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Friday 28 December 2018

छुवन हवा की

लो लहराके चली हवा

फूलों की छुवन साथ लिये
था थोड़ा बसंती सौरभ
कुछ अल्हड़ता लिये
मतंग मतवाली हवा।

लो लहराके चली हवा

सरगम दे मुकुल होठों को
तितलियों का बांकपन
किरणों के रेशमी ताने
ले मधुर गान पंछियों का।

लो लहराके चली हवा

भीना राग छेड़ तरंगिणी में
अमलतास को दे मृदुल छुवन
सांझ की लाली पर डोरे डाल
जा बैठी पर्वतों के पार।

लो लहराके चली हवा

थाम के ऊंगली मंयक की
आ बैठी मुंडेर पर
फिर बह चली आमोद में
सागर की लहरों पर नाचती।

लो लहराके चली हवा

चंदा खोया आधी रात में
डोलती तारों भरे आकाश में
तम की कालिमा हटी,
उषा की चूनर लहराई।

लो लहराके चली हवा

मार्तण्ड के घोड़े पर हो सवार
झरनों पर फिसलती
हिम का करती श्रृंगार
मानस में कलरव भरती।

लो लहराके चली हवा ।

        कुसुम कोठारी

Thursday 27 December 2018

नव वर्ष एक सोच

नववर्ष एक सोच

नव वर्ष एक सोच
जो एक पुरे साल नही बदलता
वो एक पल में नव होता
उस एक क्षण को
पार करने में साल गुजरता
सुख, दुख ,शोक ,चिंता अवसाद
सब अडिग से रहते
बस कैलेंडर बदलता
और सब नया हो जाता !!
अंक गणित का खेल सा लगता
नव शताब्दी क्या बदला ?
और बदला तो कितना अच्छा था ?
था कुछ खुशी मनाने लायक ?
या फिर एक ढर्रा था
हर वर्ष नव वर्ष आया फिर आयेगा   
पता नही ये क्या गति जीवन की
कुछ हाथ ना पल्ले
वहीं खड़े जहां से थे चले।

जीर्ण शीर्ण हर सोच बदल दें
ये साल  खुशियों से भर दें ।

          कुसुम कोठारी ।

Wednesday 26 December 2018

निशब्द मेला बहारों का

नीरव निशा का दामन थामे देखो मंयक 
धरा को छूने आया अपनी रश्मियों से ।

मचल मचल लहरें  सागर के दिल से
दौडती है किनारो से मिलने कसक लिये
छोड कुछ हलचल फिर समाती सागर में
हवाओं में फिर से कुछ नई रवानी है
दूर क्षितिज तक फैली निहारिकाऐं
मानो कुछ कह रही है पुकार के हमें
यूं ही बिखरा निशब्द मेला बहारो का
सर्द मौसम अब समझाने लगा नये अर्थ ।

नीरव निशा का दामन थाम देखो मंयक
धरा को छूने आया अपनी किरणों  से ।
                  कुसुम कोठारी ।

Monday 24 December 2018

जोखिम का सफर जिंदगी

जोखिम का सफर जिंदगी

जोखिम की मानिंद हो रही बसर है जिंदगी
खूबसूरत  सा  एक भंवर है जिंदगी ।

खिल के मिलना ही है धूल में जानिब नक्बत
जी लो जी भर माना खतरे की डगर है जिंदगी।

बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेजार
भीगी हुई चांदनी का शजर है जिंदगी

मिलने को तो मिलती रहे दुआ ए हयात रौशन
उसका करम है उसको नजर है जिंदगी।

माना डूबती है कश्तियां किनारों पर भी
डाल दो लहरों पे जोखम का सफर है जिंदगी ।
         
                कुसुम कोठारी ।

Friday 21 December 2018

बिन मुस्कान

मुस्कान

बिन मुस्कान रूप लगे
ज्यों कागज के फूल
देखन में सुंदर लगे
बिन सौरभ निर्मूल।

होठ बिन मुस्कान के
ज्यों बिना चाँद के व्योम
सूने सूने  हैं लगत
ज्यों बिना पात के द्रुम।

खुशी आधी बिन मुस्कान
ज्यों बिन नीर पुष्कर
भाल न अगर मयूर पंखी
लगे अधूरे  मुरलीधर।

स्वागत फीका सा लगे
जब ना लब पर मुस्कान
बिन बिंदी दुल्हन ना सजे
बिना नीर ना भाऐ  घन।

बिन मुस्कान ओ रूपसी
ज्यों बिन ज्योति के आंख
बिन बरखा के सावन
बिन तारों के रात।

        कुसुम कोठारी।

Tuesday 18 December 2018

मौसम आतें हैं जाते हैं

मौसम आते हैं जाते हैं

मौसम आते हैं जाते हैं
हम वहीं खड़े रह जाते हैं

सागर की बहुरंगी लहरों सा
उमंग से उठता है मचलता है
कैसे किनारों पर सर पटकता है
जीवन चक्र यूंही चलता है
मौसम आते है...

कभी सुनहरे सपनो सा साकार
कभी टुटे ख्वाबों की किरचियां
कभी उगता सूरज भी बेरौनक
कभी काली रात भी सुकून भरी
मौसम आते हैं....

कभी जाडे सा सुहाना
कभी गर्मीयों सी तपन
कभी बंसत सा मन भावन
कभी पतझर सा बिखरता
मौसम आते हैं....

कभी चांदनी दामन में भरता
कभी मुठ्ठी की रेत सा फिसलता
जिंदगी कभी  बहुत छोटी लगती
कभी सदियों सी लम्बी हो जाती
मौसम आते हैं....
              कुसुम कोठारी

Monday 17 December 2018

नैना रे अब ना बरसना

नैना रे अब ना बरसना

शीत लहरी सी जगत की संवेदना
आँसू अपने आंखों में ही छुपा रखना ।
नैना रे अब ना बरसना।

शिशिर की धूप भी आती है ओढ़  दुशाला   
अपने ही दर्द को लपेटे है यहाँ सारा जमाना।
नैना रे अब ना बरसना।

देखो खिले खिले पलाश भी लगे  झरने
डालियों को अलविदा कह चले पात सुहाने।
नैना रे अब ना बरसना।

सलज कुसुम ओढ़ तुषार दुकूल प्रफुल्लित
प्रकृति के सुसुप्त नैसर्गिक द्रव्य है मुखलित।
नैना रे अब ना बरसना।

जो कल न कर सका उस से न हो अधीर
है जो आज उनसे कर इष्ट मुक्ता अंगीकार ।
नैना रे अब ना बरसना ।

              कुसुम कोठारी।

Sunday 16 December 2018

सर्द का दर्द

                 सर्द का दर्द

               सर्द हवा की थाप ,
       बंद होते दरवाजे खिडकियां
   नर्म गद्दों में  रजाई से लिपटा तन
और बार बार होठों से फिसलते शब्द
            आज कितनी ठंड है!
         कभी ख्याल आया उनका
         जिन के पास रजाई तो दूर
           हड्डियों पर मांस भी नही ,
                 सर पर छत नही
           औऱ आशा कितनी बड़ी
               कल धूप निकलेगी
           और ठंड कम हो जायेगी
               अपनी भूख,बेबसी,
            औऱ कल तक अस्तित्व
               बचा लेने की लड़ाई
        कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
                  दो कार्य एक साथ
              आज थोड़ा आटा हो तो
            रोटी और ठंड दोनों सेक लें ।

                        कुसुम कोठरी ।

Wednesday 12 December 2018

सिसकती मानवता

तीन क्षणिकाएँ
सिसकती मानवता

सिसकती मानवता
कराह रही है
हर ओर फैली धुंध कैसी है
बैठे हैं एक ज्वालामुखी पर
सब सहमें से डरे डरे
बस फटने की राह देख रहे
फिर सब समा जायेगा
एक धधकते लावे में ।

जिन डालियों पर
सजा करते थे झूले
कलरव था पंछियों का
वहाँ अब सन्नाटा है
झूल रहे हैं फंदे निर्लिप्त
कहलाते जो अन्न दाता
भूमि पुत्र भूमि को छोड़
शून्य के संग कर रहे समागम।

पद और कुर्सी का बोलबाला
नैतिकता का निकला दिवाला
अधोगमन की ना रही सीमा
नस्लीय असहिष्णुता में फेंक चिंगारी
सेकते स्वार्थ की रोटियाँ
देश की परवाह किसको
जैसे खुद रहेंगे अमर सदा
हे नराधमो मनुज हो या दनुज।

            कुसुम कोठारी

Tuesday 11 December 2018

आत्म चेतना

आत्म चेतना

स्वाध्याय का दीप प्रज्वलित कर
अज्ञान अंधकार को दूर करूं

अन्तरचक्षु  उद्धाटित कर
निज स्वरूप दर्शन करूं

सूक्ष्म का अवलोकन कर
आत्मा की पहचान करूं

पढा हुवा सब आत्मसात कर
सदआचरण व्यवहार करूं

तभी सफल हो मानव तन
सकल सौम्य आचार करूं।

        कुसुम कोठारी।

Sunday 9 December 2018

दास्ताँ ए गम

रो रो के सुनाते रहोगे दास्ताँ ए गम
     भला कोई कब तक सुनेगा

देते रहोगे दुहाई उजड़ी जिंदगी की 
    भला कोई कब तक सुनेगा

आशियाना तुम्हारा ही तो बिखरा ना होगा
        भला कोई कब तक सुनेगा

गम से कोई जुदा कहां जमाने में
    भला कोई कब तक सुनेगा

अदम है आदमी बिन अत़्फ के
   भला कोई कब तक सुनेगा

अफ़सुर्दा रहते हो अजा़ब लिये
   भला कोई कब तक सुनेगा

आब ए आइना ही धुंधला इल्लत किसे
      भला कोई कब तक सुनेगा

गम़ख्वार कौन गैहान में आकिल है चुप्पी
     भला कोई कब तक सुनेगा ।

            कुसुम कोठारी।।

अदम =अस्तित्व हीन,  अत़्फ =दया
अफ़सुर्दा =उदास ,इल्लत =दोष
 गैहान=जमाना, आकिल =बुद्धिमानी

Friday 7 December 2018

अप्रतिम सौन्दर्य

अप्रतिम सौन्दर्य

हिम  से आच्छादित
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
ज्यों देव पाकशाला में
पकते पकवानों की वाष्प गंध
उजालों को आलिंगन में लेती
सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ
पेड़ों पर छिटके हिम-कण
मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों
मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे
किसी धवल परी ने आंचल फैलया हो
पर्वत से निकली कृष जल धाराएँ
मानो अनुभवी वृद्ध के
बालों की विभाजन रेखा
चीङ,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार
चारों और बिखरे उतंग विशाल सुरम्य
कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े
कुछ आज भी तन के खड़े
आसमां को चुनौती देते
कल कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ
उनसे झांकते छोटे बड़े शिला खंड
उन पर बिछा कोमल हिम आसन
ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को
प्रकृति ने कितना रूप दिया  कश्मीर  को
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों  मे वर्णन असम्भव।

              कुसुम कोठारी।

   " गिरा अनयन नयन बिनु बानी "

Wednesday 5 December 2018

लो बजी शहनाई

दूर कहीं शहनाई बजी
आहा! आज फिर किसी के
सपने रंग भरने लगे
आज फिर एक नवेली
नया संसार बसाने चली
मां ने वर्ण माला सिखाई
तब सोचा भी न होगा
चली जायेगी
जीवन के नये अर्थ सीखने
यूं अकेली
किसी अजनबी के साथ
जो हाथ न छोडती थी कभी
गिरने के डर से
वही हाथ छोड किसी
और का हाथ थाम चल पड़ी
जिसका पूरा आसमान
मां का आंचल था
वो निकल पड़ी
विशाल आसमान में
उडने, अपने पंख फैला
जिसकी दुनिया थी
बस मां के आस पास
वो चली आज एक
नई दुनिया बसाने
शहनाई बजी फिर
लो एक डोली उठी फिर।

       कुसुम कोठारी।

Monday 3 December 2018

नव सूर्योदय नव गतिबोध

नव सूर्योदय नव गति बोध

दूर गगन ने उषा का
घूंघट पट खोला
स्वर्णिम  बाल पतंग
मुदित मन डोला
किरणों  ने बांहे फैलाई
ले अंगड़ाई
छन-छन सोई पायल
बोली, मनभाई
अलसाई सी सुबह ने
आँखे  खोली
खग अब उठ जाओ
प्यार से बोली
मधुर झीनी झीनी
बहे बयार मधु रस सी
फूलों ने निज अधर
खोले धीरे धीरे
भ्रमर गूंजार चहुँ और
सरस गूंजारित
उठ चला रात भर का
सोया कलरव
सभी चले करने
पुरीत निज कारज
आराम के बाद
ज्यों चल देता राहगीर
अविचल अविराम
पाने मंजिल फिर
यूंही सदा आती है सुबहो
फिर ढल जाने को
यूं ही सदा ढलता सूर्य
नित नई गति पाने को।

         कुसुम  कोठारी।

Saturday 1 December 2018

ध्वनि अक्षर आवाज़

ध्वनि अक्षर आवाज।
   
  .    सारा ब्रह्माण्ड ध्वनि और
   प्रतिध्वनियों से गूंजारित रहता
       जब तक हम उन्हें न करते
        अक्षर  रूप  में  हासिल
उनका नही होता कोई स्पष्ट स्वरूप
 अक्षर दे सुनाई  तो आवाज बनते
    ढलते ही स्याही में शब्द बनते
    अलंकृत होते तो काव्य बनते
       लय बद्ध हो तो गीत बनते
     गुनगुनाने लगे तो गजल बनते
   और वही अक्षर कराने लगे बोध
        आत्मा एंव अध्यात्म का
       तो भजन और शास्त्र बनते।
             
                 कुसुम कोठारी।

Thursday 29 November 2018

आवाज शमा की

आवाज शमा की

आवाज दी शमा ने ओ परवाने
            तूं क्यों नाहक जलता है।

           मेरी तो नियति ही जलना
           तूं क्यों मुझसे लिपटता है  ।
           परवाना कहता आहें भर ,
           तेरी नियति मेरी फितरत
         जलना दोनो की ही किस्मत
             तूं  तो  रहती जलती है
         मै तुझ से पहले बुझ जाता हूं।
 
       आवाज दी शमा ने ओ परवाने
            तूं क्यों नाहक जलता है।
     
   मैं तो जलती जग रौशन करने,
         तूं क्या देता दुनिया को
   बस नाहक जल जल मरता है !
      तूं जलती जग के खातिर
      जग तुझ को क्या  देता है
    बस खुद  को खो देती हो तो
          काला धब्बा रहता है ।
 
   आवाज दी शमा ने ओ परवाने
          तूं क्यों नाहक जलता है।

             मेरे फना होते ही हवा
              मेरे पंख ले जाती है
       रहती ना मेरे जलने की कोई निशानी
          बस इतनी सी मेरी तेरी कहानी है ।
          बस इतनी सी मेरी तेरी कहानी है।

                  कुसुम कोठारी ।

Tuesday 27 November 2018

चाँदनी का श्रृंगार


      चाँदनी का श्रृंगार

      निर्मेघ नभ पर चाँद,
      विभा सुधा बरसा रहा
     तारों के  दीपों से नीलम
      व्योम झिलमिला रहा।

      निर्मल कौमुदी छटा से
        विश्व ज्यों नहा रहा
       पुष्प- पुष्प पर मंजुल
       वासंती मद तोल रहा।

      सरित, सलिल मुकुल,
       मधुर स्वर बोल रहा
      कानों में जैसे  सुमधुर
      अमृत रस घोल रहा।

    विधु का  वैभव  स्वतंत्र
     वल्लरियों पर झूम रहा
     चातकी पर मोहित हो
    विटप का मुख चूम रहा।

            कुसुम कोठारी।
कौमुदी=चांदनी,  मुकुल =दर्पण, वल्लरी =लता

Monday 26 November 2018

एक नादानी

एक नादानी (काव्य कथा)

कहीं  एक तलैया के किनारे
एक छोटा सा आशियाना
फजाऐं  महकी महकी
हवायें  बहकी बहकी
समा था मदहोशी  का
हर आलम था खुशी का
न जगत की चिंता
ना दुनियादारी का झमेला
बस दो जनों का जहान था
वह जाता शहर लकड़ी बेचता
कुछ जरूरत का सामान खरीदता
लौट घर को आता
वह जब भी जाता
वह पीछे से कुछ बैचेन रहती
जैसे ही आहट होती
उस के पदचापों की
वह दौड द्वार खोल
मधुर  मुस्कान लिये
आ खडी होती
लेकर हाथ से सब सामान
एक गिलास  में पानी देती
गर्मी  होती तो पंखा झलती
हुलस हुलस सब बातें  पूछती
सुन कर शहर की रंगीनी
उड कर पहुंचती उसी दायरे में
जीवन बस सहज बढा जा रहा था
एक दिन जिद की उसने भी
साथ चलने की
उसने लाख रोका न मानी
दोनो चल पडे
शहर में खूब मस्ती की
चाट, झूले, चाय-पकौड़े
स्वतंत्र  सी औरतें
उन्मुक्त इधर उधर उडती
बस वही मन भा गया
मन शहर पर आ गया
नही रहना उस विराने में
इसी नगर में रहना
था प्रेम अति गहरा
पति रोक न पाया
उसे लेकर शहर आया
किसी ठेकेदार को सस्ते में
गांव का मकान बेचा
शहर में कुछ खरीद न पाया
किराये पर एक कोठरी भर आई
हाथ में धेला न पाई
काम के लिये भटकने लगा
भार ठेला जो मिलता करता
पेट भरने जितना भर
मुश्किल  से होता
फिर कुछ संगत बिगडी
दारू की लत लगी
अब करता ना कमाई
भुखा पेट, पीने को चाहिऐ पैसा
पहले तूं-तूं  मैं-मैं  फिर हाथा पाई
आखिर वो मांजने लगी बरतन
घर घर में भरने लगी पानी
जो अपने घर की थी रानी
अपनी नादानी से बनी नौकरानी
ना वो मस्ती  के दिन रात
और आँख में था पानी
ये एक छोटी नादान कहानी।

        कुसुम कोठारी ।

Friday 23 November 2018

गुमगश्ता रुमानियत

गुमगश्ता रुमानियत

फूल दिया किये उनको खिजाओं में भी
पत्थर दिल निकले फूल ले कर भी ।

रुमानियत की बातें न कर ए जमाने
अज़ाब ए गिर्दाब में गुमगश्ता है जिंदगी भी।

संगदिलों से कैसी परस्ती ए दिल
वफा न मिलेगी जख्म ए ज़बीं पा के भी।
 
चाँद तारों की तमन्ना करने वाले सुन
जल्वा ए माहताब को चाहिये फलक भी।

"शीशा हो या दिल आखिर टूटता" जरुर
क्यों लगाता है जमाना फिर फिर दिल भी ।

तूफानों में उतरने से डरता है दरिया में
डूबती है कई कश्तियां साहिल पर  भी।

               कुसुम कोठारी।
(अज़ाब =दर्द, गिर्दाब =भंवर, ज़बीं =माथा, सर)

Monday 19 November 2018

मेरी भावना ~ क्षणिकाएं

चार क्षणिकाएं ~ मेरी भावना

भोर की लाली लाई
आदित्य आगमन की बधाई

रवि लाया एक नई किरण
संजोये जो, सपने हो पूरण
पा जाऐं सच में नवजीवन

उत्साह की सुनहरी धूप का उजास
भर दे सबके जीवन मे उल्लास ।



साँझ ढले श्यामल चादर
जब लगे ओढ़ने विश्व!

नन्हें नन्हें दीप जला कर
प्रकाश बिखेरो चहुँ ओर
दे आलोक, हरे हर तिमिर

त्याग अज्ञान मलीन आवरण
पहन ज्ञान का पावन परिधान ।



मानवता भाव रख अचल
मन में रह सचेत प्रतिपल

सह अस्तित्व ,समन्वय ,समता ,
क्षमा ,सजगता और परहितता
हो रोम रोम में संचालन

हर प्राणी पाये सुख,आनंद
बोद्धित्व का हो घनानंद।



लोभ मोह जैसे अरि को हरा
दे ,जीवन को समतल धरा

बाह्य दीप मालाओं के संग
प्रदीप्त हो दीप मन अंतरंग
जीवन में जगमग ज्योत जले

धर्म ध्वजा सुरभित अंतर मन
जीव दया का पहन के वसन

          कुसुम कोठारी ।

Saturday 17 November 2018

मन अतिथि

मन  अतिथि

कुहूक गाये कोयलिया
सुमन खिले चहुँ ओर
पपीहा मीठी राग सुनाये
नाच उठे मन मोर  ।

मन हुवा मकरंद आज
हवा सौरभ ले गई चोर
नव अंकुर लगे चटकने
धरा का खिला हर पोर।

द्वारे आया कौन अतिथि
मन में हर्ष हिलोल
ऐसे बांध ले गया मन
स्नेह बाटों में तोल।

मन बावरा उड़ता
पहुंचा उसकी ठौर
अपने घर भई अतिथि
बैठ नयनन की कोर।

     कुसुम कोठारी ।

Wednesday 14 November 2018

बेताबियों के अब्र

बेताबियों के अब्र

बरस जा ऐ बेसुमार बेताबियों के अब्र
सागर जो रुके आंखों में अब टूटा सब्र ।

ख्वाबों में सितारों से झोली भर ली होगी
ख्वाब टूटे कि फिर झोली खाली होगी।

आसमां में फूल गर खिल भी जायेंगे
आसमां के फूल हमारे काम क्या आयेंगें।

उड़ानें थी ऊंचाइयों पे था कितना दम खम
आ गऐ धरा पे टूटी तमन्ना का लिये गम ।

                    कुसुम कोठारी।

Sunday 11 November 2018

मन मासूम परिंदा

.               मन की गति

मन एक मासूम परिंदा
स्व उडान से घायल होता।

स्वयं भोगता अवसाद
किसीको फर्क न पडता।

कैसी धारणा बनाता
किसीके बस ना रहता।

जब भी जगती है तृष्णा
खुद ही सुलगता जाता।

अपनो से भी द्वेष पालता
स्वयं को पीड़ा पहुंचाता।

मन एक घायल परिंदा।

      कुसुम कोठारी ।

Thursday 8 November 2018

मां मैं, मैं प्रसू, मैं धात्री

मां मैैं , मैैं प्रसू मैैं धात्री

मेरा नन्हा झूल रहा था
मेरी आस के पलने में
किसलय सा कोमल सुकुमार
फूलों जैसी रंगत
मुस्कानो के मोती लब पे
उसकी अनुगूँज अहर्निश
किलकारी में सरगम
मुठठी बांधे हाथों की थिरकन
ज्यों विश्व विजय पर जाना
प्रांजल जैसा रूप मनोहर
प्रांजल सी प्रति छाया
देख के उस के करतब
अंतस तक हरियाया
याद है मुझको वो
प्रथम स्पंदन जो अंदर
गहरे अनुराग कर पुलकित
गात को दे मधुर आभास
मै मां मै प्रसू मै धात्री
कर धारण तूझको
सृष्टि भाल सुशोभित
नील मणि सम गर्वित
चंद्र कला सी बढती शोभा
ब्रह्मा स्वरुप विश्व सृजक
पहला पदार्पण एक सिहरन
अशक्त नाजुक देह कंपित
निर्बोध डरा सा मन बेताब
प्रथम क्रंदन, मां की मुस्कान
हल्की महक मां की परिचित
और सब अंजान,
मां ने पाया नव जीवन औ'
विधाता से अप्रतिम वरदान।

        कुसुम कोठारी ।

Wednesday 7 November 2018

बरखा की विदाई

बरखा की विदाई

बरखा ने ली विदाई
आया शरद सुखदाई
साफ निलाम्बर खोले
अपनी गठरी
हीरकणी से बिखेरे
तारे मनोहारी
नदिया ने भी की गति मद्दम
सरसों फूली
हरित पीत अवनी
सुंदर सरस मनभावन
दादुर मौन, पपीहा हर्षित
स्वागत शरद! सदा सुखदाई !!

        कुसुम कोठरी ।

Tuesday 6 November 2018

दीपमालिका

शुभ दीपमालिका

दीप मालिका दीप ज्योति संग
भर-भर खुशीयां लाई
नवल ज्योति की पावन आभा 
प्रकाश पुंज ले आई
प्रज्वलित करने मन प्रकाश को
दीपशिखा लहराई
पुलकित गात,मुदित उर बीच
ज्यों स्नेह धारा बह आई
अमावस के अंधियारे पे
दीप  चांदनी  छाई
मन तारों ने झंकृत हो
गीत  बधाई  गाई
चहूं और उल्लास प्रदिप्त
घर-घर खुशियां छाई
मन मयूर कर नृतन कहे
लो दीप मालिका आई ।

    कुसुम कोठारी ।

Thursday 1 November 2018

मन की गति विरला ही जाने

मन की गति विरला ही जाने

एकाकीपन अवलंबन ढूंढता
और एकांत में वास शांति का
जो जो  एकांत में है उतरता
उद्विग्नता पर विजय है पाता ।

बिना सहारा लिये किसी के
वो महावीर, गौतम बन जाता
जगत नेह का स्वरुप है छलना
पाने की चाहत में और उलझना।

प्रिय के नेह को मन अकुलाता
मिलते ही वहीं उलझा जाता
और उसी में बस सुख  पाता
ना मिले तो रोता भरमाता।

मन का बोध अति मुश्किल
विकल, विरल ओ विचलित
अदम्य प्यास जो आज होती
कल वितृष्णा बन है खोती ।

मन की गति विरला ही जाने ।

                  कुसुम कोठारी ।

Monday 29 October 2018

पाती आई प्रेम की


पाती
पाती  आई  प्रेम  की
आज  राधिका नाम
श्याम पीया को आयो संदेशो
हियो हुलसत जाय
अधर छाई मुस्कान सलोनी
नैना नीर बहाय
एक क्षण भी चैन पड़त नाही
हिय उड़ी उडी जाय
जाय बसुं उस डगर जासे
आये नंद कुमार
राधा जी मन आंगने
नौबत बाजी जाय
झनक झनक पैजनिया खनके
कंगन गीत सुनाय
धीर परत नही मन में
पांख होतो उडी जाय
जाय बसे कान्हा के
नैनन सारा जग बिसराय।

      कुसुम कोठारी।

Tuesday 23 October 2018

शरद स्वागतोत्सुक मंयक

शरद स्वागतोत्सुक मंयक

धवल ज्योत्सना पूर्णिमा की
अंबर रजत चुनर ओढ मुखरित
डाल डाल चढ़ चंद्रिका  डोलत
पात  पात पर  रमत  चंदनिया
तारक दल  सुशोभित  दमकत
नील कमल पर अली डोलत यूं
ज्यों श्याम मुखारविंद काले कुंतल
गुंचा महका ,  मलय  सुवासित
चहुँ और उजली किरण सुशोभित
नदिया  जल चांदी  सम चमकत
कल छल कल मधुर राग सुनावत
हिम गिरी  रजत  सम  दमकत
शरद स्वागतोत्सुक मंयक की
आभा अपरिमित सुंदर श्रृंगारित
शोभा न्यारी अति भारी सुखकारी।
               कुसुम कोठारी ।

Sunday 21 October 2018

बादलों की डोलची

बादलों की डोलची

नीलम सा नभ उस पर खाली डोलची लिये
स्वच्छ बादलों का स्वच्छंद विचरण
अब  उन्मुक्त  हैं कर्तव्य  भार से
सारी सृष्टि  को जल का वरदान
 मुक्त हस्त दे आये सहृदय
अब बस कुछ दिन यूंही झूमते घूमना
चाँद  से अठखेलियां,हवा से होड
नाना नयनाभिराम  रूप मृदुल, श्वेत
चाँद  की चांदनी में चांदी सा चमकना
उड उड यहां वहां बह जाना फिर थमना
धवल शशक सा आजाद  विचरन करना
कल फिर शुरू करना है कर्म पथ का सफर
फिर  खेतों में खलिहानों में बरसना
फिर पहाडों पे , नदिया पे गरजना
मानो धरा को सींचने स्वयं न्योछावर होना।

               कुसुम कोठारी।

Saturday 20 October 2018

वजह क्या थी


वजह क्या थी !!

मिसाल कोई मिलेगी 
उजडी बहार में भी 
उस पत्ते सी,
जो पेड़ की शाख में 
अपनी हरितिमा लिये डटा है 
अब भी। 
हवाओं  की पुरजोर कोशिश 
उसे उडा ले चले संग अपने 
कहीं खाक में मिला दे ,
पर वो जुडा था पेड के स्नेह से,
डटा रहता हर सितम सह कर
पर यकायक वो वहां से 
टूट कर उड चला हवाओं के संग, 
वजह क्या थी ?
क्योंकि पेड़ बोल पड़ा उस दिन
मैने तो प्यार से पाला तुम्हे,
क्यों यहां शान से इतराते हो
मेरे उजड़े हालात का उपहास उड़ाते हो,
पत्ता कुछ कह न पाया  
शर्म से बस अपना बसेरा छोड़ चला, 
वो अब भी पेड के कदमों में लिपटा है,
पर अब वो सूखा बेरौनक हो गया
साथ के सूखे पुराने पत्तों जैसा 
उदास, 
पेड की शाख पर वह
कितना रूमानी था ।

                कुसुम कोठारी।



Thursday 18 October 2018

उतरा मुलम्मा सब बदरंग

उतरा मुलम्मा सब बदरंग

वक्त बदला तो संसार ही बदला नजर आता है
उतरा मुलम्मा फिर सब बदरंग नजर आता है।

दुरूस्त ना की कस्ती और डाली लहरो में
फिर अंजाम ,क्या हो साफ नजर आता है।

मिटते हैं आशियाने मिट्टी के ,सागर किनारे
फिर क्यो बिखरा ओ परेशान नजर आता है।

ख्वाब कब बसाता है गुलिस्ता किसीका
ऐसा  उजड़ा कि बस हैरान नजर आता है।

                  कुसुम कोठारी ।

Monday 15 October 2018

दामन में चाँद

दामन में चाँद

अंधेरों से डर कैसा अब, मैने चाँद थामा दामन में
चांदनी बिखरी मेरे आंगन में,मैने चाँद थामा दामन में ।

उजाले लेने बसेरा आये मेरे द्वारे, नयनों में डेरा डाला
पलकें मूंद रखा अंखियन में, मैने चाँद थामा दामन में ।

हर शाख पर डोलत डोलत थका हारा सा चन्द्रमा
आया मुझसे लेने आसरा, मैने चाँद थामा दामन में ।

उर्मियां चंचल चपल सी डोलती पुर और उपवन में
घबराई ढूंढती शशि को आई, मैने चाँद थाम दामन में।

आमावस्या का ना रहा नामोनिशान अब जीवन में
किरणों का वास मुझ गृह में,मैने चाँद थामा दामन में  ।
                      कुसुम कोठारी ।

Saturday 13 October 2018

उलझन और उलझती जाये

उलझन और उलझती जाये

शांत निर्झरिणी में गर कंकर मारो
दो क्षण विचलित हो ,
फिर शांत हो जाती है ।
मन के शांत सरोवर में
चोट अगर कोई लग जाये
व्याकुल हो मन बावरा ,
स्वयं को ही न समझ पाये
धागे सोचों के बल खाये
जितनी भी चाहें सुलझाओ
उलझन और उलझती जाये ।
पर ऐसे में भी अक्सर ,
अपने अस्तित्व का अहसास,
सदा सुखद सा लगता है
सच मन ही तो है,
मन की थाह कहाँ कोई पाये ।

          कुसुम कोठारी ।

Wednesday 10 October 2018

मुस्कान के मोती

मुस्कान के मोती

जब दिल की मुंडेर पर
अस्त होता सूरज आ बैठता है
श्वासों में कुछ मचलता है
कुछ यादें छा जाती,
सुरमई सांझ बन
जहाँ हल्का धुंधलका
हल्की रोशनी
कुछ उड़ते बादल मस्ती में
डोलते मनोभावों जैसे
हवाके झोंके
सोया एहसास जगाते
होले होले बेकरारियों को
थपकी दे सुलाते
मन गगन पर वो उठता चांद
रोशनी से पूरा आंगन जगमगा देता
मन दहलीज पर
मोती चमकता मुस्कान का
फिर नये ख्वाब लेते अंगड़ाई
होले - होले
जब दिल की.........
                      कुसुम कोठारी ।

Tuesday 9 October 2018

मुदित मन स्वागत मां

मुदित मन स्वागत मां

बरखा अब विदाई के
अंतिम सोपान पर आ खडी है
विदा होती दुल्हन के
सिसकियों के हिलोरों सी
दबी दबी सुगबुगाहट लिये।

शरद ने अभी अपनी
बंद अटरिया के द्वार
खोलने शुरू भी नही किये
मौसम के मिजाज
समझ के बाहर उलझे उलझे।

मां दुर्गा भी उत्सव का
उपहार लिये आ गईं धरा पे
चहुँ और नव निकेतन
नव धाम सुसज्जित
आवो करें स्वागत मुदित मन से।

                      कुसुम कोठारी।

Monday 8 October 2018

उलझन से निकलो

उलझन से निकलो

मन की अगणित परतों मे दबी ढकी आग
कभी सुलगती कभी मद्धम कभी धीमी फाग।

यूं न जलने दो नाहक इस तेजस अनल को
सेक लो हर लौ पर जीवन के पल-पल को।

यूं न बनाओ निज के अस्तित्व को नीरस
पकालो आत्मीयता की मधुर पायस।

गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
निज मन की कलुषिता का कर दो  तर्पण ।

बस उलझन का कोहरा ढकता उसे कुछ काल
मन मंथन का गरल पी शिव बन, उठा निज भाल।

                   कुसुम कोठारी।

Friday 5 October 2018

कैसा तिलिस्म विधु का

ये रजत बूंटों से सुसज्जित नीलम सा आकाश
ज्यों निलांचल पर हिरकणिका जडी चांदी तारों में

फूलों  ने भी पहन लिये हैं वस्त्र किरण जाली के
आई चंद्रिका इठलाती पसरी बिस्तर पे लतिका के

विधु का कैसा रुप मनोहर तारों जडी पालकी है
छूता निज चपल चांदनी से सरसी हरित  धरा को है

स्नान करने उतरा हो ज्यों निर्मल शांत झील में
जाते जाते छोड़ गया कुछ अंश अपना पानी में

ये रात है या सौगात है अनुपम  कोई कुदरत की
जादू जैसा तिलिस्म फैला सारे  विश्व आंगन में

              कुसुम कोठारी ।

Wednesday 3 October 2018

बैकुंठ में कश्मीर

बैकुंठ में रच दो कश्मीर

क्यों न रमने आते प्रभु तुम
इस अतुलित आंगन में
क्या कैद कर दिया है तुम को
तेरे ही मानव ने
एक बार उतर के आओ
फिर फिर तुम आवोगे
मंदिर और शिवालों से
ज्यादा आनंद पावोगे
अपनी बनाई रचना क्या
कभी न तुम को लुभाती
क्या कभी मां लक्ष्मी भी
आने की चाह दिखाती
एक बार आऐगी
तो संकट तूझ पर आयेगा
बैकुंठ में रच दो कश्मीर
जब ऐसा हट मचाऐगी
क्यों न रमने आते प्रभु तुम..

          कुसुम कोठरी ।

Monday 1 October 2018

गांधी, आजादी और आज का भारतीय

गांधी जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं

राष्ट्रपिता को संबोधन , क्षोभ मेरे मन का :-

बापू कहां बैठे हो आंखें छलकाये
क्या ऐसे भारत का सपना था?
बेबस बेचारा पस्त थका - थका
इंसानियत सिसक रही
प्राणी मात्र निराश दुखी
गरीब कमजोर निःसहाय
हर तरफ मूक हाहाकार
कहारती मानवता,
झुठ फरेब
रोता हुवा बचपन,
डरा डरा भविष्य
क्या इसी आजादी का
चित्र बनाया था
अब तो छलकाई
आंखों से रो दो
जैसे देश रो रहा है।

कुसुम कोठारी।

आज दो अक्टूबर, मेरे विचार में गांधी।

मैं किसी को संबोधित नही करती बस अपने विचार रख रही हूं, प्रथम! इतिहास हमेशा समय समय पर लिखने वाले की मनोवृत्ति के हिसाब से बदलता रहा है, कभी इतिहास को प्रमाणिक माना जाता था आज इतिहास की प्रमाणिकता पर सबसे बड़ा प्रश्न चिंह है।
रही महापुरुषों पर आक्षेप लगाने की तो हम (हर कुछ भी लिखने वाला बिना सोचे) आज यही कर रहे हैं, चार पंक्तियाँ में किसी को भी गाली निकाल कर पढने वालों को भ्रमित और दिशा हीन कर अपने को तीस मार खाँ समझते हैं, ज्यादा कुछ आनी जानी नही, बस कुछ भी परोसते हैं, और अपने को क्रांतिकारी विचार धारा वाला दिखाते हैं, देश के लिये कोई कुछ नही कर रहा, बस बैठे बैठे समय बिताने का शगल।

हम युग पुरुष महात्मा गाँधी को देश का दलाल कहते हैं, जिस व्यक्ति ने सारा जीवन देश हित अर्पण किया,
सोच के बताओ देश को बेच कर क्या उन्होंने महल दो महले बनवा लिये, या अपनी पुश्तों के लिये संपत्ति का अंबार छोड गये, एक धोती में रहने वाले ने अपने आह्वान से देश को इस कौने से उस कौने तक जोड दिया, देश एक जुट हुवा था तो एक इसी व्यक्तित्व के कारण उस नेता ने देश प्रेम की ऐसी लहर चलाई थी कि हर गली मुहल्ले मे देश हित काम करने वाले नेता पैदा हुवे और अंग्रेजों से विरोध की एक सशक्त लरह बनी, हर तरफ अंदर से विरोध सहना अंग्रेजों के वश में नही रहा, और जब उनके लिऐ भारत में रूकना असंभव हो गया।

कहते हैं, वो चाहते तो भगतसिंह की फांसी रूकवा सकते थे ऐसा कहने वालो की बुद्धि पर मुझे हंसी आती है, जैसे कानून उनकी बपोती था? वो भी अंग्रेजी सत्ता में, और वो अपनी धाक से रूकवा देते, ऐसा संभव है तो हम आप करोड़ों देशवासी मिल कर निर्भया कांण्ड में एक जघन्य आरोपी को सजा तक नही दिला सके कानून हमारा देश हमारा और हम लाचार  हैं याने हम जो न कर पायें वो लाचारी और उन से जो न हो पाया वो अपराध अगर दो टुकड़े की शर्त पर भी आजादी मिली तो समझो सही छुटे वर्ना न जाने और कब तक अंग्रेजों के चुगल में रहते
और बाद मे देश को टुकड़ो में तोड़ ते रहते पहले भी राजतंत्र मे देश टुकड़ो मे बंटा सारे समय युद्ध में उलझा रहता था कुछ करने की ललक है तो आज भी देश की अस्मिता को बचाने का जिम्मा उठाओ कुछ तो कर दिखाओ सिर्फ हुवे को कब तक कोसोगे
जितना मिला वो तो अपना है उसे तो संवारो।
रही आज की बात तो हर बार यही होता है बातें करने और देश चलाने मे जमीन आसमान का फर्क होता है, संविधान के अंतर्गत कानून के तहत ही महत्वपूर्ण निर्णय लिये जा सकते है कोई अराजकता है, जो प्रधान नायक कुछ भी निर्णय ले और फौजी शासन की तरह थोप दे! हर क्षेत्र में।
संविधान की किसी भी धारा में संशोधन के लिये काफी समय लगता है, कोई खेल नही है, जो होना है होगा, तो कानून और संविधान के अंतर्गत, चाहे वो कानून कभी बने हो और उन के पीछे क्या उद्देश्य रहे हो, पर आज उन मे आमूलचूल परिवर्तन के लिए कफी जद्दोजहद करनी होती है।

मैं अहिंसा की समर्थक हूं, पर मै भी हर अन्याय के विरुद्ध पुरी तरह क्रांतिकारी विचार धारा रखती हूं, मैं सभी क्रांतिकारियों को पूर्ण आदर और सम्मान के साथ आजादी प्राप्ति का महत्वपूर्ण योगदाता मानती हूं।

पर गांधी को समझने के लिये एक बार गांधी की दृष्टि से गांधी को देखिये जिस महा मानव ने जादू से नही अपनी मेहनत, त्याग, देश प्रेम, अहिंसा और दृढ़ मनोबल से सारे भारत को एक सूत्र मे बांधा था भावनाओं से, ना कि डंडे से, और जो  ना उससे पहले कभी हुवा ना बाद में।
मै कहीं भी किसी पार्टी के समर्थन और विरोध में नही बल्कि एक चिंतन शील भारतीय के नाते ये सब लिख रही हूं।
कुसुम कोठारी 

जय हिंद।।

Sunday 30 September 2018

बन के नव कोंपल

 अभिलाष

शाख पर बन नव कोंपल
मुस्कुराना चाहती हूं ।

बन के मोती पहली बरखा के
धरा पे बिखरना चाहती हूं ।

मनोभाव एक चिर सुख का
मन में भरना चाहती हूं ।

आत्मानंद का सुंदर शाश्वत
अहसास बनना चाहती हूं ।

          कुसुम कोठारी ।

Friday 28 September 2018

छविकार चित्रकारा

.          तुम्ही छविकार चित्रकारा

तप्त से इस जग में हो बस तुम ही अनुधारा
तुम्ही रंगरेज तुम्ही छविकार, मेरे चित्रकारा
रंग सात नही सौ रंगो से रंग दिया तूने मुझको
रंगाई ना दे पाई तेरे पावन चित्रों की तुझको।

हे सुरभित बिन्दु मेरे ललाट के अविरल
तेरे संग ही जीवन मेरा प्रतिपल चला-चल
मन मंदिर में प्रज्जवलित दीप से उजियारे हो
इस बहती धारा में साहिल से बांह पसारे हो।

सांझ ढले लौट के आते मन खग के नीड़ तुम्ही
विश्रांति के पल- छिन में हो शांत सुधाकर तुम्ही
मेरी जीवन नैया के सुदृढ़ नाविक हो तुम्ही
सदाबहार खिला रहे उस फूल की शाख तुम्ही।।

                     कुसुम कोठारी।

Thursday 27 September 2018

गीत स्वागत दिवाकर

अवनि से अंबर तक दे सुनाई
मौसम का रुनझुन संगीत
दिवाकर के उदित होने का
दसों दिशाऐं गाये मधुर गीत।

कैसी ऋतु बौराई मन बौराया
खिल खिल जाय बंद कली
कह दो उड़-उड़ आसमानों से
रुत सुहानी आई मनभाई भली।

धरा नव रंगों का पहने चीर
फूलों में रंगत मनभावन
सजे रश्मि सुनहरी द्रुम दल
पाखी करे कलरव,मुग्ध पवन ।

सैकत नम है ओस कणों से
पत्तों से झर झरते मोती
मंदिर शीश कंगूरे चमके,बोले
पावन बेला क्यों खोती।

       कुसुम कोठारी।

Tuesday 25 September 2018

ऐ चाँद तुम क्या हो

ऐ चाँद तुम...
कभी किसी भाल पे
बिंदिया से चमकते हो ,
कभी घूंघट की आड़ से
झांकता गोरी का आनन ,
कभी विरहन के दुश्मन ,
कभी संदेश वाहक बनते हो।
क्या सब सच है
या है कवियों की कल्पना
विज्ञान तुम्हें न जाने
क्या क्या बताता है
विश्वास होता है
और नहीं भी।
क्योंकि कवि मन को 
तुम्हारी आलोकित
मन को आह्लादित करने वाली
छवि बस भाती
भ्रम में रहना सुखद लगता
ऐ चांद मुझे तुम
मन भावन लगते।
तुम ही बताओ तुम क्या हो
सच कोई जादू का पिटारा
या फिर धुरी पर घुमता
एक नीरस सा उपग्रह बेजान।
ऐ चांद तुम.....

          कुसुम कोठारी।

Monday 24 September 2018

शाख़ ए नशेमन

शाख़ ए नशेमन

समंदर से बच आये दो आंखों में डूब गये
मुकद्दर का खेल था तेरी बातों में डूब गये ।

तस्सवुर में ना था कोई कशिश में खिंचते रहे
बीच धार से बच आये साहिल पर ड़ूब गये ।

बुलबुलें शाख़ ए नशेमन को संवारती रही
बारिशों में जाने कैसे आसियानें डूब गये ।
                       कुसुम कोठारी ।

Friday 21 September 2018

क्षणिकाएं, मन, अहंकार, क्रोध

तीन क्षणिकाएं

मन
मन क्या है एक द्वंद का भंवर है
मंथन अनंत बार एक से विचार है
भंवर उसी पानी को अथक घुमाता है
मन उन्हीं विचारों को अनवरत मथता है।

अंहकार
अंहकार क्या है एक मादक नशा है
बार बार सेवन को उकसाता रहता है
 मादकता बार बार सर चढ बोलती है
अंहकार सर पे ताल ठोकता रहता है।

क्रोध
क्रोध क्या है एक सुलगती अगन है
आग विनाश का प्रतिरूप जब धरती है
जलाती आसपास और स्व का अस्तित्व है
क्रोध अपने से जुड़े सभी का दहन करता है।

                       कुसुम कोठारी।

Thursday 20 September 2018

तृष्णा मोह राग की जाई

तृष्णा मोह राग की जाई

कैसा तृष्णा घट भरा भरा
बस बूंद - बूंद छलकाता है
तृषा, प्यास जीवन छल है
क्षण -क्षण छलता जाता है ।

अदम्य पिपासा अंतर तक
गहरे - गहरे उतरी जाती है
कैसे - कैसे सपने दिखाती
हुई पूर्ण ,नया भरमाती  है ।

कृत्य, अकृत्य भी करवाती
जीवन मूल्यों से भी गिराती
द्वेष, ईर्ष्या की है ये सहोदरा
मन से उच्च भाव भुलवाती ।

तृष्णा मोह और राग की जाई
जिसने विजय है इस पर पाई
निज स्वरुप को ऐसा  समझा
हाथ कूंची मोक्ष द्वार की आई।

          कुसुम कोठारी

Wednesday 19 September 2018

ऐ दिल

ऐ दिल क्यों लौट के, फिर वहीं आता है।

क्या खोया इन राहों मे,
जो ढूंढ नही पाता है,
सूना मन का कोई कोना
खुद भी देख नही पाता है।

ऐ दिल क्यों लौट के....

हर लम्हे की कोई,
पहचान नही होती
फिर भी गुजरा लम्हा
बीत नही पाता है ।

ऐ दिल क्यों लौट के....

कौन सा अनुराग है ये
या कोइ मृगतृष्ना
भटके मन को कैसे
उन राहों से लाऊं ।

ऐ दिल क्यों लौट के....

     कुसुम कोठारी ।

Saturday 15 September 2018

पिता सुधा स्रोत

पिता छांव दार तरुवर, नीर सरोवर

देकर मुझ को छांव घनेरी
कहां गये तुम हे तरुवर
अब छांव कहां से पाऊं

देकर मुझको शीतल नीर
कहां गये हे नीर सरोवर
अब अमृत कहां से पाऊं ।

देकर मुझको चंद्र सूर्य
कहां गये हे नीलांबर
अब प्राण वात कहां से पाऊं ।

देकर मुझको आधार महल
कहां गये हे धराधर
अब मंजिल कहां से पाऊं ।

देकर मुझ को जीवन
कहां गये हे सुधा स्रोत
अब हरितिमा कहां से पाऊं।

          कुसुम कोठरी।

Thursday 13 September 2018

" क्षितिज " संगम पावन

क्षितिज" संगम पावन

क्षिति, धरा  अडिग, अचल 
जब भी हुई चलायमान सचल,
लिया विध्वंस रूप विनाश 
काश समझता ये आकाश।

अनंत झुकता चला आता है
वसुधा से लिये मिलन का राग, 
वो नही उठना चाहती 
ये कोई अभिमान ना विराग।

अचलता धैर्य है वसुंधरा का,
जो सदा जगत का आधार है, 
उर्वी को  पावनता से  स्पर्श दे
गगन में अदम्य लालसा है।

अधोमुखी हो झुकता पुष्कर
एक दृष्टि सीमा तक जा रुकता नभ,
धुमिल उच्छवास उठ सारंग तक
महि का हृदय आडोलित हतप्रभः ।

यही पावन मिलन एक रेख सा
अंकित सुनहरी लाल मनभावन,
बन क्षितिज लुभाता सदा हमें
कितना मनोरम कितना पावन।

          कुसुम कोठारी।