एक गुलाब की वेदना
कांटो में भी हम महफूज़ थे।
खिलखिलाते थे ,सुरभित थे ,
हवाओं से खेलते झुलते थे ,
हम मतवाले कितने खुश थे ।
कांटो में भी हम महफूज़ थे ।
फिर तोड़ा किसीने प्यार से ,
सहलाया हाथो से , नर्म गालों से ,
दे डाला हमे प्यार की सौगातों में ।
कांटो में भी हम महफूज़ थे ।
घड़ी भर की चाहत में संवारा ,
कुछ अंगुलियों ने हमे दुलारा ,
और फिर पंखुरी पंखुरी बन बिखरे ।
कांटो में भी महफूज थे हम ।
हां तब कितने खुश थे हम।।
कुसुम कोठारी ।
कांटो में भी हम महफूज़ थे।
खिलखिलाते थे ,सुरभित थे ,
हवाओं से खेलते झुलते थे ,
हम मतवाले कितने खुश थे ।
कांटो में भी हम महफूज़ थे ।
फिर तोड़ा किसीने प्यार से ,
सहलाया हाथो से , नर्म गालों से ,
दे डाला हमे प्यार की सौगातों में ।
कांटो में भी हम महफूज़ थे ।
घड़ी भर की चाहत में संवारा ,
कुछ अंगुलियों ने हमे दुलारा ,
और फिर पंखुरी पंखुरी बन बिखरे ।
कांटो में भी महफूज थे हम ।
हां तब कितने खुश थे हम।।
कुसुम कोठारी ।
वाह!!बहुत ही बेहतरीन रचना सखी
ReplyDeleteबहुत सुंदर ...आगे बढने फलसफ़ा देती नज्म ....बधाई .
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार संजय भास्कर जी प्रोत्साहन देती सुंदर प्रतिक्रिया ।
Deleteसादर।
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, कुसुम दी।
ReplyDeleteढेर सा स्नेह प्रिय ज्योति बहन ।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (27-04-2019) "परिवार का महत्व" (चर्चा अंक-3318) को पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
--अनीता सैनी
बहुत बहुत आभार अनिता जी मेरी रचना को चर्चा मंच पर लाने के लिये।
Deleteसस्नेह ।
बहुत खूब प्रिय कुसुम बहन- यही है गहन कवि दृष्टि जो हर, जड़ चेतन का मानविकरण कर उसमें व्याप्त वेदना का एहसास कर लेती है। सुंदर रचना गुलाब जैसे कोमल एहसास लिए दो गुलाब आपके लिए इस भावपूर्ण रचना के नाम 🌹🌷
ReplyDeleteआपकी व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिलता है रेणु बहन। और सच कहूं तो साधारण अर्थ नही भावार्थ तक स्पष्ट हो जाते हैं आपकी प्रतिक्रिया से। आपकी प्रतिबध्दता और स्नेह के लिये आभार नही सिर्फ स्नेह।
Deleteढेर सा स्नेह ।
खिलखिलाते थे ,सुरभित थे ,
ReplyDeleteहवाओं से खेलते झुलते थे ,
हम मतवाले कितने खुश थे ।
कांटो में भी हम महफूज़ थे ।
एक संवेदनशील और कवि मन ही गुलाब की वेदना समझ सकता है और उन्हें पंक्तिबद्ध, कलमबद्ध कर सकता है। बेहतरीन लेखन और इस प्रयास हेतु बधाई आदरणीय ।
वाह बहुत शानदार ढंग से आपने प्रतिक्रिया और सराहना प्रेसित की है पुरुषोत्तम जी अंतर हृदय तल से आभार ।
ReplyDeleteसादर ।
कांटो में भी महफूज थे हम ।
ReplyDeleteहां तब कितने खुश थे हम।।
मन की कोमल भावों को अभिव्यक्ति देती सुन्दर सृजनात्मकता ....,फूल के मन की वेदना पर बहुत सुन्दर सृजन कुसुम जी ।
सस्नेह आभार मीना जी आपकी इतनी सुंदर मनभावन प्रतिक्रिया से मन बाग बाग हो गया।
Deleteआपके अतुल्य स्नेह का प्रतिदान बस स्नेह स्नेह और स्नेह ।
फूल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया...
ReplyDeleteजीवन का लक्ष्य ही खत्म हो गया तोड़ लिए जाने पर...फिर पंखुरी पंखुरी बिखरना तो था ही !!!
आज के अंक में शामिल रचनाओं में यह रचना विशेष है। सबने अपनी स्वयं की वेदना का वर्णन किया और आपने गुलाब की ! एक सुंदर मौलिक सृजन हेतु बधाई।
सस्नेह आभार प्रिय श्वेता ।
ReplyDeleteआपकी अति विशिष्ट टिप्पणी से मेरी रचना को सार्थकता ही नही मिली,मूझे भी कुछ अलग हट कर लिखने के लिये प्रोत्साहन मिला उत्साह वर्धन और आपके स्नेह का ढेर सा स्नेह आभार मीना जी ।
ReplyDeleteसदा स्नेह बनाये रखें।
गहरा सन्देश है ...
ReplyDeleteसच है कांटे खुद के हों तो हिफाजत करते हैं ... फूल को नौचने वालों का संता करते हैं ...
बहुत सुन्दर रचना ...
वाह!!कुसुम जी ,बहुत खूबसूरत ,प्रेरणादायक रचना ।
ReplyDeleteगुलाब से वेदना की संवेदना..बहुत खूब।
ReplyDeleteसुन्दर सृजन कुसुम जी ।
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