा।


बेटी घर को छोड़ चले जब

दहरी फफक-फफक रोती है

घर में जो किलकारी भरती

भार सिसकियों का ढोती है

रस्मों के अंधे सागर में

नहीं सुधा का इक भी लोटा।।


बहता शोणित स्वयं लजाया

निकला हिय से धीरे-धीरे

एक कलिका भँवर फंसी है

काल खड़ा है तीरे-तीरे

शोषण का लेकर डंका 

लालच देता रहता झोटा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


यौतुक=दहेज,

Sunday, 13 November 2022

भोला बचपन


 बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🌷


भोला सच्चा बचपन


ख़्वाबों के दयार पर एक झुरमुट है यादों का।

एक मासूम परिंदा फुदकता यहाँ वहाँ यादों का।


सतरंगी धागों का रेशमी इंद्रधनुषी शामियाना।

जिसके तले मस्ती में झूमता एक भोला बचपन ।


सपने थे सुहाने उस परी लोक की सैर के।

वो जादुई रंगीन परियाँ जो डोलती इधर-उधर।


मन उडता था आसमानों के पार कहीं दूर ।

एक झूठा सच धरती आसमान है मिलते दूर ।


संसार छोटा सा लगता ख़्याली घोडे का था सफ़र। 

एक रात के बादशाह बनते रहे सँवर-सँवर ।


दादी की कहानियों में नानी थी चाँद के अंदर 

सच की नानी का चरखा ढूंढ़ते नाना के घर ।


वो झूठ भी था सब तो कितना सच्चा था बचपन।

ख़्वाबों के दयार पर एक मासूम सा बचपन।


एक इंद्रधनुषी स्वप्निल रंगीला  बचपन।। 


              कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 11 November 2022

जौहर स्यूं पैला


 जौहर स्यूं पैला (राजस्थानी गीत)


नख शिख तक श्रृंगार रच्यो 

कठा चाली ऐ पद्मिणी

हाथ सजायाँ थाल रजत रो

मदरी चाली मृगनयणी।


आँख्याँ झरतो तेज सूर सो

टीकी करती दप-दप भाल

पाँत सिंदुरी केशा बिच में

शोभ रह्या रतनारी गाल


चंद्रिका सो उजालों मुखड़ों

क्षीर समंद गुलाब घुल्यो

निरख रयो है चाँद बावलो

लागे आज डगर भुल्यो।


पण घिरी उदासी मुखड़े पर

डबके आँख्याँ भरयोड़ी

सजी-धजी गणगौरा स्यूँ

 गूँज रही गढ़ री पोड़ी


नैण नमायाँ रानी बोली

सत्यानाशी रूप भयो

आँख रिपु के बन्यो किरकिरी

आज हाथ से माण गयो


बैरी आज गढ़ द्वार पहुंच्या

छत्री धार केशर बाण

आण बचाने रजपूता री

छतराण्या तजसी स्व प्राण।


जौहर की तो आग जले हैं

निछावर होसी हर नार

रूप सुहागण दुल्हन जैसो

दृग नहीं आँसू री धार।


एक पद्मिणी खातिर देखो

लख मानस प्राण गँमासी

स्व प्राणा रो मोह नहीं पण

एक दाग साथे जासी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 7 November 2022

मनोरम उषा काल


 मनोरम  उषा काल


सुरमई सी वादियों में

भोर ने संगीत गाया

खिल उठा गिरिराज का मन

हाथ में शिशु भानु आया।


खग विहग मधु रागिनी से

स्वागतम गाते रहे तब

हर दिशा गूँजारमय हो

झांझरे झनका रही अब

और वसुधा पर हवा ने

पुष्प का सौरभ बिछाया।।


उर्मियों का स्नेह पाकर

पद्म पद्माकर खिले हैं

भृंग मधु रस पान करते

कंठ कलियों से मिले हैं

हो रहे उन्मत्त से वो

मीत मधुरिम आज पाया।।


खुल गये नीरव भगाते

मंदिरों के द्वार सारे

नेह अंतर में समेटे

धेनु छौनों को दुलारे

धुन मधुर है घंटियों में

हर दिशा है ईश माया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 3 November 2022

भाव अहरी


 

भाव अहरी


होले खिली कलियाँ

बगीची झूम लहरी है

महका रहे उपवन

कहें क्यों धूप गहरी है।


नौबत बजी भारी

नगाड़े संग नाचो जी

भूलो अभी दुख को 

यही आनंद साचो जी

ये साँझ सिंदूरी 

हमारे द्वार ठहरी है।।


दुख मेघ गहरे तो

उढ़ोनी प्रीत की तानो

सहयोग से रहना

सभी की बात भी मानो

मन भाव सुंदर तो

विधाता साथ पहरी है।।


बीता दिवस दुख क्यों

सुहाना कल सरल होगा

बो बीज अच्छा बस

दिया जिसने वहीं भोगा

गंगा बहे पावन

बहानी भाव अहरी है।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 30 October 2022

कविता का ह्रास


 कविता का ह्रास


शब्द आड़म्बर फसी सी

लेखनी भी है बिलखती।


कौन करता शुद्ध चिंतन

भाव का बस छोंक डाला

सौ तरह पकवान में भी

बिन नमक भाजी मसाला

व्याकरण का देख क्रंदन

आज फिर कविता सिसकती।।


रूप भाषा का अरूपा

स्वर्ण में कंकर चुने है

हीर जैसी है चमक पर

प्रज्ञ पढ़ माथा धुने है

काव्य का अब नाम बिगड़ा

विज्ञ की आत्मा तड़पती।।


स्वांत सुख की बात कह दो

या यथार्थी लेख उत्तम

है सभी कुछ मान्य लेकिन

काव्य का भी भाव सत्तम

लक्षणा सँग व्यंजना हो

उच्च अभिधा भी पनपती।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 26 October 2022

भवप्रीता


 भव प्रीता


बन के उतरो विभा धरा पर

पथ पर हाथ बिछा देंगे  ।

कोमल कली विश्व प्रांगण की 

फूलों का श्रृंगार धरेंगे।


शक्ति रूप धरलो मातंगी

सूर्य ताप लेकर आना

सुप्त पड़े लद्धड़ जीवन में

नव भोर नव  क्रांति लाना

कभी पैर छाले भी सिसके 

अब न ऐसे घाव करेंगें।


चांद सूर्य की ज्योत तुम्ही हो

तुम हो वीरों की थाती

जड़ जंगम आधार तुम्हारे

सभी रूप में मन भाती

भवप्रीता बन के आ जाना

अब न कभी गात दहेंगे।।


थके हुए वासर के जैसा 

बिगड़ा धरा का हाल है

जलती चिताएँ ज्वाल मुख सी

संकाल का जंजाल है

यौवन वसुंधरा का उजड़ा

तुम आवो बाग लहेंगे।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 23 October 2022

सुधार कैसा


 1212 212 122 1212 212 122.


सुधार कैसा


रहे गरीबी सदा बिलखती वहाँ व्यवस्था सुधार कैसा।

नहीं करेंगे कभी  नियोजित उन्हें  मिला है प्रभार कैसा।।


विवेक जिसका रहे भ्रमित सा प्रशांत मन बस दिखा रहा है।

भरा हुआ द्वेष जिस हृदय में अरे कहो वो उदार कैसा।।


घड़ी घड़ी जो दिखा रहें हैं कपट गठन की मृषा लिखावट।

जहाँ बही बस बता रही हो नहीं सफल ये सुधार कैसा।।


परम हितैषी पुरुष जगत में परोपकारी सदा रहें हैं।

करें सभी का भला यहाँ जो नहीं डरें हो विकार कैसा।।


न कर सके जो मनन बिषय पर  परोसते अधपकी समझ को।

इधर उधर से उठा लिया है पका नहीं वह विचार कैसा।


नदी मचलती चले लहरती कभी सरल और तेज कभी।

बहाव को जो न रोक पाए भला कहो तो कगार कैसा।।


न हित भलाई करे किसीकी दया  क्षमा भी नहीं हृदय में।।

गिरे स्वयं संघ भी  प्रताड़ित गिरा हुआ वह अगार कैसा ।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 18 October 2022

कब ढलेगी रात गहरी


 कब ढ़लेगी रात गहरी



आपदा तांडव घिरा है 

सो रहे सब ओर पहरी 

दुर्दिनों का काल लम्बा 

कब ढलेगी रात गहरी।


प्राण बस बच के रहे अब

योग इतना ही रहा क्यों 

बैठ कर किसको बुलाते 

बात हाथों से गई ज्यों 

देव देवी मौन हैं सब 

खूट खाली आज अहरी।।


वेदनाएँ फिर बढ़ी तो 

फूट कर बहती रही सब 

आप ही बस आप का है 

मर चुके संवेद ही जब 

आँधियों के प्रश्न पर फिर

यह धरा क्यों मौन ठहरी।।


झाड़ पर हैं शूल बाकी 

पात सारे झर गये हैं 

वास की क्यूँ बात कहते

दौर सारे ही नये हैं 

बाग की धानी चुनर पर 

रेत के फैलाव लहरे।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 11 October 2022

जीवन विरोधाभास


 जीवन विरोधाभास


सच सामने ठगता रहता

स्वप्न कभी फिर दहलाये।


ऐसी घातक चोट लगी थी 

अपनों ने जब घाव दिया

अन्तस् बहता नील लहू अब

शंभू बनकर गरल पिया

छाँव जलाये छाले उठते

धूप उन्हें फिर सहलाये।।


अदिठे से घाव हृदय पट पर

लेप सघन जो मांग रहे

मौन अधर थर-थर कंपति हैं

मूक दृगों की कौन कहे

ठोकर खाई जिस पत्थर से

बैठ वहाँ मन बहलाये।।


जाने कैसे रूप बदल कर

पाल वधिक हो जाता है

स्वार्थ जहाँ पर शीश उठाता

हाथ-हाथ को खाता है

पोल खुली है अब तो उनकी

कर्ण कभी जो कहलाये।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 4 October 2022

प्रारब्ध या व्यवस्था


 प्रारब्ध या व्यवस्था

 

रेत की आँधी चले तो

कौन कर्मठ आ बुहारे

भाग्य का पलड़ा झुके तो

कौन बिगड़ी को सुधारे।।


पैर नंगे भूख दौड़े

पाँव में छाले पड़ें हैं

दैत्य कुछ भेरुंड खोटे

पंथ रोके से खड़ें हैं

घोर विपदा सिंधु गहरा

पार शिव ही अब उतारे।।


अन्न का टोटा सदा ही

हाथ में कौड़ी न धेला

अल्प हैं हर एक साधन

हाय ये जीवन दुहेला

अग्र खाई कूप पीछे

पार्श्व से दुर्दिन पुकारे।।


दीन के दाता बने जो

रोटियाँ निज स्वार्थ सेके

भूख का व्यापार करते

 पुण्य का बस नाम लेके

राख होती मान्यता को

आज कोई क्यों दुलारे।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 3 October 2022

माँ सिद्धिदात्री नवम दिवस


 नवरात्रा का पूर्ण आहुति दिवस, माँ सिद्धिदात्री आपके जीवन में सदा प्रसन्नता भर्ती रहें, हार्दिक शुभकामनाएं 🌷🌷🙏🙏.


माँ सिद्धिदात्री


माँ सिद्धिदात्री सिद्धि देती,आशा पूरण करती।

मन वांछित फल देने वाली, रोग शोक भय हरती।

गदा चक्र डमरू पुण्डरीक, चार हाथ में धारे।

सभी कामना पूरी करके, काज सँवारे सारे।।

माँ महागौरी अष्ठम दिवस


 माँ महागौरी


श्वेताम्बरी माँ सौम्य अभया, वरमुद्रा कर धारी।

भव्य उज्जवल नयन सुशोभित, स्नेह सुधा रस झारी।

कल्मष पाप नष्ट करती माँ, शांत रूप ज्यों चंदा।

पूजन अर्चन करें भाव से,भव का कटता फंदा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

माँ कालरात्रि


 7 माँ कालरात्रि


असुरों के संहार हित, जन्म लिया माँ आप।

कालरात्रि के जाप से, कटते सारे पाप।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 1 October 2022

गाँव बुलाते हैं


 गाँव बुलाते हैं


खिलखिलाते झुरमटों में

लौट के कुछ गीत गाओ

है बसेरा यह तुम्हारा

छोड़ के इसको न जाओ।


रिक्त डेरा शून्य गलियाँ

पीपली संताप ओढ़े

खाट खुड़खुड़ रो रही है

इस बिछावन कौन पोढ़े

पाथ गाँवों के पुकारे 

हे पथिक अब लौट आओ।


माँग सी चौपाल सूनी

भोगती वैधव्य पीड़ा

वृद्ध जन आँसू बहाते

कौन ले कर्तव्य बीड़ा

पुत्र हो तुम इस धरा के

इस धरा पर घर बनाओ।।


भूमि वँध्या हो तडपती

भाग्य अपना कोसती

व्योम जब नीरा छिटकता

कुक्षी में काँकर पोसती

फिर इसे वरदान देदो

चौक आकर के पुराओ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 30 September 2022

माँ कात्यायनी


 नवरात्रा षष्ठम दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏🌷🌷


माँ कात्यायनी


अंशुक लाल तन धारती, सोने जैसे अंग।

वर देती मुद्रा धरे, धवल कमल के संग।

धवल कमल के संग, सिंह पर करे सवारी।

अर्चन हो मन भाव, भगे सभी महामारी।

सुनो कुसुम कर ध्यान, बजे जब मंदिर कंबुक।

तन में शांति का वास, लहरता माँ का अंशुक।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 29 September 2022

माँ स्कंदमाता


माँ स्कंदमाता


शासन करती मोक्ष पर, वर देती अविराम ।

तन पर उजले वस्त्र है, स्कंद मात है नाम ।

स्कंद मात है नाम, हाथ में पंकज धरती ।

देती है आशीष, कामना पूरण करती ।

कहे कुसुम कर जोड़, पद्म पर सुंदर आसन।

माँ दे दो वरदान, दीप्त है तेरा शासन ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

माँ कूष्माण्डा


 माँ कूष्माण्डा


आदिस्वरूपा आदिशक्ति

सौम्य सुशोभित रूप

अष्टभुजा माँ मातेश्वरी 

मुख पर खिलती धूप।


रचना करती ब्रह्मांड की

अंधकार को चीर

सुधा कलश अरु जल कमंडल

चक्र गदा धनु तीर

ऋद्धि सिद्धि जप माला हाथ

नव निधियों की स्तूप।।


व्याघ्र पृष्ठ बैठती मैया 

सूरजमंडल धाम

आलोकित है कांति इनकी

कूष्माण्डा है नाम

यश बल आरोग्य की दात्री

सुंदर रूप अनूप।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 28 September 2022

माँ चंद्रघंटा


 


माँ चंद्रघंटा


सोने जैसी दमक रही माँ, द्युति है सूरज वरणी।

अस्त्र थामती दस हाथों में, चपला चमके अरणी।

अर्ध चन्द्र को शीश धारती, दृढ़ है सुंदर काया।

पीड़ा हरती भक्त जनों की, चंद्रघंटा अमाया।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

माँ ब्रह्मचारिणी


 माँ ब्रह्मचारिणी


तप त्याग वैराग्य संयम का, पाठ पढ़ाती माता ।

ब्रह्मचारिणी देती संयम, जो चरणों में आता।

श्वेत वसन है हाथ कमंडल, साधु वृंद गुण गाता।

हाथ जापनी सौम्या छवि है, देखूँ मन हर्षाता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

माँ शैलपुत्री


 प्रथम दिवस


माँ शैलपुत्री


तनया पर्वत राज की, शैलपुत्री सुनाम।

नगपति जैसी ही अड़िग, वरदाई गुण खान।

वरदाई गुण खान,पूजती दुनिया सारी।

कमल लिए है हाथ, वृषभ की करे सवारी।

कहे कुसुम कर जोड़, खड़ी हूँ बनकर विनया।

देदो माँ वरदान, शैल की अनुपम तनया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 24 September 2022

मेरी दस सुक्तियाँ


 मेरी दस सुक्तियाँ 


1आँसू और पसीना दोनों काया के विसर्जन है,एक दुर्बलता की निशानी दूसरा कर्म वीरों का अमृत्व।


2 सफलता उन्हीं के कदम चूमती है जो समय को साध कर चलते हैं।


3 पहली हार कभी भी अंत नहीं शुरुआत है जीत के लिए अदम्य।


4 भाग्य को बदलना है तो स्वयं जुट जाओ।


5 हारता वहीं है जो दौड़ में शामिल हैं,बैठे रहने वाले बस बातें बनाते हैं।


6 सिर्फ पर्वत पर चढ़ जाना ही सफलता नहीं है, पथ के निर्माता भी विजेता होते हैं।


7 पथ के दावेदार नहीं पथ के पथिक बनों मंजिल तक वहीं पहुंचाती है।


8 लीक-लीक चलने वाले कब नई राह बनाते हैं।


9 पुराने खंडहरों पर नये भवन नहीं बनते,नये निर्माण के लिए सुदृढ़ नींव बनानी होती है, चुनौती की ईंट ईंट चुननी होती है।


10 किशोरों का पथ प्रर्दशन करो, उनपर बलात कुछ भी थोपने से वो आप से ज्यादा कभी भी नहीं सीख पायेंगे।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 22 September 2022

अबूझ प्रकृति


 अबूझ प्रकृति


है अबूझी सी कथाएं

खेल कौतुक से भरा

ये कलाकृति काल की या

सूत्र धारी है परा।।


पाकशाला देव गण की

कौनसी खिचड़ी पके

धुंधरी हर इक दिशा है

ओट से सूरज तके

धुंध का अम्बार भारी

व्योम से पाला झरा।।


ये प्रकृति सौ रूप धरती

कब अशुचि कब मोहिनी

मौसमी बदलाव इतने

रूक्ष कब हो सोहिनी

कौन रचता खेल ऐसे

है अचंभे से भरा।। 


दृश्य मधुरिम से उकेरे

पर्वतों के छोर में

भानु लुकता फिर रहा है

शून्य रेखा खोर में

कोहरा वात्सल्य बिखरा

आज आँचल में धरा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 18 September 2022

अल्प कालिक कुंद कवि


 अल्पकालिक कुंद कवि


मन घुमड़ते बादलों से

सृष्टि की चाहत लड़ी

तूलिका क्यों मूक होकर

दूर एकाकी खड़ी।


लेखनी को रोक देते

शब्द बन बैठे अहेरी

गीत कैसे अब खिलेंगे

धार में पत्थर महेरी

भाव ने क्रंदन मचाया

खिन्न कविता रो पड़ी।।


खिलखिलाई शाख पर थी

आज भू पर सो रही है

पाटलों के साथ खेली 

धूल पर क्यों खो रही है

थाम कर कोमल करो से

सांभने की है घड़ी।।


हो समर्पित रचयिता बस

नींद त्यागेगी कभी तो

अल्प सा अवकाश मांगे

मोह निद्रा है अभी तो

तोड़ कर के कुंद पहरे

 बह चले शीतल झड़ी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 16 September 2022

वृद्ध वय ढलता सूर्य


 वृद्ध वय ढलता सूर्य


पर्यटन अवसान को जब

है अभिज्ञा अब स्वता से

क्लांत हो मनसा भटकती

दूर होकर तत्वता से।


प्रोढ़ होता मन सुने अब

क्षीण से तन की कहानी 

सोच पर तन्द्रा चढ़ी है

गात पतझर सा सहानी

रीत लट बन श्वेत वर्णी

झर रही परिपक्वता से।


खड़खड़ाती जिर्ण श्वासें

देह लिपटी कब रहेगी

तोड़ बंधन चल पड़ी तो

शून्य में जाकर बहेगी

कौन घर होगा ठिकाना

बैठ सोचे ह्रस्वता से।।


ताप ढलता सूर्य गुमसुम

ओट जैसे खोजता है

चैन फिर भी न मिलता

सुस्त बाहें खोलता है

थाम ने कोना क्षितिज का

मिचमिचाता अल्पता से।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 13 September 2022

हिन्दी क्यों पराई


 हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🌷🌷


हिन्दी क्यों पराई


चाट रही है खोद नींव को

परदेशी दीमक ये द्वार।

मधु प्याला ही सबसे प्यारा

गंगाजल लगता है खार।


घर की बेटी हुई पराई

दत्तक पर उमड़ा है नेह

आज निवासी बने प्रवासी

छोड़ छाड़ सब अपना गेह

मैया सुबके है कौने में 

मेम सँभाले घर का भार।।


यथाचार में हिन्दी रोती

हर साधक भी चाहे नाम

मातृ भाष का नारा गूंजे

दिन दो दिन का ही बस काम

परिपाटी ही रहे निभाते

कैसे हो फिर बेड़ा पार।।


शिक्षा आंग्ल वीथिका रमती

घर की मुर्गी लगती दाल

भाष विदेशी प्यारी लगती

पढ़कर बदली सबकी चाल

हिन्दी के अन्तस् को फूँके

यौतुक सी ज्वाला हर बार।।


 कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Friday, 9 September 2022

छन्न पकैया


 सार छंद आधारित बाल गीत।


छन्न पकैया


छन्न पकैया छन्न पकैया, 

आज सजी है धरणी।

आया मंजुल मास सुहाना, 

हरित सुधा रस भरणी।


नाचे गाये मोर पपीहा

पादप झूम रहे हैं

बागों में कलियाँ मुस्काई

भँवरे घुम रहे हैं

बीच सरि के ठुम ठुम डोले

काठ मँढ़ी इक तरणी।।


धोती बाँधे कौन खड़ा है

खेतों की मेड़ों पर

उल्टी हाँडी ऐनक पहने

पाग रखी बेड़ों पर

बुधिया काका घास खोदते

हाथ चलाते करणी।।


दादुर लम्बी कूद लगाते

और कभी छुप जाते

श्यामा गाती गीत सुहाने

झर-झर झरने गाते

चिड़िया चीं चीं फुदके गाये

कुतर-कुतर कर परणी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 3 September 2022

प्रकृति के रूप


 गीतिका/212 1212 1212 1212.


प्रकृति के रूप


आसमान अब झुका धरा भरी उमंग से।

लो उठी अहा लहर मचल रही  तरंग से।।


शुचि रजत बिछा हुआ यहाँ वहाँ सभी दिशा।

चाँदनी लगे टहल-टहल रही  समंग से।।


वो किरण लुभा रही चढ़ी गुबंद पर वहाँ।

दौड़ती समीर है सवार हो पमंग से।।


रूप है अनूप चारु रम्य है निसर्ग भी ।

दृश्य ज्यों अतुल दिखा रही नटी तमंग से।।


जब त्रिविधि हवा चले इलय मचल-मचल उठे।

और कुछ विशाल वृक्ष झूमते मतंग से।


वो तुषार यूँ 'कुसुम' पिघल-पिघल चले वहाँ।

स्रोत बन सुरम्य अब उतर रहे उतंग से।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

इलय/गतिहीन

Tuesday, 30 August 2022

उधारी,मनहनण घनाक्षरी


 मनहरण घनाक्षरी छंद


उधारी


उधारी से काम चले, फिर काम कौन करे।

छक-छक  माल खूब, दूसरो के खाईये।।


सबसे बड़ा है पैसा, आज के इस युग में।

काम धाम छोड़कर, अर्थ गुण गाईये।।


खूब किया ठाठ यहाँ, मुफ्त का ही माल लूटा,

खाली है तिजोरी भैया, अब घर जाईये।।


निज का बचाके रखें, गहरा छुपाके रखें।

व्यर्थ का चंदन घिस, भाल पे लगाईये।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 24 August 2022

सामायिक चिंतन


 गीतिका/2122 2122 2122 212.


सामायिक चिंतन


नीर भी बिकने लगा है आज के इस काल में।

हर मनुज फँसता रहा इस मुग्ध माया जाल में।।


अब मिलावट वस्तुओं में बाढ़ सी बढ़ती रही।

कंकरों के जात की भी करकरी है दाल में।।


आपचारी बन रहा मानव अनैतिक भी हुआ। 

दोष अब दिखता नहीं अपनी किसी भी चाल में।


छाछ को अब कौन दे सम्मान इस जग में कहो।

स्वाद सबको मुख्य है मानस फँसा है माल में।


आपदा के योग पर संवेदनाएं वोट की।

दु:ख की तो संकुचन दिखती नहीं इक भाल में।।


मानकों के नाम पर बस छल दिखावे शेष हैं।

बाज आँखे तो टिकी रहती सदा ही खाल में।


बात किस-किस की कहे मुख से 'कुसुम' अपने भला।

भांग तो अब मिल चुकी है आचरण के ताल में।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 19 August 2022

मैं का बोलबाला


 मैं का बोलबाला 


तम की कालिमा से निकाला

भोर की लाली ने फिर सँवारा 

पवन दे रही थी मधुर हिलोर

पल्लव थाल मोती ओस के कोर

शुभ आरती उतारे उषा कुमारी ।।


ऊँचाईओं पर आके बदला आचार

ललाट की सिलवटें बता जाती सब सार।

लो घमंड की पट्टी सी चढ़ी आँखों अभी

सामने अब अपने लगते हैं तुच्छ सभी।

मैं का ही रहा सदा बोल-बाला भारी।


गर्व में यह क्यों भूल बैठता मूर्ख मनु

दिवस की पीठ पर  सवार साँझ का धनु।

ठहराव शिखर रहता कब किसका कहाँ

पूजा व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व की होती यहाँ।

ऊँचाई के पश्चात पतन की दुश्वारी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 16 August 2022

स्वार्थ के राग


 स्वार्थ का राग


अमन शांति के स्वर गूंजे तब

मनुज राग से निकले

दुनिया कैसी बदली-बदली

गरल हमेशा उगले।।


अमरबेल बन करके लटके 

वृक्षों का रस सोखे

जिसके दामन से लिपटी हो

उस को ही दे धोखे

हाथ-हाथ को काट रहा है

भय निष्ठा को निगले।।


बने सहायक प्रेम भाव जो 

सीढ़ी बन पग धरते

जिनके कारण बने आदमी

उनकी दुर्गत करते

स्वार्थ भाव का कारक तगड़ा 

धन के पीछे पगले।।


चहुं दिशा विपदा का डेरा

छूटा सब आनंद है

सम भावों में जो है रहते

उन्हें परमानंद है

समता भाईचारा छूटा 

धैर्य क्रोध से पिघले।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 13 August 2022

बाल गीतिका घर


 बाल गीतिका

मापनी:-122 122 122


एक घर बनाएँ।


चलो एक घर हम बनाएँ।

उसे साथ मिलकर सजाएँ।।


जहाँ बाग छोटा महकता।

वहाँ कुछ सुमन भी खिलाएँ।।


भ्रमर की जहाँ गूँज प्यारी।

वहाँ तितलियाँ खिलखिलाएँ।।


जहाँ एक सोता सुहाना।

वहाँ मछलियाँ मुस्कुराएँ।।


चहक पाखियों की मधुर हो।

सरस गीत कोयल सुनाएँ।।


महल सा नहीं बस सदन हो।

जहाँ साथ हम गुनगुनाएँ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 8 August 2022

तिरंगा


 तिरंगा


लहरा रहा हमारा अभिमान है तिरंगा।  

घर-घर फहर रहा है जय गान है तिरंगा। 


तन कर खड़ा गगन में यह दृश्य है विलक्षण।

उर भारती सुशोभित परिधान है तिरंगा।।


नगराज शीश शोभित दृग देख कर मुदित है।

शत भाल झुक रहें पथ गतिमान है तिरंगा।


कितनी सदी बिताई हत भाग्य दासता में। 

अब देश का बडप्पन बल आन है तिरंगा।


अब तो अमृत महोत्सव बस धूम से मनाओ।

सबके हृदय समाया इकतान है तिरंगा।।


रखती 'कुसुम' उमंगित पथ में सुमन हजारों।

सिर भारती तिलक सम प्रविधान है तिरंगा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 2 August 2022

गीतिका:- चाँद अब निकोर है।


 गीतिका:- चाँद अब निकोर है।
 2212 1212.


लो चाँद अब निकोर है।

ये मन हुआ विभोर है।


सागर प्रशांत दिख रहा।

लहरें करें टकोर है।।


हर सिंधु के बहाव पर।

कुछ वात की झकोर है।।


पावस उमंग भर रहा

शाखा सुमन अकोर है।।


सूरज उगा उजास ले

सुंदर प्रवाल भोर है।।


मन जब निराश हो चले

तब कालिमा अघोर है।


सहचर सुमित्र साथ हो।

आनंद तब अथोर है।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 31 July 2022

सावन का मृदु हास


 सावन का मृदु हास


शाख शाख बंधा हिण्डोला

ऋतु का तन भी खिला-खिला।


रंग बिरंगी लगे कामिनी 

बनी ठनी सी चमक रही

परिहास हास में डोल रही 

खुशियाँ आनन दमक रही

डोरी थामें चहक रही है

सारी सखियाँ हाथ मिला।।


रेशम रज्जू फूल बँधे हैं

मन पर छाई तरुणाई

आँखे चपला सी चपल बनी

गाल लाज की अरुणाई

मीठे स्वर में कजरी गाती 

कण-कण को ही गयी जिला।।


मेघ घुमड़ते नाच रहे हैं

मूंगा पायल झनक रही

सरस धार से पानी बरसा

रिमझिम बूँदें छनक रही

ऐसे मधुरिम क्षण जीवन को

सुधा घूंट ही गयी पिला ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 27 July 2022

गीतिका


 गीतिका /2212 1212


जब भाव शुद्ध मति भरे ।

चिर बुद्धि शुभ्र ही धरे।।


मन में सदा उजास हो।

परिणाम हो सभी खरे।।


हर कार्य पर हिताय हो।

तो क्यों रहें डरे-डरे।।


भर नीर के जलद सभी।

खा चोट वो तभी झरे।।


नव हो विकास कोंपले।

तो पात सब हरे हरे।।


सागर उफन-उफन रहा।

नाविक सधा हुआ तरे  ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 22 July 2022

गीतिका संभावनाएं.


 गीतिका 

संभावनाएं 

शासक स्वछंदी हो वहाँ प्रतिकार करना चाहिए।

उद्देश्य अपना लोक हित तो सत्य कहना चाहिए।।


बाधा न कोई रोक पाए यह अभी प्रण ठान लो।

जन हित करें उद्यम सदा तो फिर न डरना चाहिए।।


डर से कभी भी झूठ का मत साथ देना जान लो।

कोमल हृदय रख पर नहीं अन्याय सहना चाहिए।।


सब मार्ग निष्कंटक मिले ये क्यों किसी ने मान ली।

व्यवधान जो हो सामने तो धैर्य रखना चाहिए।


जब ज्ञान बढ़ता बाँटने से तो सदा ही बाँटना।

हाँ मूढ़ता के सामने बस मौन धरना चाहिए।


हर दिन सदा होता नहीं हैं एक सा यह मान लो।

दुख पीर छाया धूप है सम भाव रहना चाहिए।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 19 July 2022

किसान और बीज

किसान और बीज


चीर धरा की छाती को फिर

अंकुर जीवन धरता 

जगे स्फुरण लेता अँगड़ाई 

तभी उत्थान भरता।।


सीकर सर से  टपक रहा है 

श्याम घटा जल छलका 

अमृत झरा जब तृषित धरा पर 

बीज दरक के झलका 

लगता भू से निकला हलधर 

अर्ध ढ़का तन रहता।।


सभी परिस्थितियों का डटकर 

कर्मठ बुनते ताना 

बिन माता भी शिशु को पाले

धर्म स्वयं का जाना 

हल लेकर निकला किसान फिर

देह परिश्रम झरता।।


कठिन उद्योग करने वाले 

कहाँ कभी रोते हैं 

चीर फलक से धरा गोद में 

मोती वो बोते हैं 

उनका उद्यम रंग दिखाता 

आँचल धरा लहरता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Saturday, 16 July 2022

ओल्यूँ रो झरोखो


 आज एक राजस्थानी नवगीत।


ओल्यूँ रो झरोखो


ओल्यूँ खिड्क्याँ खड़़कावे हैं

आंक्या बांक्या झाँक रही

केई धोली केई साँवली 

खोल झरोखा ताँक रही।


खाटा मधुरा बोर जिमाती

मनड़े नेह जगावे है

कदी कूकती कोयल बोले

कद कागा बोल सुनावे है

ओल्यू मारी साथ सहेली

कोरां हीरा टाँक रही।।


कदे उड़े जा आसमान में।

पंखां सात रंग भरती

सूर थामती खोल हथेल्याँ

कदे अमावस में थकती

उभी ने निमडली रे हेटे 

आँख्या डगरा आँक रही।


टूटी उलझी डोरां बटती

कदे फिसलती बेला में

जूना केई छाप ढूंढती

जाने अनजाने मेला में

ओल्यू है हिवड़ा रो हारज

माणक मोती चाँक रही।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


ओल्यूँ=यादें 

ओल्यूँ खिड्क्याँ खड़़कावे =यादें हृदय की खिड़कियाँ खटका रही है।

आंक्या बांक्या =इधर उधर।

केई धोली केई साँवली =कुछ सफेद कुछ स्याह।

खाटा मधुरा बोर जिमाती=खट्टे मीठी बेर (यादों के)।

कदी कूकती कोयल =कभी मधुर कुकती कोयल जैसी

कदी कागा बोल=कभी कौवे सी कर्कश।

ओल्यू मारी साथ सहेली

कोरां हीरा टाँक रही=

यादें मेरी सखियों सी है आँचल की कौर पर हीरे जड़ी सी।

सूर थामती= सूर्य को पकड़ती

कदे अमावस में थकती=

कभी अमावस सी उदास थकी सी।

उभी ने निमडली रे हेटे आँख्या डगरा आँक रही=

कभी नीम के नीचे खड़ी पथ निहारती सी।

डोरां=डोर। बेला=समय।

जूना=पूरानी। हारज=हार।

माणक मोती चाँक रही=रत्नों से जड़ी है यादें।

Wednesday, 13 July 2022

स्वार्थी मानव


 स्वार्थी मानव


उतरी शिखर चोटी

खरी वो पावनी विमला।

जाकर मिली सागर

बनी खारी सकल अमला।


मैला किया उसको

हमारी मूढ़ मतियों ने

पूजा मगन मन से

अनोखी वीर सतियों ने

वरदान बन बहती

कभी था रूप भी उजला।।


मानव बड़ा खोटा

पहनकर स्वार्थ की पट्टी

है खेलता खेला

उथलकर काल की घट्टी

दलदल बनाता है

निशाना भी स्वयं पहला।।


खोदे गहन गढ्ढे

भयानक आपदा होगी

प्राकृत प्रलय भारी

निरपराधी भुगत भोगी

ज्वालामुखी पिघले

हृदय पत्थर नहीं पिघला।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"