Friday, 31 December 2021

सूर्य पूत्र कर्ण


 सूर्य पुत्र कर्ण


छद्म वेश से विद्या सीखी

करके विप्र रूप धारण

सत्य सामने जब आया तो

किया क्रोध ने सब जारण।


एक वीर अद्भुत योद्धा का

भाग्य बेड़ियों जकड़ा था

जन्म लिया सभ्राँत कोख पर

फँसा जाल में मकड़ा था

आहत मन और स्वाभिमानी

उत्ताप सूर्य के जैसा

बार-बार के तिरस्कार से

धधक उठा फिर वो कैसा

नाग चोट खाकर के बिफरा

सीख रहा विद्या मारण।।


दान वीर था कर्ण प्रतापी 

शोर्य तेज से युक्त विभा

मन का जो अवसाद बढ़ा तो

विगलित भटकी सूर्य प्रभा

माँ के इक नासमझ कर्म से

रूई लिपटी आग बना

चोट लगी जब हर कलाप पर

धनुष डोर सा रहा तना

बात चढ़ी थी आसमान तक

कर न सके हरि भी सारण।।


बने सारथी नारायण तो

युगों युगों तक मान बढ़ा 

एक सारथी पुत्र कहाया

मान भंग की शूल चढ़ा

अपनी कुंठा की ज्वाला में

स्वर्ण पिघल कर खूब बहा

वैमनस्य की आँधी बहकर

दुर्जन मित्रों साथ रहा

चक्र फँसा सब मंत्र भूलता

चढ़ा शाप या गुरु कारण।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 28 December 2021

प्रतिबंधों से बाहर


 प्रतिबंधों से बाहर


आयु जिसमें दब गई है

वर्जना का बोझ भारी

हो स्वयं का ऐक्य निज से

नित हृदय चलती कटारी।।


आज तक तन ही सँवारा 

डोर इक मनपर बँधी थी

पूज्य बनकर मान पाया

खूँट गौ बनकर बँधी थी

हौसले के दर खुलेंगे

राह सुलझेगी अगारी।।


भोर की उजली उजासी

इक झरोखा झाँकती है

तोड़ने तमसा अँधेरा

उर्मि यों को टाँकती है

सूर्य की आभा पनपती

आस की खिलती दुपारी।।


तोड़कर झाँबा उड़े मन

बंध ये माने कहाँ तक

पंख लेकर उड़ चला अब

व्योम खुल्ला है जहाँ तक

आ सके बस स्वच्छ झोंका

खोल देगी इक दुआरी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


स्वयं का ऐक्य=निज की पहचान

अगारी=आगे की

दुपारी=दुपहरी

झाँबा=पिंजरा या कैद

दुआरी=छोटा दरवाजा

Saturday, 25 December 2021

दिखावा

दिखावा


मुक्ता छोड़ अब हंस 

चुनते फिरते दाना

रंग शुभ्रा आड़ में

रहे काग यश पाना।


बजा रहे हैं डफली

सरगम गाते बिगड़ी

बोल देवता जैसे

जलती निज की सिगड़ी

झूठी राग अलापे

जैसे हूँ हूँ का गाना।।


चमक-दमक बाहर की

श्वेत वस्त्र मन काला

तिलक भाल चंदन का

हाथ झूठ की माला‌

मनके पर जुग बीता

खड़ा बैर का ताना।।


बिन पेंदी के लोटे 

सुबह शाम तक लुढ़के 

हाँ में हाँ करते हैं

काम कहो तो दुबके

छोड़ा बदला पहना 

श्र्लाघा का नित बाना।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

 

Thursday, 23 December 2021

द्रोपदी का अपमान


 द्रौपदी का अपमान


मूक अधर काया कंपित पर

भेद विदित का डोल रहा था।

काल खड़ा था चुप चुप लेकिन

उग्र विलोचन तोल रहा था।


सभा नहीं थी वो वीरों की

चारों और शिखण्डी बैठे

तीर धनुष सब झुके पड़े थे

कई विदूषक भंडी बैठे

लाल आँख निर्लज्ज दुशासन

भीग स्वेद से खौल रहा था।।


आज द्रोपदी खंड बनी सी

खड़ी सभा के बीच निशब्दा

नयन सभी के झुके झुके थे

डरे डरे थे सोच आपदा

नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल

नेह हृदय कुछ बोल रहा था।।


ढेर चीर का पर्वत जैसा

लाज संभाले हरि जयंता

द्रुपद सुता के हृदय दहकती

पावक भीषण घोर अनंता

कृष्ण सखा गहरी थी निष्ठा

तेज दर्प सा घोल रहा था।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 20 December 2021

क्षितिज के पार।


 क्षितिज के पार


सौरभ भीनी लहराई

दिन बसंती चार।

मन मचलती है हिलोरें

सज रहें हैं द्वार।


नीले-नीले अम्बर पर

उजला रूप इंदु 

भाल सुनंदा के जैसे

सजता रजत बिंदु

ज्यों सजीली दुल्हन चली 

कर रूप शृंगार।।


मंदाकिनी है केसरी

गगन रंग गुलाब 

चँहु दिशाओं में भरी है

मोहिनी सी आब 

चाँद तारों से सजा हो

द्वार बंदनवार।।


चमकते झिलमिल सितारे

क्षीर नीर सागर

क्षितिज के उस पार शायद

सपनों का आगर

आ चलूँ मैं साथ तेरे 

क्षितिज के उस पार।।


 कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Saturday, 18 December 2021

रूपसी


 गीतिका (हिन्दी ग़ज़ल)


रूपसी


खन खनन कंगन खनकते, पांव पायल बोलती हैं।

झन झनन झांझर झनककर रस मधुर सा घोलती हैं।।


सज चली श्रृंगार गोरी आज मंजुल रूप धर के।

ज्यों खिली सी धूप देखो शाख चढ़ कर डोलती है।।


आँख में सागर समाया तेज चमके दामिनी सा।

रस मधुर से होंठ चुप है नैन से सब तोलती है।


चाँद जैसा आभ आनन केसरी सा गात सुंदर।

रक्त गालों पर घटा सी लट बिखर मधु मोलती है।।


मुस्कुराती जब पुहुप सी दन्त पांते झिलमिलाई।

सीपियाँ जल बीच बैठी दृग पटल ज्यों खोलती है।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 16 December 2021

नवजागरण


 नवजागरण


बीती बातों को बिसरादे

क्यों खारी यादों में रोता

हाथों से तू भाग्य सँवारे

खुशियों की खेती को जोता ।


शाम ढले का ढ़लता सूरज 

संग विहान उजाले लाता

साहस वालों के जीवन में

रंग प्रखर कोमल वो भरता

त्यागो धूमिल वसन पुराने

और लगा लो गहरा गोता।।


मन के दीप जला आलोकित

जीवन भोर उजाला भरलो

लोभ मोह सम अरि को मारो

धर्म ध्वजा को भी फहरालो

धरा भाव को समतल करके

उपकारी दानों को बोता।।


तम से क्यों डरता है मानव

नन्हा दीपक उस पर भारी 

अवसर को आगाज बनादे

करले बस ऐसी तैयारी

बीज रोप दे बंजर में कुछ

यूँ कोई होश नहीं खोता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 13 December 2021

फीकी ऋतुआँ


 फीकी ऋतुआ़ँ


आला लीला साँझ सकारा

कोर हिय के प्रीत जागे

पाहुनो घर आय रह्यो है

फागुनी सो रंग सागे।।


घणा दिना तक काग उडाया

बाँटां जोई है राताँ 

छैल भँवर बिन किने सुनावा

मन री उथली सी बाताँ

जल्दी आजो जी आँगन में

जिवडो उडतो ओ भागे।।


छोड़ गया परदेश साजना

चेत नहीं म्हारी लीनी

अमावस की राताँ काली

सावन री बिरखा झीनी

कितरी ऋतुआ बीती फीकी

गाँठ बा़ँधता धागे-धागे।।


 पिवसा सुनजो मन री मरजी

अब की चालूँ ली साथाँ

नहीं चाइजे रेशम शालू

ओढ़ रवाँ ला मैं काथाँ 

सुनो मारुजी बिन थांँरे तो

मेलों भी सूनो लागे।।


आला-लीला=गीला,सीला

बाँटा जोई = राह निहारना

छैल भँवर=पति

शालू = सुंदर वस्त्र

काँथा = पुराने कपड़ों से सिले वस्त्र

पिवसा=प्रिय ,पति

मारुजी=पति।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 10 December 2021

भावना के भँवर

भावना के भँवर


मन की गति कोई ना समझे

डोला घूमा हर कण हर कण।


कभी व्योम चढ़ कभी धरा पर

उड़ता फिरता मारा-मारा

मिश्री सा मधुर और मीठा

कभी सिंधु सा खारा-खारा

कोई इसको समझ न पाया

समझा कोई ये तो है तृण।।


कभी दूर तक नाता जोडे

नहीं सुधी है कभी पास भी

सन्नाटे में भटका खाता

कभी दमक की लगे आस भी

कैसे-कैसे स्वांग रचाए

मिलता है जाकर के मृण-मृण।।


नर्म कभी फूलों सा कोमल

कभी लोहे सा कठिन भारी 

मोह फेर में पड़ता प्रतिपल

कभी निर्दयी देता खारी

भावना के गहरे भँवर में 

डूबे उभरे पल क्षण पल क्षण।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Friday, 3 December 2021

संशय से निकलो


 संशय से निकलो


नीड़ टूट कर बिखरा ऐसा

जीवन का रुख मोड़ दिया

भग्न हृदय के तारों ने फिर

तान बजाना छोड़ दिया।


संशय जब-जब बने धारणा

गहरी नींव हिला देता

अच्छे विद्व जनों की देखी 

बुद्धि सुमति भी हर लेता

बात समय रहते न संभली

शंका ने झकझोड़ दिया।।


आदर्शों के पात झड़े तब 

मतभेदों के झाड़ उगे

कल तक देव जहाँ रमते थे

शब्दों के बस लठ्ठ दगे

एक विभाजन की रेखा ने

पक्के घर को तोड़ दिया।।


गिरकर जो संभलना जाने

हिम्मत की पहचान यही

नये सूत्र में सभी पिरो दें    

हार मानते कभी नही

अपने नेह कोश से देखो

तिनका-तिनका जोड़ दिया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

नियति


 नियति सब कुछ तो निश्चित किए बैठी है और हम न जाने क्यों इतराते रहते हैं खुद की कल्पनाओं, समझदारी, योजनाओं,और साधनों पर।

क्या कभी कोई पत्ता भी हिलता है हमारे चाहने भर से।

समय दिखता नहीं पर निशब्द अट्टहास करता है हमारे पास खड़ा ,हम समय के भीतर से गुजरते रहते हैं अनेकों अहसास लिए और समय वहीं रूका रहता हैं निर्लिप्त निरंकार।

वक्त थमा सा खड़ा रहता है और हम उस राह गुजरते हैं जिसकी कोई वापसी ही नहीं।

पीछे छूटते पलों में कितने सुख कितने दुख सभी पीछे छूटते हैं बस उनकी एक छाया भर स्मृति में कहीं रहती है।

और हम निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं समय खड़ा रहता है ठगा सा !!

Monday, 29 November 2021

हाइकु शिल्प आधारित लघु रचनाएं


 हाइकु शिल्प आधारित लघु रचनाएं।


अम्बर सजा

इंद्रधनुषी रंग

बौराई दिशा। 


चाँद सितारे

ले उजली सी यादें

आये आँगन। 


कौन छेडता

मन वीणा के तार

धीरे धीरे से।


दूधिया नभ

निहारिका शोभित

मन चंचल ।


हवा बासंती

बहती धीरे धीरे

गूँजे संगीत।


दरख्त मौन

बसेरा पंछियों का

 सुबह तक।


सूरज जला

पहाड़ थे पिघले

नदी उथली ।


राह के काँटे

किसने कब बाँटे

लक्ष्य को साधें।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 28 November 2021

अज्ञात कविताओं का दर्द


 अज्ञात कविताओं का दर्द।


इंतजार में पड़ी रही वो कविताएँ दबी सी किन्हीं पन्नों में,

कि कभी तो हाँ कभी तो तुम उन्हें मगन हो  गुनगुनाओगी।


जब लिखा था तो व्यंजनाएँ हृदय से फूटी थी अंदर गहरे से,

कहो ये तो सच है न कितने स्नेह से सहेजा था उन्हें।


और भूल गई उनको सफर में मिले यात्रियों की तरह,

वो कसमसाती रही तुम्हारे बस तुम्हारे होठों तक आने को।


उन में भी नेह,सौंदर्य,प्रेम,स्नेह स्पर्श था पीड़ा थी दर्द था,

आत्म वंचना, मनोहर दृश्य और  प्रकृति भी सजी खड़ी थी।


तुम्हारी ही तो कृति थी वात्सल्य से सजाया था उन्हेें,

आज पुरानी गुड़िया सी उपेक्षित किसी कोने में पड़ी है।


अलंकार पहनाए थे सभी कुछ पहना दिया,

पर एक पाँव में पाजेब आज तक नही पहनाई।


वो पहनने से छूटी पाजेब आज भी बजना चाहती है,

उन्हीं पुरानी कविताओं के एक सूने पाँव में बंध कर।


हाँ आज भी इंतजार में है ढेर से बाहर आने को,

तुम्हारे होठों पर चढ़ कर इतराने को गुनगुनाने को।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 24 November 2021

ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत की क्रांति





 





 ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत की क्रांति

राजस्थान की जोधपुर रियासत जिसे मारवाड़ भी कहा जाता है, इसमें आठ ठिकाने थे जिनमें एक आउवा भी था. ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत पाली जिले के इसी आउवा के ठाकुर थे. इन्होने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जोधपुर रियासत और ब्रिटिश संयुक्त सेना को पराजित कर मारवाड़ में आजादी की अलख जगा दी थी.
उन्हीं वीर ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत की अंग्रेज़ो के विरुद्ध 
क्रांति के कुछ दृश्य आल्हा छंद में समेटने का प्रयास।

 *ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत की क्रांति।* 
आल्हा छंद में सृजन।

दोहा:-
जोधपुरी शासक रहे, तख्त सिंह था नाम।
हार मान अंग्रेज से, करे हजूरी काम।।१

एक ठिकाना आउवा, ठाकुर वीर कुशाल।
चम्पावत सरदार थे, कुशल प्रजा के पाल।।२

ठाकुर ने विद्रोह किया था,
जोधपुरी राजा के साथ।
राव बड़े छोटे कितने थे, 
आकर पकड़ा ठाकुर हाथ।।

ठोस बनाकर सेना टोली,
विद्रोही दलबल के संग।
ऊँचा रखते अपना अभिजन,
मान्य नही राजा का ढ़ंग।।

जागीर अधिप आ संग जुड़े,
औ दहका गोरा कप्तान।
जोधपुरी राजा की सेना,
आप बना था वो अगवान।।

संग विरोधी राजा ठाकुर,
राव कुशाल बने सरदार।
सेना दल बल लेकर आगे,
हाथ सुसज्जित थे हथियार।।

जोधपुरी सेना थी भारी, 
भारी अंग्रेजी हथियार।
झोंक उमंग भरे रजपूते,
मूंछें ताने थे मड़ियार।।

शीश किलंगी साफा छोड़ा, 
वीर पहन केसरिया पाग।
भाला, ढाल, कृपाण,खड़ग लें,
निकले खेलन जैसे फाग।।

हीथ करे सेना अगवानी,
राव कुशाल इधर सरदार।
दलबल ले दोनों सम्मुख थे,
क्रोध चढ़ा था पारावार।।

रक्त उबाल लिए रजपूते
विजुगुप्सा थी वक्ष अपार।
मर्दन करना था गोरों का
हाथ कृपाण हृदय में खार।।

बात अठारह सो सत्तावन,
एक हुई थी क्रांति महान।
रजपूते सामंतों ने मिल,
तोड़ी थी गोरों की बान।।

पाली अजमेरी सीमा पर,
युद्ध छिड़ा गोरों के साथ।
सैनिक मारे तोपे छीनी, 
पैट्रिक भागा  सिर ले हाथ।।

होश फिरंगी सेना के अब,
उड़ते आँधी में ज्यों पात।
आज दिखाते रण में कौशल,
हर योद्धा करता था घात।।

प्राण लिए हाथों में ठाकुर,
काल स्वरूप बना साक्षात।
एक प्रहार कटे सिर लुढ़के,
दूर गिरे जाकर के गात।।

दोहे:-
दृश्य दिखाई दे रहा, नृत्य करे ज्यों काल।
नर मुंड़ो से भू भरी, गली नहीं रिपु दाल।।१

काट मोंक का शीश फिर, बाँध अश्व की पीठ।
ठाकुर चलते शान से, दृश्य विकट अनडीठ।।२

मुंड कटा टांगा गढ़ पोळी,
उमड़ा आया पाली गाँव।
देख बड़ा गोरा अधिकारी,
आज अधर में उसकी ठाँव।।

हँसता कोई थूक घृणा से,
बच्चे पीट रहे थे थाल।
भीरु बने थे आज महारथ,
पीट रहे थे अपना गाल।।

गोरे भागे पग शीश धरे,
मूंछ मरोड़े थे मड़ियार।
गाँव नगर में मेला सजता,
हर्ष मनाए सब नर नार।।

एक पराजय से धधके थे,
शत्रु बने ज्यूँ जलती ज्वाल।
बदला लेने की ठानी फिर,
सोच रहे थे दुर्जन चाल।।

दुर्गति का हाल गया जल्दी, 
उच्च पदाधिकारियों पास।
लारेंस लिए सेना को निकला,
मोर्चा ले ब्यावर से खास।।

धावा बोला रजपूतों पर,
सिंह कुशाल सुनी ये बात।
टूट पड़े वो सेना लेकर,
दिखलानी गोरों को जात।।

युद्ध घमासानी विप्लव सा,
खेत रहे विद्रोही राव।
पर गोरों ने मुख की खाई,
हार करारी ताजा घाव।।

ये भी तो अंत नही होगा,
जान रहे थे योद्धा वीर ।
कूट ब्रितानी चलने वाले,
आगे कोई चाल अधीर ।।

दोहे:-
हार गये गोरे समर, राजा भी बल हीन।
पर ब्रितानिए लग रहे, जैसे कोई दीन।।१

एक वर्ष के बाद में, सैन्य लिए बहु ओर।
गोरों ने दलबल सहित, धावा बोला घोर।।२

ठाकुर राव सभी मिलकर के,
व्हूय रचेंगे एक अजेय ।
गोरों को पाठ पढ़ाना है,
सोच यही  सबका था धेय।।

विधना को स्वीकार नहीं था,
रचना हो जब तक संपूर्ण।
उससे पहले घात लगा कर
अंग्रेजों ने  फेंका तूर्ण।।

तीन महीने बीत रहे थे,
वर्ष नये की थी शुरुआत।
बहु छावनियों से ले सेना,
गोरों ने की मोटी घात।।

क्रांति महा के सामन्तों पर,
टूट किया आकस्मिक वार।
लूट खसोट मचाई भारी,
कर विस्फोट सुरंग अपार।।

सुगली देवी मूर्ति उठाई,
और मचाई भारी मार।
दो बारी की हार करारी,
बदला लेने की थी खार।।

वीर लड़े अंतिम सांसों तक,
एक भिडे थे बीस समान।
साधन थे परिमित लेकिन,
काँप रही गोरों की जान।।

रक्त पिपासु कृपानें बहती,
काट रही थी अरि के मुंड।
लेकिन शत्रु विशाल खड़ा था,
साथ दिखे फिर भारी झुंड़।।

गोला बारूद जटिल भारी,
और विशाल कटक के साथ।
अंग्रेजों ने फिर रण छेड़ा
मुठ्ठी भर रजपूत अकाथ।।

दोहे:-
कहते हैं दुर्भाग्य से, क्रांति हुई थी व्यर्थ।
पर ब्रितानियों के लिए, भारी ये प्रत्यर्थ।।१

रजपूताने में कभी, फिर न जमे थे पाँव।
गोरों का बस रह गया, एक अजमेर ठाँव।।२

वीर जुझारू थे कुशल, क्रांति कारी महान।
देश भलाई हित किया ,तन मन धन बलिदान।।३

रजपूते ये वीर थे, तीक्ष्ण तेज तलवार।
निज माटी सम्मान में,बही रक्त की धार।।४

 *कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'*

Tuesday, 23 November 2021

हरि बस चक्र थाम लो।


 हरि बस चक्र थाम लो।


हरि बस चक्र थाम लो तुम

पाप चढ़े अब धरणी पर

अब न थामना काठ मुरलिया

जग बैठा है अरणी पर।


घूम रहे सब दिशा दुशासन

दृग मोड़ कर साधु बैठे

लाज धर्म को भूल घमंडी

मूढ से शिशुपाल ऐंठे

सकल ओर तम का अँधियारा

घोर लहर है तरणी पर।।


बहुत दिनों तक रास रचाए

ग्वाल बाल सँग चोरी

और घनेरा माखन खाया

फोडी गगरी बरजोरी

सब कुछ भोगा इसी धरा से

विश्व नाचता दरणी पर।।


तुम तो गौ धन के रखवाले

दीन दुखी तुमको प्यारे

कैसे कैसे रूप रचा कर

काम किये कितने न्यारे

अब सोये हो किस शैया पर

व्याघ्र चढ़े हैं उरणी पर।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 20 November 2021

काल विकराल


 काल विकराल

क्षुद्र नद सागर मिलन को

राह अपनी मोड़ती सी।।


हर दिशा उमड़ा हुआ है

नीरधर श्यामल भयंकर

काल दर्शाता रहा है

पल अलभ से विस्मयंकर

ये हवाएं व्याधियाँ दे

फड़फड़ा कर दौड़ती सी।।


और धरणीधर पिघलता

आग उगले आक पलपल

सिंधु अंतस में समेटे

ड़ोलती उद्धाम हलचल

फिर मचल कर उर्मिया भी

बंध तट के तोड़ती सी।।


खिलखिला धरती खसकती

हँस रही ज्यों मानवों पर

कब चढ़ाई इंद्र करेगा

चाप लेकर दानवों पर

मिल रही चेतावनी भी

चित्त को झकझोरती सी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 16 November 2021

मन मगन


 मन मगन


रागिनी उठ कर गगन तक

उर्मि बन कर झिलमिलाई।


गीत कितने ही मधुर से

हिय नगर से उठ रहे हैं

साज बजते कर्ण प्रिय जो

मधु सरस ही लुट रहे हैं

नाच उठता मन मयूरा

दूर सौरभ लहलहाई।।


आज कैसी ये लगन है

पाँव झाँझर से बजे हैं

उड़ रहा है खग बना मन

हर दिशा तारक सजे है

लो पवन भी गुनगुनाकर

कुछ महक कर सरसराई।।


कुनकुनी सी धूप मीठी 

वर्तुलों में कौमुदी सी

ढल रही है साँझ श्यामा

ज्यों हरित हो ईंगुदी सी

तान वीणा की मचलकर

गीतमय हो मुस्कुराई।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 14 November 2021

दोला !!


 दोला !!


इक हिंडोला वृक्ष बँधा है

दूजा ओझल डोले।

थिरक किवाड़ी मन थर झूले

फिर भी नींद न खोले।।


बादल कैसे काले-काले

घोर घटाएं छाई

चमक-चमक विकराल दामिनी

क्षिति छूने को धाई

मन के नभ पर महा प्रभंजन

कितने बदले चोले।।


रेशम डोर गाँठ कच्ची है

डाली सूखी टूटे

पनघट जाकर भरते-भरते

मन की गागर फूटे

विषयों के घेरे में जीवन

दोला जैसे दोले।।


बहुत कमाया खर्चा ज्यादा

बजट बिगाड़ा पूरा

रहें बटोरे निशदिन हर पल

भग्न स्वप्न का चूरा

वाँछा में आलोड़ित अंतर

कच्ची माटी तोले।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 11 November 2021

सीता स्वयंवर और परशुरामजी

आल्हा (वीर छंद)

सीता स्वयंवर और परशुरामजी


नाद उठा अम्बर थर्राया

एक पड़ी भीषण सी थाप।

तृण के सम बिखरा दिखता था

भूमि पड़ा था शिव का चाप।।


शाँत खड़े थे धीर प्रतापी, 

दसरथ  सुत राघव गुणखान।

तोड़ खिलौना ज्यों बालक के,

मुख ऊपर सजती मुस्कान।।


स्तब्ध खड़े थे सब बलशाली,

हर्ष लहर फैली चहुँ ओर।

राज्य जनक के खुशियाँ छाई

नाच उठा सिय का हिय मोर।।


हाथ भूमिजा अवली सुंदर

ग्रीवा भूपति डाला हार।

कन्या दान जनक करते

हर्षित था सारा परिवार।।

 

रोर मचा था द्रुतगति भीषण

काँप उठा था सारा खंड।

विस्मय से सब देख रहे थे

धूमिल सा शोभित सब मंड।।


ऋषि तेजस्वी कर में फरसा 

दीप्तिमान मुखमंडल तेज।

आँखें लोहित कंपित काया

मुक्त गमन तोड़े बंधेज।।


दृष्टि गई आराध्य धनुष पर

अंगारों सी सुलगी दृष्टि

घोर गर्जना बोले कर्कश

भय निस्तब्ध हुई ज्यों सृष्टि।।


घुड़के जैसे सिंह गरज हो

पात सदृश कांपे सब राव।

किसने आराध्य धनुष तोड़ा

कौन प्रयोजन फैला चाव।।


सब की बंध गई थी घिग्घी 

मूक सभी थे उनको  देख

राम खड़े थे भाव विनय के

 मंद सजे मुख पर स्मित रेख।।


बोले रघुपति शीश नमा फिर

मुझसे घोर हुआ अपराध

चाप लगा मुझको ये मोहक

देखा जो प्रत्यंचा साध।।


हाथ उठा जब साधन चाहा

भग्न हुआ ज्यूँ जूना काठ

आप कहे तो नव धनु ला दूँ 

इसके जिर्ण दिखे सब ठाठ।।


सुन कर बोल तरुण बालक के

क्रोधाअग्नि पड़ी घृत धार

रे सठ बालक सच बात बता

किसका ये दण्डित आचार।।


होगा कोई सेवक किंचित

धीर धरे चेतन परमात्म 

सेवक धृष्ट नही अनुयाई

आदर स्वामी का निज आत्म।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Monday, 8 November 2021

सुख भरे सपने


 सुख भरे सपने


रात निखरी झिलमिलाई

नेह सौ झलती रही

चाँदनी के वर्तुलों में

सोम रस भरती रही।


सुख भरे सपने सजे जब

दृग युगल की कोर पर

इंद्रनीला कान्ति शोभित

व्योम मन के छोर पर

पिघल-पिघल कर निलिमा से

सुर नदी झरती रही।।


गुनगुनाती है दिशाएँ

राग ले मौसम खड़ा

बाँह में आकाश भरने

पाखियों सा  मन उड़ा

पपनियाँ आशा सँजोए

रात  यूँ ढलती रही।।


विटप भरते रागिनी सी

मिल अनिल की थाप से

झिलमिलाता अंभ सरि का

दीप मणि की चाप से 

उतर आई अप्सराएँ

भू सकल सजती रही ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 5 November 2021

महा लक्ष्मी


 महा लक्ष्मी


अहो द्युलोक से कौन अद्भुत

हेमांगी वसुधा पर आई

दिग-दिगंत आभा आलोकित

मरुत बसंती सरगम गाई।।


महारजत के वसन अनोखे 

दप-दप दमके कुंदन काया

आधे घूंघट चंद्र चमकता

अप्सरा सी ओ महा-माया

कणन-कणन पग बाजे घुंघरु

सलिला बन कल-कल लहराई।।


चारु कांतिमय रूप देखकर  

चाँद लजाया व्योम ताल पर

मुकुर चंद्रिका आनन शोभा

झुके-झुके से नैना मद भर

पुहुप कली से अधर रसीले

ज्योत्सना पर लालिमा छाई।‌।


कौमुदी  कंचन संग लिपटी 

निर्झर जैसा झरता कलरव

सुमन की ये लगे सहोदरा

आँख उठे तो टूटे नीरव

चपल स्निग्ध निर्धूम शिखा सी

पारिजात बन कर  लहराई।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 1 November 2021

मन हिरणी


 मन हिरणी


हृदय मरुस्थल मृगतृष्णा सी

भटके मन की हिरणी

सूखी नदिया तीर पड़ी ज्यों

ठूँठ काठ की तरणी।।


कब तक राह निहारे किसकी

सूरज डूबा जाता

काया झँझर मन झंझावात,

हाथ कभी क्या आता

अंतर दहकन दिखा न पाए

कृशानु तन की अरणी।।


रेशम धागा उलझ रखा है,

गाँठ पड़ी है पक्की

भँवर याद के चक्कर काटे  

जैसे चलती चक्की 

जाने वाले जब लौटेंगे 

तभी रुकेगी दरणी।‌।


सुधि वन की मृदु कोंपल कच्ची

पोध सँभाल रखी है

सूनी गीली साँझ में पीर 

एक घनिष्ठ सखी है

दिन प्रात और रातें बीती

वहीं रुकी अवतरणी ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 29 October 2021

मन: स्थिति


 ग़ज़ल (गीतिका)

२१२२×४

मन: स्थिति


आज जीने के लिये लो चेल कितने ही सिए हैं।

मान कर सुरभोग विष के घूँट कितनों ने पिए हैं।।


दाग अपने सब छुपाते धूल दूजों पर  उड़ाते ।

दिख रहा जो स्वर्ण जैसा पात खोटा ही लिए है।।


रह रहे मन मार कर भी कुछ यहाँ संसार में तो।

धीर कितनें जो यहाँ विष पान करके भी जिए है।।


दुश्मनों की नींद लूटे चैन भी रख दाँव पर वो।

रात दिन रक्षा करे जो प्राण निज के भी दिए हैं।।


जी रहा कोई यहाँ बस स्वार्थ अपने साधने को‌।

वीरता से देश हित में काम कितनों ने किए है।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 25 October 2021

पीड़ा कैसे लिखूँ


 पीड़ा कैसे लिखूँ


पीड़ा कैसे लिखूँ

दृग से बह जाती है,

समझे कोई न मगर

कुछ तो ये कह जाती है,

तो फिर हास लिखूँ,

परिहास लिखूँ,

नहीं कैसे जलते

उपवन पर रोटी सेकूँ।

मानवता रो रही, 

मैं हास का दम कैसे भरूँ,

करूणा ही लिख दूँ,

बिलखते भाग्य पर

अपनी संवेदना, 

पर कैसे कोई मरहम

होगा मेरी कविता से,

कैसे पेट भरेगा भूख का,

कैसे तन को स्वच्छ 

वसन पहनाएगी 

मेरी लेखनी।

क्या लू से जलते 

की छाँव बनेगी

मेरी कविता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 22 October 2021

'कह मुकरी छंद' कुसुम की 108 मुकरियों की माला।


 
1)श्याम वर्ण वो मन को भाये
चले फिरे वो मुझे लुभाये
शोभा उसकी मोहे तन-मन 
हे सखि साजन? ना सखि वो घन।।

2)कद का छोटा वेश छबीला
बातों में भी है रंगीला
दुनिया से वो बिल्कुल न्यारा
क्या सखि साजन? ना इकतारा।।

3)बल खाता लहराता ऐंठा
चलते-चलते बनता ठेंठा।
कई बार बिगड़ा वो आड़ू
क्या सखि साजन? ना सखि झाड़ू।। 

4)डूबकी लेकर बाहर आता
आँगन में फिर लोट लगाता
डोले पहने वो अंगौछा 
क्या सखि साजन? ना सखि पौंछा।।

5))हाथ पकड़ कर खूब नचाऊँ
उसके बिना न रोटी खाऊँ
बार-बार उससे हो कट्टी
क्या सखि साजन? ना सखि घट्टी।।

6)रूप सजीला है मन भावन
कभी नहीं करता है अनबन
गले लिपट वो लगता लोना
हे सखि साजन? ना सखि सोना।।

7)गोल मोल पर लगता प्यारा 
 रंग रूप में सबसे न्यारा
 नेह सूत में उसे पिरोती
 क्या सखि साजन?ना सखि मोती।।

8)काला है पर मुझको भाए
साथ सदा खुशहाली लाए
देह लचीली भागे फर-फर
हे सखि साजन? ना सखि जलधर।।

9)प्रेम लुटाए भरा-भरा तन
मोद मुकुल हो जाता मन
देखूँ उसको मैं खड़ी-खड़ी
हे सखि साजन? ना मेघ झड़ी।।

10)गुस्सा ज्यादा चाल है तेज
श्वेत वसन श्यामल है सेज
बदले झट वो जैसे त्रिया
हे सखि साजन? न घनप्रिया।।

घनप्रिया=बिजली

11)आँख निकाले मुझे सताए
रोद्र रूप कर मुझे डराए
भर दे वो काया में कँपा
हे सखि साजन? ना सखि शँपा।।

शँपा =दामिनी, बिजली।

12)कभी-कभी वो रोष करे जब
घुडकी ऐसी हृदय डरे तब
छुपकर उससे  बैठूँ अंदर
क्या सखि साजन? ना सखि बंदर।।

13)हरदम ही वो दबकर रहता
मनमानी जो कभी न करता
वो सबके पाँवों को छूता
क्या सखि साजन? ना सखि जूता।।

14)जीने का आश्रय है मेरा
जो जीवन में भरे उजेरा
वो तो है श्वांसों का संबल
हे सखि साजन? ना ना सखि जल।।

15)नहीं पास तो जी घबराए
चाहत उसकी मन भरमाए
वो आधार वही है आयु
क्या सखि साजन? ना सखि वायु।।

16)अंदर बाहर उसकी पारी
दौड़ भाग लगती है भारी
कोमल वो वन में ज्यों काँस
हे सखि साजन? ना सखि साँस।।

17)बालों में सोना सा चमके
दान्त पाँत मोती सी दमके
वो करता है हक्का-बक्का
हे सखि साजन? ना सखि मक्का।।

18)खिला-खिला सा वो मुस्काए
मेरे उर को सदा लुभाए।
उसको देखूँ खिलता है मन
हे सखि साजन ? ना सखि उपवन।।

19)बाँह लचीली सुंदर काठी 
कभी हाथ की बनता लाठी
हाथों में रखता वो झंडा 
हे सखि साजन? ना सखि डंडा ।।

20)बातें उसकी है मन भाती
दूर देश से लिखता पाती
आया वो गोदी में लेटा 
हे सखि साजन ? ना सखि बेटा।।

21)सुंदर रूप सुकोमल काया
मन मेरा उसमें भरमाया
देखूँ उसे न चलता जोर 
हे सखि साजन? ना सखि मोर।।

22)कैसी किस्मत लेकर आया
कहते हैं सब शीश चढ़ाया।
उसके बिन जीवन है फीका
हे सखि साजन ? ना सखि टीका।।

23)चढ़ता नाक वार त्योहारी  
छेड़-छाड़ करता हर नारी
कैसे कह दूँ उसकी करनी
हे सखि साजन ? ना सखि नथनी।।

24)मन मोहक सुंदर है काया
देखा उसको मन हर्षाया
साथ सदा वो जाता मेला
हे सखि साजन? ना सखि झेला।।

25)दिखता है जो उत्तम न्यारा
सखियों को भी लगता प्यारा।
मूल्यवान वो घर का है धन
हे सखि साजन? ना सखि कंगन।।

26)आगे पीछे डोले झूमें
मुख मोड़ू तो वो भी घूमें
साथ लगाता है वो ठुमका
क्या सखि साजन? ना सखि झुमका।।

27)मिश्री जैसे बोल सुहाने
 कभी नहीं वो मारे ताने
बिगड़े वो चीखे ज्यों कुरली
क्या सखि साजन? ना सखि मुरली।।
कुरली=बाज

28)थपकी दे कर जिसे जगाती
शोर करें तो दूर भगाती
हाथ साथ ही उस का मोल
क्या सखि साजन? ना सखि ढोल।।

29)दूर भेज कर अंतस रोया
कई बार धीरज भी खोया
कभी उसे मैं भूल न पाई
हे सखि साजन ? ना सखि जाई।।

30)कभी न करता आनाकानी
मेरी बात सदा ही मानी 
कान मरोड़े देता वो फल
क्या सखी साजन? ना सखी नल।।

31) शीश चढ़ा कर उसको रखती
बड़े प्यार से उस सँग रहती
खरा कभी लगता है खोटा
क्या सखि साजन? ना सखि गोटा।।

32)रंग सुनहरा खूब लुभाता।
वो तो सबके ही मन भाता।
उससे खुश हैं छोरी-छोरा।
ऐ सखि साजन? ना सखि धोरा।।

33)श्याम वर्ण पर कितना न्यारा।
रूप अनोखा है अति प्यारा।
उसको छूती खनके चूड़ा।
ऐ सखि साजन? ना सखि जूड़ा।।

34)तेज अनुपम रूप न्यारा
उसके बिन सूना जग सारा
 कितनी आलोकित उसकी छवि
हे सखि साजन ? ना ना सखि रवि।।

35)गोरा तन पानी नहलाती
सोता है हरियाली पाती
निखरे वो होकर के जूना
क्या सखि साजन? ना सखि चूना।।

36)करती हूँ मन से मैं पूजा
उसके जैसा मिले न दूजा
वो ही है जीवन का आगर
हे सखि साजन? ना सखि नागर।

37)सिर पर उसको धारण करती
साथ लिए मंदिर पग धरती
शुभता की वो है रंगोली
हे सखि साजन? ना सखि रोली।।

38)हाथ पकड़ उसका मैं रखती,
उसके बिना कभी ना रहती।
नहीं लगाती उस को पौली,
हे सखि साजन? ना सखि मौली ।।
पौली  =पगथली, पाँव का नीचे का हिस्सा

39)पेट दिखाता इतना मोटा
पर समझो मत मन का खोटा
नहीं कभी वो करता सौदा
क्या सखि साजन? ना सखि हौदा।।

40)दोनों बीच सदा ही पटपट
सभी बात पर होती खटपट
इसी बात से होता घाटा
सखि साजन? ना बेलन पाटा।।

41)ग्रास तोड़ कर मुझे खिलाता
पानी शरबत दूध पिलाता
करता काम सभी वो सर-सर
क्या सखी साजन? ना सखी कर।।

42)हाथ पाँव फैला कर सोता
चूक गया तो बाजी खोता
जीत सदा उसकी वो नौसर
क्या सखि साजन? ना सखि चौसर।।
नौसर =चतुर या चतुराई

43)रंग मनोरम आँखों भाता
जीवन भर उससे है नाता
बड़े काम आता वो दानी
ऐ सखि साजन?ना सखि धानी।।

44)ठुमक ठुमक कर मुझे सताता
पर फिर भी वह मन को भाता
साथ रहे जब गाऊं झाँझण
हे सखि साजन ना सखि झाँझर।।

झाँझण=मारवाड़ में खुशी में गाया जाने वाला गीत।

45)घेरे में रखता है जकड़े
बाँहे मेरी निश दिन पकड़े
कभी-कभी लगता है फंद
हे सखि साजन ? सखि भुजबंद।।

46)मेरे मन की बात वो जाने 
अनुनय से सब कुछ वो माने
छुपे न कुछ भी है भावज्ञ
हे सखि साजन? ना सर्वज्ञ।।

47)पल भर भी वो नहीं ठहरता
धुन में अपनी चलता रहता
देता दौलत वो तो भर-भर 
हे सखि साजन ना सखी दिनकर।।

48)देखूँ उसको मन ललचाता
अतिथियों में धाक जमाता
प्यारा वो तो सच्चा हीरा
क्या सखि साजन? ना सखि सीरा।।

49)सब के मन को खुश कर जाता
रूप देख निज का इतराता
अभिमानी वो बनता जेठा
क्या सखि साजन ? ना सखि पेठा।।

50)हठी बड़ा कब माने कहना
चाहे जो हो सब कुछ सहना
मान्य उसे पड़ जाए मरना
हे सखि साजन ? ना सखि धरना।।

51)चोर सरीखा वो तो आता 
खाना पीना चट कर जाता
चढ़ जा बैठे वो तो पूषक
क्या सखि कौवा ? ना सखि मूषक।।
पूषक=शहतूत का पेड़

52)चाँद रात में बिखर रही है
धरा गिरी सब निखर रही है
उससे आलोकित है विषमा
ऐ सखि किरणें ? ना सखि सुषमा।।
विषमा =झरबेरी
सुषमा=सौंदर्य

 53)मैंने खाई उसने खाई
और न जाने किसने खाई
बन बैठी वो सबकी माई
सखी सौगंध? नहीं दवाई।।

54)पशु पाखी आनंद मनाते
रस उद्यान भोज का पाते
दूर-दूर तक फैला विरण्य
ऐ सखि सिंधु तट? न सखि अरण्य।।
विरण्य=विस्तार

55)एक रूप लेकर घर आये
लगता जैसे हो माँ जाये
इक बिना दूजा है निष्प्राण
ऐ सखि जुड़वाँ ? ना पदत्राण।।

पदत्राण=खड़ाऊ
 
56)मृदुल नरम है उसका छूना
शीत बढ़ाता है वो दूना
रूप बदलता है वो हर क्षण
ऐ सखि झोंका? ना सखि हिमकण।।

57)तेज चाल से घात करे वो
फिर बैरी को मात करे वो
उछले वो जैसे हो शावक
ऐ सखि गोली? ना सखि नावक।।

58)कभी रक्षक कभी वो लाठी
लम्बी पतली है कद काठी 
वो तो चाल चले ज्यों करछा
ऐ सखि चाकू? ना सखि बरछा।।

59)खुशियाँ लेकर ही घर आती
बच्चें बड़े सभी को भाती
वो तो है बस मीठी गोली
सखि मीठाई ? न सखि ठिठौली।।

60)आँखें लाल जटा है सिर पर
सौ जाता वो भू पर गिर कर
रात जगे पर करें न चोरी
ऐ सखि अक्खड़ ? न सखि अघोरी।।

61)दोनों ही मिल-जुलकर रहते
इक दूजे को मन की कहते
माने इक दूजे की सम्मति
ऐ सखि साथी ? ना सखि दम्पति।।

62)रहूँ अकेली मुझे डराता
राम नाम का जाप कराता
उसका करती हूँ अपवर्जन
ऐ सखि पनघट? ना सखि निर्जन।।
अपवर्जन=त्याग

63)लगे बहुत वो प्यारा-प्यारा
कोमल सुंदर न्यारा-न्यारा
उसको देखूँ खुश होते दृग
ऐ सखि बेटा? ना सखि वो मृग।।

64)तेज गति से दौड़ा जाता
जाकर फिर जल्दी घर आता
उसने सिर पर बाँधी खोही
हे सखि लुब्धक ? ना आरोही।।

65)सभी भोज में उसे सजाते 
दीन धनी सब प्यार जताते
सब जन पूछे उसकी बात
क्या सखि मीठा? ना सखि भात।।

66)उसकी तो है बात निराली
सौरभ उसकी है मतवाली 
रंग रुचिर वो सबमें दे भर
क्या सखि फुलवा ? ना सखि केसर।।

67)बाँहो में उसको जब भरती 
मीठी-मीठी बातें करती
उमड़े उस पर नेह अपार
हे सखि बेटी? न सखि सितार।।

68)राग छेड़कर मोहित करती 
कानों में ज्यों मिश्री भरती
राग सदा ही उसका भीणा
ऐ सखि कोयल?ना सखि वीणा।।

69)बातें करता गोल मोल सी
कभी सुरीली कभी पोल सी
हठी बड़ा वह मन का सच्चा
क्या सखि बाजा? ना सखि बच्चा।।

70)शीत वात में सेवा करता
नव जीवन की आशा भरता
उसको देखे भागे जाड़ा
क्या सखि कंबल? ना सखि काढ़ा।। 

71)सदा शाम खिड़की पर आता
रूप बदल कर मुझे डराता
कभी-कभी दिखता है वो यम
क्या सखि उल्लू? ना सखि वो तम।।

72)चमक दिखाता कुछ ना देता
बातों की बस नावें खेता
उसका तो देखा बस टोटा
क्या सखि नेता? ना सखि कोटा।।

73)उसका जाल कठिन है भारी
खींच करें मारन की त्यारी
दुष्ट बड़ी है उसकी हलचल
क्या सखी डाकु? न सखी दलदल।।

74)सुंदर निखरा कण-कण न्यारा
रूप सँवारा कितना प्यारा
करता वो शोभित है खंड
क्या सखी फूल? न सखी मंड ।।

मंड=सजावट, आभूषण।

75)वो मतवाला चोरी करता
 जीभ चटोरी रस से भरता
डोले घूमें वो भू श्रृंग
क्या सखी ठग? ना सखी भृंग।।

76)दुनिया में उसकी ही पूजा
 सखा नहीं सम उसके दूजा
उसका मान करें है ध्यानी
क्या सखी देव ?न सखी ज्ञानी।।

77)शीश चढ़ा है खूब नचाया
जाने क्या-क्या उसने खाया
घातक वो जैसे परमाणु
क्या सखि गंधक? न सखि विषाणु।।

78)तन का मोटा कोमल है मन
उसको आदर देता जन-जन
शोभा पाते उससे द्रुम दल
क्या सखि केला? ना सखि श्री फल।।

79)सारी रतिया पीता पानी
चमक दमक देता है दानी
तन पर फैली घोर कारिखी
क्या सखी चंदा? न सखी शिखी।
शिखी=दीपक

80)ये तो तन को खूब सजाते
नये नये रंगों में आते
ठंड ताप बदले ये अस्त्र
क्या सखि चादर? ना सखि वस्त्र।।

81)छोटे बड़े सभी को भाता
तन पर  सजता मान दिलाता
कभी-कभी हरता वो धीर
क्या सखि गहना ? ना सखि चीर।।

82)भरी नदी पानी से खाली
हरी मगर सूखी है डाली
 वो यात्रा में बनता मित्र
हे सखि पोथी? न मानचित्र।।

83)पूंछ उठाके मारा धक्का
बुक्का फाड़े रोया कक्का
 मुख से भरता वो तो छागल
हे सखी बैल ? ना चापाकल ।। 

84)शीश चढ़े मन में इतराता
हवा लगे हिल हिल वो जाता 
जल बरसा उसको दूँ खप्पर
क्या सखि पादप? ना सखि छप्पर।।

85)छोटा दिखता है सुखकारी
घर में उसकी महिमा न्यारी
 उसे लगा लो काटो खीरा
क्या सखी नमक? न सखी जीरा।।

86)गुड़-गुड़ गुड-गुड़  दौड़ लगाता
हवा लगे तो हाथ न आता
 उपवासी को लगे सुहाना
हे सखि कोदो ? न साबुदाना।।

87)सुंदर सा वो ढेर लगाता
घर से सारा मैल भगाता
चमका लाता दे दूँ जोभी
क्या सखि चाकर? ना सखि धोबी।।

88)जबसे वो है मुझ से रूठी
उसकी तो किस्मत ही फूटी
कहाँ कहाँ से काटी फाड़ी
क्या सखि दैनिकी? न सखि साड़ी।।

89)शीश चढ़े इतरा वो बैठी
चमक दिखा झिलमिल सी ऐंठी
कभी सजाती भरभर अँगुली
क्या सखि लाली ? ना सखि टिकुली।।

90)सुंदर शोभित हो डोल रही
मन के तारों को खोल रही
उसको हवा दिलाती है भय
क्या सखी लौ? ना सखी किसलय।।

91) ढलते सूरज नभ पर छाती
नहीं मगर वो मन को भाती
डस लेती है सदा लालिमा
ऐ सखि संध्या?न सखि कालिमा।।

92)मन पर उतरी कितनी गहरी
सुबह शाम रहती बन लहरी
गूँजे अंतस बन के नाद
ऐ सखि छाया? ना सखि याद।।

93)बहुत जरूरी है ये भाई
लेकर के  सौगातें आई
इसके बिन तो मांगों भिक्षा
ऐ सखि दौलत?ना सखि शिक्षा।।

94)चार खूंट में कसकर बाँधा
कई बार चढ़ता है काँधा
भार उठा कर उसको तोला 
ऐ सखि खटिया ? ना सखि डोला ।।

95)मधुर भरा रस मीठी लगती
डाल-डाल मोती सी सजती 
भर-कर लाई एक झपोली
ऐ सखि बेरी? न सखि निबोली।।

96)अरब करोड़ों की हैं बातें
 कितनी ही होती है घातें 
इसको ना करना अनदेखा
ऐ सखी धन? ना सखी लेखा।।

97)गोल-मोल माटी पर लोटा
कद उसका तो होता मोटा
ठंडा जैसे गोंद कतीरा
ऐ सखि कद्दू ? नहीं मतीरा।।

98)जब आता हड़कंप मचाता
जाने क्या-क्या वो खा जाता
भागे सब करते हैं तोलन
क्या सखि चूहा ? सखि भूडोलन।।

99)शीश ऊपर पाँव है तीजा
और कलेजा मेरा सीजा
बड़े प्यार से मुझे परोसा
क्या सखि खाजा? नहीं समोसा।।

100)मन को बस में करने वाली
लाल नहीं है ना वो काली
लेकर आती काले धुरवा
ऐ सखि बरखा ? ना सखि पुरवा।।
धुरवा= बादल

101)वो तो जग में सबसे प्यारी
महक रही ज्यों केसर क्यारी
मोह बाँधती कैसी ठगिनी
ऐ सखि बेटी ? ना सखि भगिनी।।

102)चिमनी चढ़ के बैठी भोली
मुँह चिढ़ाये कुछ नहीं बोली
देखे उसको गर्वित उजली
हे सखि धुँधला, ना सखि कजली।।

103)भान नहीं है निज का थोड़ा
जाने कैसा नाता जोड़ा
मझधार पड़ी है अब बोहित
ऐ सखि पगला? ना सखि मोहित।।
बोहित=नाव

104)इधर उधर में उसको बाँटा
तेरा मेरा टक्कर काँटा
बार-बार देता है झाला
ऐ सखि चौसर ? न सखि पाला।।

पाला=खेल में दो पक्षों का निर्धारित क्षेत्र।

105)बहुत जरूरी इसको जाने
इस को ही बस जीवन माने
चाह रहे उसकी तो अतिशय
ऐ सखि विद्या? ना सखि संचय।।

106)साथी सँग मिल खूब टहलता
खाता पिता और बहलता
सिर से चलता है वो मोटा
ऐ सखि झाड़ू ? ना सखि घोटा।।

107)चमके चमचम सुंदर काया
 इतना पावन रूप बनाया
शांत धीर है अविचल जीवट
क्या सखि साजन ? ना सखि दीवट।।
दीवट= दीपक रखने का स्तंभ

108)जब-जब बहता पीर दिखाता
कभी नहीं पर मन को भाता
उसको देख मचे है खलबल
क्या सखि नाला? ना सखि दृग जल।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 21 October 2021

कह बतियाँ

कह बतियाँ


चल सखी ले घट पनघट चलें 

राह कठिन बातों में निकले।


अपने मन की कह दूँ कुछ तो

कुछ सुनलूँ तुमसे भी घर की

साजन जब से परदेश गये

परछाई सी रहती डर की

कुछ न सुहाता है उन के बिन

विरह प्रेम की बस हूक जले।।


अब कुछ भी रस नहीं लुभाते

बिन कंत पकवान भी फीके

कजरा गजरा मन से उतरे

न श्रृंगार लगे मुझे नीके

रैन दिवस नैना ये बरसते

श्याम हुवे कपोल भी उजले।।


कहो सखी अब अपनी कह दो

अपने व्याकुल मन की बोलो

क्या मेरी सुन दृग हैं छलके

अंतर रहस्य तुम भी खोलो

खाई चोट हृदय पर गहरी

या फिर कोई विष वाण चले।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Monday, 18 October 2021

कह मुकरी ...... सहेलियों की पहेलियां ..... कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


                
        

                     शीश चढ़ा कर उसको रखती
                     बड़े प्यार से उस सँग रहती
                    खरा कभी लगता वो खोटा
              क्या सखि साजन? ना सखि गोटा।।
                       कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
 
                                   👩‍❤️‍👩

                         पेट दिखाता इतना मोटा
                     पर समझो मत मन का खोटा
                      नही कभी वो करता सौदा
                  क्या सखि साजन?ना सखि हौदा।।
                         कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

                                    👩‍❤️‍👩


                       दोनों बीच सदा ही पटपट
                       सभी बात पर होती खटपट
                         इसी बात से होता घाटा
                      सखि साजन?ना बेलन पाटा।।
                            कुसुम कोठारी ' प्रज्ञा '

                                   👩‍❤️‍👩

                    ग्रास तोड़ कर मुझे खिलाता
                      पानी शरबत दूध पिलाता
                    करता काम सभी वो सर-सर
                क्या सखी साजन? ना सखी कर।।
                        कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

                                   👩‍❤️‍👩

                      हाथ पाँव फैला कर सोता
                       चूक गया तो बाजी खोता
                     जीत सदा उसकी वो नौसर
             क्या सखि साजन? ना सखि चौसर।।
                    ( नौसर =चतुर या चतुराई )
                         कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
                        
                                  👩‍❤️‍💋‍👩👩‍❤️‍👨👩‍❤️‍💋‍👩








Saturday, 16 October 2021

कह मुकरी छंद


 कह मुकरी

1)शीश चढ़ा कर उसको रखती

बड़े प्यार से उस सँग रहती

खरा कभी लगता वो खोटा

क्या सखि साजन? ना सखि गोटा।।


2)पेट दिखाता इतना मोटा

पर समझो मत मन का खोटा

नहीं कभी वो करता सौदा

क्या सखि साजन?ना सखि हौदा।।


3)दोनों बीच सदा ही पटपट

सभी बात पर होती खटपट

इसी बात से होता घाटा

सखि साजन?ना बेलन पाटा।।


4) ग्रास तोड़ कर मुझे खिलाता

पानी शरबत दूध पिलाता

करता काम सभी वो सर-सर

क्या सखी साजन? ना सखी कर।।


5)हाथ पाँव फैला कर सोता

चूक गया तो बाजी खोता

जीत सदा उसकी वो नौसर

क्या सखि साजन? ना सखि चौसर।।

नौसर =चतुर या चतुराई


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 13 October 2021

कवि और सृजन


 कवि और सृजन


जब मधुर आह्लाद से भर

कोकिला के गीत चहके

शुष्क वन के अंत पट पर

रक्त किंशुक लक्ष दहके।


कल्पना की ड़ोर थामें

कवि हवा में चित्र भरता

लेखनी से फूट कर फिर

चासनी का मेघ झरता

व्यंजना के पुष्प दल पर 

चंचरिक सा चित्त बहके।।


जब सुगंधित से अलंकृत

छंद लय बध साज बजते

झिलमिलाते रेशमी से

उर्मियों के राग सजते

सोत बहते रागनी के

पंच सुर के पात लहके।।


वास चंदन की सुकोमल

तूलिका में ड़ाल लेता

रंग धनुषी सात लेकर

टाट को भी रंग देता

शब्द धारण कर वसन नव

ठाठ से नभ भाल महके।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 8 October 2021

अविरल अनुराग


 अविरल अनुराग।


नेह स्नेह की गागरिया में

सुधा लहर सा बहता जाऊँ

खिले प्रीत फुलवारी सुंदर

गीत मधुर से आज सुनाऊँ।


हरित धरा तुम सरसी-सरसी

मैं अविरल सा अनुराग बनूँ

कल-कल बहती धारा है तू

मैं निर्झर उद्गम शैल बनूँ

कभी घटा में कभी जटा में

मनहर तेरी छवि को पाऊँ।।


महका-महका चंदन पीला

सिलबट्टे पर घिसता जाता ‌

तेरे भाल सजा जो घिसकर 

अंतस पुलकित हो लहराता

दीपक की ज्योति तू उज्जवल

मैं बाती बनकर लहराऊँ।।


सूरज की हेमांगी किरणें

वसुधरा को ज्यों रंग जाती 

तमसा के प्रांगण को जैसे

चंदा की चंदनिया भाती

नीली सी  चुनरी फहराना

मैं टिमटिम तारा बन जाऊँ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 4 October 2021

खण्डित वीणा

खण्डित वीणा


क्लांत हो कर पथिक बैठा

नाव खड़ी मझधारे 

चंचल लहर आस घायल

किस विध पार उतारे।


अर्क नील कुँड से निकला

पंख विहग नभ खोले

मीन विचलित जोगिणी सी

तृषित सिंधु में डोले

क्या उस घर लेकर जाए

भ्रमित घूम घट खारे।।


डाँग डगमग चाल मंथर

घटा मेघ मंडित है

हृदय बीन जरजर टूटी

साज सभी खंडित है 

श्रृंग दुर्गम राह रोकते

संग न साथ सहारे।।


खंडित बीणा स्वर टूटा

राग सरस कब गाया

भांड मृदा भरभर काया

ठेस लगे बिखराया 

मूक हुआ है मन सागर

शब्द लुप्त हैं सारे ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा '।

 

Saturday, 2 October 2021

लाल


 लाल


देह छोटी बान ऊंची

वस्त्र खद्दर डाल के

हल सदा देते रहे वो

शत्रुओं की चाल के।


भाव थे उज्ज्वल सदा ही

देश का सम्मान भी

सादगी की मूर्त थे जो

और ऊंची आन भी

आज  गौरव गान गूँजे

भारती के लाल के।


थे कृषक सैना हितैषी

दीन जन के मीत थे

कर्म की पोथी पढ़ाई

प्रीत उनके गीत थे

पाक को दे पाठ छोड़ा

मान भारत भाल के।।


वो धरा के वीर बेटे

त्याग ही सर्वस्व था

बोल थे संकल्प जैसे

देश हित वर्चस्व था

फिर अचानक वो बने थे 

ग्रास निष्ठुर काल के।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 30 September 2021

आज नया इक गीत लिखूँ


 आज नया इक गीत लिखूँ


गूँथ-गूँथ शब्दों की माला 

आज नया इक गीत लिखूँ मैं।।


वीणा का जो तार न झनके 

सरगम की धुन पंचम गाएँ

मन का कोई साज न खनके

नया मधुर सा राग सजाएँ

कुछ खग के कलरव मीठे से

पीहू का संगीत लिखूँ मैं।।


हीर कणों से शोभित अम्बर

ज्यों सागर में दीपक जलते

टिम-टिम करती निहारिकाएं

क्षितिज रेख जा सपने पलते

चंद्रिका से ढकी वसुंधरा

चंद्र प्रभा की प्रीत लिखूं मैं।।


मिहिका से अब निकल गया मन

धूप सुहानी निकल रही है

चटकन लागी चंद्र मल्लिका

नव दुल्हन का रूप मही है

मुखरित हो संगीत भोर का

तम पर रवि की जीत लिखूं मैं।।


             कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'।

Friday, 24 September 2021

स्मृति पटल पर गाँव

स्मृति पटल पर गाँव 


बैठ कर मन बाग मीठी 

मोरनी गाने लगी है 

हर पुरानी बात फिर से 

याद अब आने लगी है।।


कर्म पथ बढ़ते रहे थे 

छोड़ आये सब यहाँ हम 

बात अब लगती अनूठी 

सोच में अभिवृद्धि थी कम 

स्मृति पटल पर गाँव की वो

फिर गली छाने लगी है।।


भ्रान्ति में उलझे शहर के 

त्याग सात्विक ग्राम जीवन 

यूँ भटकते ही चले फिर 

सी रहे हर जून सीवन 

कैद छूटी बुलबुलें फिर

उड़ वहाँ जाने लगी है।।


कोड़ियों से खेल रचते 

धूल में तन थे महकते 

पाँव में चप्पल न जूते 

दौड़ते बेसुध चहकते 

डूबकर कब रंग गागर  

फाग लहराने लगी है।।


 कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'।

 

Wednesday, 22 September 2021

निज पर विश्वास

निज पर विश्वास


निजता का सम्मान

निराशा में जिसने खोया।

राही भटका राह

निशा तम में घिरकर सोया।।


रे चेतन ये सोच

जगत में तू उत्तम कर्ता

पर जो खेले खेल 

वही तो होता है भर्ता

भावों का विश्वास 

जहाँ भी टूटा वो रोया।


निज भीतर की शक्ति

अरे जानो तोलो झांको

अज्ञानी मृग कौन

तुम्हीं सृष्टा हो मन आंको

जागेगा अब भाग

विवेकी का दाना बोया।।


दृष्टा बनके देख

अजा का अद्भुत है लेखा

जिसने लेली सीख

बदल ली हाथों की रेखा

उलझा रेशम छोड़

बटे तृण में मोती पोया।।


अजा=प्रकृति


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Saturday, 18 September 2021

नीरव मुखरित


 

नीरव मुखरित


खिलते उपवन पात

महक मकरंदी बहजाती।

फूलों की रस गंध

सखे अलि को लिखती पाती।


शोभा कैसी आज 

धरा ओढ़े चुनरी धानी

मधुमासी है वात

जलाशय कंचन सा पानी

मोहक रूपा काल

बहे नदिया भी बलखाती।।


चंचल मन के भाव

झनक स्वर में बोले पायल 

सुन श्यामा की राग

पपीहा होता है घायल 

मधुरिम  झीना हाथ

हवा धीरे से सहलाती।।


छेड़े मन के राग

सुरों की मुरली बहकी सी

नीरव तोड़े मौन

पुहुप की डाली महकी सी।

घर के पीछे बड़बेर

सुना बेरों से बतियाती।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 16 September 2021

अवसरवादी


 अवसरवादी


अवसर का सोपान बना कर 

समय काल का लाभ लिया। 

रीति नीति की बातें थोथी 

निज के हित का घूँट पिया।


कौन सोचता है औरों की 

अपना ही सिट्टा सेके 

झुठी सौगंध तक खा जाते 

हाथों गंगाजल लेके 

गूदड़ कर्मों की अति भारी 

जाने क्या-क्या पाप सिया।।


क्या होता तो दिखता क्या है 

भरम यवनिका डाल रहे 

लाठी वाले भैंस नापते 

निर्बल अत्याचार सहे 

दूध फटे का मोल लगाया 

ऐसा भी व्यापार किया।। 


पोल ढोल की छुपी रहे है 

लगती जब तक चोट नही  

खुल जाये तो बात बदल दे 

जैसे कोई खोट नहीं 

फटे हुए पर खोल चढ़ाकर 

अनृत आवरण बाँध दिया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'