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Thursday 31 January 2019
छलावा
"छलावा", को प्रतिलिपि पर पढ़ें :
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Wednesday 30 January 2019
वीर देश के गौरव
युवा वर्ग को आह्वान
ओ वीर देश के गौरव
वीर देश के गौरव हो तुम
माटी की शान तुम
भूमि का अभिमान तुम
देश की आन तुम
राह के वितान तुम।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
राहें विकट,हौसले बुलंद रख
चीर दे सागर का सीना
पांव आसमां पर रख
आंधी तुम तूफान तुम
राष्ट्र की पतवार तुम।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
भाल को उन्नत रख
हाथ में कमान रख
बन के आत्माभिमानी
शीश झुका के पर्वतों के
राह पर कदम रख।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
दुर्जनों को रौंद दे
निर्बलों की ढाल तुम
नेकियाँ हाथों में रख
मान तुम गुमान तुम
सागर के साहिल तुम।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
तूं महान कर्मकर
अर्जुन तुम कृष्ण तुम
राह दिखा दिग्भ्रमितों को
गीता के संदेश तुम
अबलाओं के त्राण तुम।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
कुसुम कोठारी ।
ओ वीर देश के गौरव
वीर देश के गौरव हो तुम
माटी की शान तुम
भूमि का अभिमान तुम
देश की आन तुम
राह के वितान तुम।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
राहें विकट,हौसले बुलंद रख
चीर दे सागर का सीना
पांव आसमां पर रख
आंधी तुम तूफान तुम
राष्ट्र की पतवार तुम।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
भाल को उन्नत रख
हाथ में कमान रख
बन के आत्माभिमानी
शीश झुका के पर्वतों के
राह पर कदम रख।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
दुर्जनों को रौंद दे
निर्बलों की ढाल तुम
नेकियाँ हाथों में रख
मान तुम गुमान तुम
सागर के साहिल तुम।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
तूं महान कर्मकर
अर्जुन तुम कृष्ण तुम
राह दिखा दिग्भ्रमितों को
गीता के संदेश तुम
अबलाओं के त्राण तुम।
ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
कुसुम कोठारी ।
Saturday 26 January 2019
अवसाद और प्रसन्नता
अवसाद, प्रसन्नता
कदम बढते गये
बन राह के सांझेदार
मंजिल का कोई
ठिकाना ना पड़ाव
उलझती सुलझती रही
मन लताऐं बहकी सी
लिपटी रही सोचों के
विराट वृक्षों से संगिनी सी
आशा निराशा में
उगता ड़ूबता भावों का सूरज
हताशा और उल्लास के
हिन्डोले में झूलता मन
अवसाद और प्रसन्नता में
अकुलाता भटकता
कभी पूनम का चाॅद
कभी गहरी काली रात
कुछ सौगातें
कुछ हाथों से फिसलता आज
नर्गिस सा बेनूरी पे रोता
खुशबू पे इतराता जीवन।
कुसुम कोठारी।
कदम बढते गये
बन राह के सांझेदार
मंजिल का कोई
ठिकाना ना पड़ाव
उलझती सुलझती रही
मन लताऐं बहकी सी
लिपटी रही सोचों के
विराट वृक्षों से संगिनी सी
आशा निराशा में
उगता ड़ूबता भावों का सूरज
हताशा और उल्लास के
हिन्डोले में झूलता मन
अवसाद और प्रसन्नता में
अकुलाता भटकता
कभी पूनम का चाॅद
कभी गहरी काली रात
कुछ सौगातें
कुछ हाथों से फिसलता आज
नर्गिस सा बेनूरी पे रोता
खुशबू पे इतराता जीवन।
कुसुम कोठारी।
अवसाद मां सीता का
अवसाद मां सीता का
मां सीता का मौन विलाप जब
उन्हें लक्ष्मण जी वन में छोड़ आये।
अवसाद में घिरा था मन
कराह रहे वेदना के स्वर
कैसी काली छाया पड़ी
जीवन पर्यन्त जो आदर्श
थे संजोये फूलों से चुन चुन
पल में सब हुवे छिन्न भिन्न
हा नियति कैसा लिये बैठी
अपने आंचल में ये सर्प दंस
क्या ये मेरे हिस्से आना था
अहो दसो दिशाओं क्यों हो मौन
तुम ही कुछ बोलो
क्या थी आखिर मेरी भूल
एक निश्छल प्रतिकार गूंज उठा
प्रकृति भी सूनी आंखों से रो पड़ी
पर कोई साथ नही,
तीन भुवन के नाथ की मैं भार्या
आज छत विहीन ,अरण्य में अकेली
कोख में विलसते कमल
खिलने से पहले अनाथ
हा मुझ से हत भागी
और कौन इस अवनि पर।
कुसुम कोठारी।
मां सीता का मौन विलाप जब
उन्हें लक्ष्मण जी वन में छोड़ आये।
अवसाद में घिरा था मन
कराह रहे वेदना के स्वर
कैसी काली छाया पड़ी
जीवन पर्यन्त जो आदर्श
थे संजोये फूलों से चुन चुन
पल में सब हुवे छिन्न भिन्न
हा नियति कैसा लिये बैठी
अपने आंचल में ये सर्प दंस
क्या ये मेरे हिस्से आना था
अहो दसो दिशाओं क्यों हो मौन
तुम ही कुछ बोलो
क्या थी आखिर मेरी भूल
एक निश्छल प्रतिकार गूंज उठा
प्रकृति भी सूनी आंखों से रो पड़ी
पर कोई साथ नही,
तीन भुवन के नाथ की मैं भार्या
आज छत विहीन ,अरण्य में अकेली
कोख में विलसते कमल
खिलने से पहले अनाथ
हा मुझ से हत भागी
और कौन इस अवनि पर।
कुसुम कोठारी।
Wednesday 23 January 2019
चांद का सम्मोहन
चांद का सम्मोहन
प्राचीर से उतर चंचल उर्मियाँ
आंगन में अठखेलियाँ कर रही थी
और मैं बैठी कृत्रिम प्रकाश में
चाँद पर कविता लिख रही थी
मन में प्रतिकार उठ रहा था
उठ के वातायन खोल दूं
शायद मन कुछ प्रशांत हो
आहा!!
चांद अपनी सुषमा के साथ
मेरी ही खिडकी पर बैठा
थाप दे रहा था धीमी मद्धरिम
विस्मित सी जाने किस सम्मोहन में
बंधी मैंं छत तक आ गई
इतनी उजली कोरी वसना प्रकृति,
स्तभित से नयन
चांदनी छत से आंगन तक
पुलक पुलक क्रीड़ा कर रही थी
गमलों के अलसाऐ ये फूलों में
नई ज्योत्सना भर रही थी
मन लुभाता समीर का माधुर्य
एक धीमी स्वर लहरी लिये
पादप पल्लवों का स्पंदन
दूर धोरी गैया का नन्हा
चंद्र रश्मियों से होड़ करता
कौन ज्यादा कोमल
कौन स्फटिक सा धोरा
चांदनी लजाई बोली मै हारी
बोली मन करता तुम से कुछ
उजाला चुरा लूं!!
निशा धीरे धीरे ढलने लगी
चांदनी चांद में सिमटने लगी
चांद ने अपना तिलिस्म उठाया
और प्रस्थान किया
प्राची से एक अद्भुत रूपसी
सुर बाला सुनहरी आंचल
फहराती मंदाकिनी में उतरी
आज चांद और चांदनी से
साक्षात्कार हुवा मेरा
मेरे मनोभावों का
प्रादुर्भाव हुवा, बिन कल्पना।
कुसुम कोठारी।
प्राचीर से उतर चंचल उर्मियाँ
आंगन में अठखेलियाँ कर रही थी
और मैं बैठी कृत्रिम प्रकाश में
चाँद पर कविता लिख रही थी
मन में प्रतिकार उठ रहा था
उठ के वातायन खोल दूं
शायद मन कुछ प्रशांत हो
आहा!!
चांद अपनी सुषमा के साथ
मेरी ही खिडकी पर बैठा
थाप दे रहा था धीमी मद्धरिम
विस्मित सी जाने किस सम्मोहन में
बंधी मैंं छत तक आ गई
इतनी उजली कोरी वसना प्रकृति,
स्तभित से नयन
चांदनी छत से आंगन तक
पुलक पुलक क्रीड़ा कर रही थी
गमलों के अलसाऐ ये फूलों में
नई ज्योत्सना भर रही थी
मन लुभाता समीर का माधुर्य
एक धीमी स्वर लहरी लिये
पादप पल्लवों का स्पंदन
दूर धोरी गैया का नन्हा
चंद्र रश्मियों से होड़ करता
कौन ज्यादा कोमल
कौन स्फटिक सा धोरा
चांदनी लजाई बोली मै हारी
बोली मन करता तुम से कुछ
उजाला चुरा लूं!!
निशा धीरे धीरे ढलने लगी
चांदनी चांद में सिमटने लगी
चांद ने अपना तिलिस्म उठाया
और प्रस्थान किया
प्राची से एक अद्भुत रूपसी
सुर बाला सुनहरी आंचल
फहराती मंदाकिनी में उतरी
आज चांद और चांदनी से
साक्षात्कार हुवा मेरा
मेरे मनोभावों का
प्रादुर्भाव हुवा, बिन कल्पना।
कुसुम कोठारी।
Tuesday 22 January 2019
आह्वान सुभाष का
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर आह्वान देशवासियों से
विजय शंख का नाद है गूंजा
वीरों की हुंकार है गरजी
सोते शेर जगाये कितने
आह्वान है आज सभी को
उठो चलो प्रमाद को त्यागो
मां जननी अब बुला रही
वीर सपूतों अब तो जागो
आंचल मां का तार हुवा
बाजुु है अब लहुलुहान
कब मोह नींद छोड़ोगे ?
क्या मां की आहुती होगी
या फिर देना है निज प्राण
घात लगाये जो बैठे थे अब
वो खसोट रहे खुल्ले आम
धर्म युद्ध तो लड़ना होगा
पाप धरा का हरना होगा
आज हुवा नारायणी उदघोष
जाग तूं और जगा जन मन मे जोश ।
कुसुम कोठारी ।
विजय शंख का नाद है गूंजा
वीरों की हुंकार है गरजी
सोते शेर जगाये कितने
आह्वान है आज सभी को
उठो चलो प्रमाद को त्यागो
मां जननी अब बुला रही
वीर सपूतों अब तो जागो
आंचल मां का तार हुवा
बाजुु है अब लहुलुहान
कब मोह नींद छोड़ोगे ?
क्या मां की आहुती होगी
या फिर देना है निज प्राण
घात लगाये जो बैठे थे अब
वो खसोट रहे खुल्ले आम
धर्म युद्ध तो लड़ना होगा
पाप धरा का हरना होगा
आज हुवा नारायणी उदघोष
जाग तूं और जगा जन मन मे जोश ।
कुसुम कोठारी ।
Monday 21 January 2019
एक नया गीत
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
वीणा का गर
तार न झनके
मन का कोई
साज ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं
मीहिका से
निकला है मन तो
सूरज की कुछ
किरणें लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
धूप सुहानी
निकल गयी तो
मेहनत का
संगीत ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
कुछ खग के
कलरव लिख दूं
कुछ कलियों की
चटकन लिख दूं
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
क्षितिज मिलन की
मृगतृष्णा है
धरा मिलन का
राग ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
चंद्रिका ने
ढका विश्व को
शशि प्रभा की
प्रीत ही लिख दूं ।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
कुसुम कोठारी ।
वीणा का गर
तार न झनके
मन का कोई
साज ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं
मीहिका से
निकला है मन तो
सूरज की कुछ
किरणें लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
धूप सुहानी
निकल गयी तो
मेहनत का
संगीत ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
कुछ खग के
कलरव लिख दूं
कुछ कलियों की
चटकन लिख दूं
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
क्षितिज मिलन की
मृगतृष्णा है
धरा मिलन का
राग ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
चंद्रिका ने
ढका विश्व को
शशि प्रभा की
प्रीत ही लिख दूं ।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।
कुसुम कोठारी ।
Wednesday 16 January 2019
रस काव्य
रस काव्य
ढलती रही रात,
चंद्रिका के हाथों
धरा पर एक काव्य का
सृजन होता रहा
ऐसा अलंकृत रस काव्य
जिसे पढने
सुनहरी भास्कर
पर्वतों की उतंग
शिखा से उतर कर
वसुंधरा पर ढूंढता रहा
दिन भर भटकता रहा
कहां है वो ऋचाएं
जो शीतल चांदनी
उतरती रात में
रश्मियों की तूलिका से
रच गई
खोल कर अंतर
दृश्यमान करना होगा
अपने तेज से
कुछ झुकना होगा
उसी नीरव निशा के
आलोक में
शांत चित्त हो
अर्थ समझना होगा
सिर्फ़ सूरज बन
जलने से भी
क्या पाता इंसान
ढलना होगा,
रात का अंधकार
एक नई रौशनी का
अविष्कार करती है
वो रस काव्य सुधा
शीतलता का वरदान है
सुधी वरण करना होगा।
कुसुम कोठारी।
चंद्रिका =चांदनी ऋचाएं = श्लोक
उतंग =ऊंची, विशाल रश्मि =किरण तूलिका = ब्रस, कलम
ढलती रही रात,
चंद्रिका के हाथों
धरा पर एक काव्य का
सृजन होता रहा
ऐसा अलंकृत रस काव्य
जिसे पढने
सुनहरी भास्कर
पर्वतों की उतंग
शिखा से उतर कर
वसुंधरा पर ढूंढता रहा
दिन भर भटकता रहा
कहां है वो ऋचाएं
जो शीतल चांदनी
उतरती रात में
रश्मियों की तूलिका से
रच गई
खोल कर अंतर
दृश्यमान करना होगा
अपने तेज से
कुछ झुकना होगा
उसी नीरव निशा के
आलोक में
शांत चित्त हो
अर्थ समझना होगा
सिर्फ़ सूरज बन
जलने से भी
क्या पाता इंसान
ढलना होगा,
रात का अंधकार
एक नई रौशनी का
अविष्कार करती है
वो रस काव्य सुधा
शीतलता का वरदान है
सुधी वरण करना होगा।
कुसुम कोठारी।
चंद्रिका =चांदनी ऋचाएं = श्लोक
उतंग =ऊंची, विशाल रश्मि =किरण तूलिका = ब्रस, कलम
Saturday 12 January 2019
आप सब को हमकदम की पहली वर्ष गांठ पर बधाई
आप सब को हमकदम के पहले वर्ष पूर्ण होने पर आंतरिक शुभकामनाएं।
आज सब को हो आनंद बधाई
घडी हमकदम के सालगिरह की आई
कितना सुंदर साथ हमारा
प्यारा प्यारा न्यारा न्यारा
कितने नये मित्र मिले
मिली नई धाराएं
सब मिल एक सागर में
कितने रत्न समाये
कौन सरिता कौन दिशा से
सब एक नदीश हमकदम
आओ सब उल्लास मनायें
एक दूजे से स्नेह बढ़ायें
एकजुट हो शिखर पर लायें
सब मिल" हमकदम जन्म दिवस" मनायें ।
कुसुम कोठारी।
आज सब को हो आनंद बधाई
घडी हमकदम के सालगिरह की आई
कितना सुंदर साथ हमारा
प्यारा प्यारा न्यारा न्यारा
कितने नये मित्र मिले
मिली नई धाराएं
सब मिल एक सागर में
कितने रत्न समाये
कौन सरिता कौन दिशा से
सब एक नदीश हमकदम
आओ सब उल्लास मनायें
एक दूजे से स्नेह बढ़ायें
एकजुट हो शिखर पर लायें
सब मिल" हमकदम जन्म दिवस" मनायें ।
कुसुम कोठारी।
Friday 11 January 2019
आओ सब मिल करें आचमन
आओ सब मिल करें आचमन
भोर की लाली लाई
आदित्य आगमन की बधाई
रवि लाया एक नई किरण
संजोये जो,सपने सब हो पूरण
पा जायें सच में नवजीवन
उत्साह की सुनहरी धूप का उजास
भर दे सब के जीवन में उल्लास ।
साँझ ढले श्यामल चादर
जब लगे ओढ़ने विश्व!
नन्हें नन्हें दीप जला सब
प्रकाश बिखेरो चहुँ ओर
दे आलोक, हरे हर तिमिर
त्याग अज्ञान मलीन आवरण
सब ओढ ज्ञान का परिधान पावन।
मानवता भाव रख अचल
मन में रह सचेत प्रतिपल
सह अस्तित्व ,समन्वय ,समता ,
क्षमा ,सजगता और परहितता
हो सब के रोम रोम में संचालन
सब प्राणी पाये सुख,आनंद
बोद्धित्व का हो घनानंद।
लोभ मोह जैसे अरि को हरा
दे ,जीवन को समतल धरा
बाह्य दीप मालाओं के संग
प्रदीप्त हो दीप मन अंतरंग
जीवन में जगमग ज्योत जले
धर्म ध्वजा सुरभित अंतर मन
सब जीव दया का पहन के वसन।
कुसुम कोठारी ।
भोर की लाली लाई
आदित्य आगमन की बधाई
रवि लाया एक नई किरण
संजोये जो,सपने सब हो पूरण
पा जायें सच में नवजीवन
उत्साह की सुनहरी धूप का उजास
भर दे सब के जीवन में उल्लास ।
साँझ ढले श्यामल चादर
जब लगे ओढ़ने विश्व!
नन्हें नन्हें दीप जला सब
प्रकाश बिखेरो चहुँ ओर
दे आलोक, हरे हर तिमिर
त्याग अज्ञान मलीन आवरण
सब ओढ ज्ञान का परिधान पावन।
मानवता भाव रख अचल
मन में रह सचेत प्रतिपल
सह अस्तित्व ,समन्वय ,समता ,
क्षमा ,सजगता और परहितता
हो सब के रोम रोम में संचालन
सब प्राणी पाये सुख,आनंद
बोद्धित्व का हो घनानंद।
लोभ मोह जैसे अरि को हरा
दे ,जीवन को समतल धरा
बाह्य दीप मालाओं के संग
प्रदीप्त हो दीप मन अंतरंग
जीवन में जगमग ज्योत जले
धर्म ध्वजा सुरभित अंतर मन
सब जीव दया का पहन के वसन।
कुसुम कोठारी ।
Thursday 10 January 2019
मधु ऋतु
मधु ऋतु
मधु ऋतु सुहाऐ सखी पतझर नही भाऐ।
अरे बावरी बिन पतझर ,मधु रस कैसे मन भाऐ
अंधकार नही तो बोलो कैसे जुगनु चमक पाऐ।
रजनी का जब गमन है होता तब उषा मुसकाऐ
सारा समय चमकता सूरज भी नही भाऐ।
निशा की कालिमा ही सूरज में उजाला भरती
जब घन अस्तित्व खोते तो धरती खूब सरसती।
फूल झरते हैं खिल के, पंक्षी फिर भी गाते
गिरा घोंसला पक्षी का फिर भी फूल मुस्काते।
किसी का आना किसी का जाना चलन यही दुनिया का
जगती में कोई मूल्य नही दुख बिन सुख का।
कोई हारा कोई जीता यही खेल जीवन का
हे री सखी पतझर बिनु मधु रस कैसे जीवन का।
कुसुम कोठारी ।
मधु ऋतु सुहाऐ सखी पतझर नही भाऐ।
अरे बावरी बिन पतझर ,मधु रस कैसे मन भाऐ
अंधकार नही तो बोलो कैसे जुगनु चमक पाऐ।
रजनी का जब गमन है होता तब उषा मुसकाऐ
सारा समय चमकता सूरज भी नही भाऐ।
निशा की कालिमा ही सूरज में उजाला भरती
जब घन अस्तित्व खोते तो धरती खूब सरसती।
फूल झरते हैं खिल के, पंक्षी फिर भी गाते
गिरा घोंसला पक्षी का फिर भी फूल मुस्काते।
किसी का आना किसी का जाना चलन यही दुनिया का
जगती में कोई मूल्य नही दुख बिन सुख का।
कोई हारा कोई जीता यही खेल जीवन का
हे री सखी पतझर बिनु मधु रस कैसे जीवन का।
कुसुम कोठारी ।
Wednesday 9 January 2019
एक अलग जमात
अलग जमात
मगरूरों की एक न्यारी जमात होती है
ना सींग ना पूंछ ना अलगात होती है।
अपने आप को ये समझते बेहतर सभी से
यही खुद से इनकी मुगलात होती है।
समझते ये किसी को अपने सामने कुछ नही
ये अलग सी दुनिया में एक जात होती है।
जहाँ गलती नही है दाल इनकी वहाँ
सर नीचा और चुप-चुप जुबान होती है।
चाहते सदा सब से चाटुकारिता भरपूर
कोई ना करे तो इन्हें हिराकत होती है।
प्रभु ने ज्ञान दिया इनको थोड़ी नम्रता भी देता
जानते नही झुकना आखिर उनकी हार होती है।
कुसुम कोठारी।
मगरूरों की एक न्यारी जमात होती है
ना सींग ना पूंछ ना अलगात होती है।
अपने आप को ये समझते बेहतर सभी से
यही खुद से इनकी मुगलात होती है।
समझते ये किसी को अपने सामने कुछ नही
ये अलग सी दुनिया में एक जात होती है।
जहाँ गलती नही है दाल इनकी वहाँ
सर नीचा और चुप-चुप जुबान होती है।
चाहते सदा सब से चाटुकारिता भरपूर
कोई ना करे तो इन्हें हिराकत होती है।
प्रभु ने ज्ञान दिया इनको थोड़ी नम्रता भी देता
जानते नही झुकना आखिर उनकी हार होती है।
कुसुम कोठारी।
Tuesday 8 January 2019
रावणों की खेती
रावणों की खेती
अपने वजूद के लिये
रावण लडता रहा
और स्वयं नारायण भी
अस्तित्व न मिटा पाये उसका
बस काया गंवाई रावण ने
अपने सिद्धांत बो गया
फलीभूत होते होते
सदियों से गहराते गये
वजह क्या? न सोचा कभी
बस तन का रावण जलता रहा
मनोवृत्ति में पोषित
होते रहे दशानन
राम पुरुषोत्तम के सद्गुण
स्थापित कर गये जग में
साथ ही रावण भी कहीं गहरे
अपने तमोगुण के बीज बो चला
और अब देखो जिधर
राम बस संस्कारों की
बातों, पुस्तकों और ग्रंथों में
या फिर बच्चों को
पुरुषोत्तम बनाने का
असफल प्रयास भर है,
और रावणों की खेती
हर और लहरा रही है।
कुसुम कोठारी।
अपने वजूद के लिये
रावण लडता रहा
और स्वयं नारायण भी
अस्तित्व न मिटा पाये उसका
बस काया गंवाई रावण ने
अपने सिद्धांत बो गया
फलीभूत होते होते
सदियों से गहराते गये
वजह क्या? न सोचा कभी
बस तन का रावण जलता रहा
मनोवृत्ति में पोषित
होते रहे दशानन
राम पुरुषोत्तम के सद्गुण
स्थापित कर गये जग में
साथ ही रावण भी कहीं गहरे
अपने तमोगुण के बीज बो चला
और अब देखो जिधर
राम बस संस्कारों की
बातों, पुस्तकों और ग्रंथों में
या फिर बच्चों को
पुरुषोत्तम बनाने का
असफल प्रयास भर है,
और रावणों की खेती
हर और लहरा रही है।
कुसुम कोठारी।
Friday 4 January 2019
शाम की उदासियां
शाम की उदासियां
झील के शांत पानी में
शाम की उतरती धुंधली उदासी
कुछ और बेरंग
श्यामल शाम का सुनहरी टुकडा
कहीं क्षितिज के छोर पर पहुंच
काली कम्बली में सिमटता
निशा के उद्धाम अंधकार से
एकाकार हो
जैसे पर्दाफाश करता
अमावस्या के रंग हीन
बेरौनक आसमान का
निहारिकाऐं जैसे अवकाश पर हों
चांद के साथ कही सुदूर प्रांत में
ओझल कहीं किसी गुफा में विश्राम करती
छुटपुट तारे बेमन से टिमटिमाते
धरती को निहारते मौन
कुछ कहना चाहते,
शायद धरा से मिलन का
कोई सपना हो
जुगनु दंभ में इतराते
चांदनी की अनुपस्थिति में
स्वयं को चांद समझ डोलते
चकोर व्याकुल कहीं
सरसराते अंधेरे पात में दुबका
खाली सूनी आँखों में
एक एहसास अनछुआ सा
अदृश्य से गगन को
आशा से निहारता
शशि की अभिलाषा में
विरह में जलता
कितनी सदियों
यूं मयंक के मय में
उलझा रहेगा
इसी एहसास में
जीता मरता रहेगा
उतरती रहेगी कब तक
शांत झील में शाम की उदासियां।
कुसुम कोठारी
झील के शांत पानी में
शाम की उतरती धुंधली उदासी
कुछ और बेरंग
श्यामल शाम का सुनहरी टुकडा
कहीं क्षितिज के छोर पर पहुंच
काली कम्बली में सिमटता
निशा के उद्धाम अंधकार से
एकाकार हो
जैसे पर्दाफाश करता
अमावस्या के रंग हीन
बेरौनक आसमान का
निहारिकाऐं जैसे अवकाश पर हों
चांद के साथ कही सुदूर प्रांत में
ओझल कहीं किसी गुफा में विश्राम करती
छुटपुट तारे बेमन से टिमटिमाते
धरती को निहारते मौन
कुछ कहना चाहते,
शायद धरा से मिलन का
कोई सपना हो
जुगनु दंभ में इतराते
चांदनी की अनुपस्थिति में
स्वयं को चांद समझ डोलते
चकोर व्याकुल कहीं
सरसराते अंधेरे पात में दुबका
खाली सूनी आँखों में
एक एहसास अनछुआ सा
अदृश्य से गगन को
आशा से निहारता
शशि की अभिलाषा में
विरह में जलता
कितनी सदियों
यूं मयंक के मय में
उलझा रहेगा
इसी एहसास में
जीता मरता रहेगा
उतरती रहेगी कब तक
शांत झील में शाम की उदासियां।
कुसुम कोठारी
Tuesday 1 January 2019
जीवन अनसुलझी पहेली
बहारों ने फिर ली कुछ ऐसी करवट
शोलो में शबनमी अब तपिस धीमी सी।
मौसम यूं कह रहा कर कर सलाम
फूलों की नियती में हर हाल झड़ना।
जर्द पत्तों का शाख से बिछड़ना
तिनके के नशेमनो का उजडना।
ख्वाहिशों का रोज सजना बिखरना
सदियों से चला आ रहा ये सितम।
मन के बंध तोड इच्छा क्यों उडती अकेली
मगृ मरीचिका जीवन की अनसुलझी पहेली।
कुसुम कोठारी।
शोलो में शबनमी अब तपिस धीमी सी।
मौसम यूं कह रहा कर कर सलाम
फूलों की नियती में हर हाल झड़ना।
जर्द पत्तों का शाख से बिछड़ना
तिनके के नशेमनो का उजडना।
ख्वाहिशों का रोज सजना बिखरना
सदियों से चला आ रहा ये सितम।
मन के बंध तोड इच्छा क्यों उडती अकेली
मगृ मरीचिका जीवन की अनसुलझी पहेली।
कुसुम कोठारी।
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