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Friday 30 March 2018

तन्हाई संगिनी

कदम बढते गये बन
राह के साझेदार
मंजिल का कोई
ठिकाना ना पड़ाव,
उलझती सुलझती रही
मन लताऐं बहकी सी
तन्हाई मे लिपटी रही
सोचों के विराट वृक्षों से
संगिनी सी,
आशा निराशा मे
उगता ड़ूबता
भावों का सूरज
हताशा और उल्लास के
हिन्डोले मे झूलता मन
कभी पूनम का चाॅद
कभी गहरी काली रात
कुछ सौगातें
कुछ हाथों से फिसलता आज
नर्गिस सा, बेनूरी पे रोता
खुशबू पे इतराता जीवन,
कभी भरी महफिल
कभी बेनाम तन्हाई।
    कुसुम कोठारी।

Thursday 29 March 2018

चांद कटोरा

.          चांद कटोरा
चंचल किरणें  शशी की
झांक रही थी पत्तियों से 
उतर आई अब मेरे आंगन
जी करता इनसे अंजलीे भर लूं
या फिर थाली भर भर रख लूं
सजाऊं घर अपना इन रजत रश्मियों से
ये विश्व सजाती मन को भाती
धरा पे बिखरी -बिखरी जाती
खेतों, खलियानो ,पनघट , राहें ,
दोराहे , छत , छज्जै ,पेड़, पोधे
वन उपवन डोलती फिरती
ये चपल चंद्रिकाऐं  बस अंधेरों से खेलती
पूर्व मे लाली फैलने से पहले 
लौट जाती अपने चंदा के पास
सिमटती एक कटोरे मे चांद कटोरे मे ।
             कुसुम कोठारी ।

Tuesday 27 March 2018

कुछ बुंदे बरसात की

शांत सागर के हृदय से
उठती लहरें बदहवास सी

हवाओं मे भी नमी है
दिल के भीगे एहसास की

तपता मरूस्थल चाहता
कुछ बुंदे बरसात की

बादलों मे भी छुपी है
धीमी कोई आंच सी।

    कुसुम कोठारी ।

Sunday 25 March 2018

उतरते एहसास

झील के शांत पानी मे
शाम की उतरती धुंधली उदासी
कुछ और बेरंग
श्यामल शाम का सुनहरी टुकडा
कहीं क्षितिज के क्षोर पर पहुंच 
काली कम्बली मे सिमटता
निशा के उद्धाम अंधकार से 
एकाकार हो
जैसे पर्दाफाश  करता
अमावस्या के रंग हीन
बेरौनक आसमान का
निहारिकाऐं जैसे अवकाश पर हो
चांद के साथ कही सुदूर प्रांत मे
ओझल कहीं किसी गुफा मे विश्राम करती
छुटपुट तारे बेमन से टिमटिमाते
धरती को निहारते मौन
कुछ कहना चाहते,
शायद धरा से मिलन का
कोई सपना हो
जुगनु दंभ मे इतराते
चांदनी की अनुपस्थिति मे
स्वयं को चांद समझ डोलते
चकोर व्याकुल कहीं
सरसराते अंधेरे पात मे दुबका
खाली सूनी आँखों मे
एक एहसास अनछुआ सा
अदृश्य से गगन को
आशा से निहारता
शशि की अभिलाषा मे
विरह मे जलता
कितनी सदियों
यूं मयंक के मय मे
उलझा रहेगा
इसी एहसास मे
जीता मरता रहेगा
उतरती रहेगी कब तक
शांत झील मे शाम की उदासियां।
             कुसुम कोठारी

Thursday 22 March 2018

जिनके भाल रक्त तिलक

कुछ याद उन्हें भी करलें

23 मार्च, देश के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों को हंसते-हंसते न्यौछावर करने वाले तीन वीर सपूतों का शहीद दिवस। यह दिवस न केवल देश के प्रति सम्मान और हिंदुस्तानी होने वा गौरव का अनुभव कराता है, बल्कि वीर सपूतों के बलिदान को भीगे मन से श्रृद्धांजलि देता है।


मातृभूमि की बलिवेदी पे शीश लिये, हाथ जोचलते थे
हाथों मे अंगारे ले के ज्वाला मे जो जलते थे
अग्नि ही पथ था जिनका अलख जगाये चलते थे
जंजीरों मे जकड़ी मां को आजाद कराना था
शिकार खोजते रहते थे जब सारी दुनिया सोती थी
जिनकी हर सुबहो भाल तिलक रक्त  से होती थी
आजादी का शंख नाद जो बिना शंख ही करते थे
जब तक मां का आंचल कांटो से मुक्त ना कर देगें
तब तक चैन नही लेंगे सौ सौ बार शीश कटा लेंगे
दनदन बंदूकों के आगे सीना ताने चलते थे
 जुनून  मां को आजाद कराने का लिये चलते थे
ना घर की चिंता ना मात पिता,भाई  बहन ना पत्नी की
कोई रिश्ता ना बांध सका जिनकी मौत प्रेयसी थी
ऐसे देशभक्तों पर हर एक देशवासी को है अभिमान
नमन करें उनको जो आजादी की नीव  का पत्थर बने
एक विशाल भवन के निर्माण हेतू हुवे बलिदान।
                    कुसुम कोठारी ।

Wednesday 21 March 2018

तेरी धरा वैधव्य भोग रही...

कब आवोगे हे मुरलीधर
तेरी धरा वैधव्य भोग रही
श्रृंगार विहीन भई सुकुमारी
कितने वो दर्द  झेल रही
कभी तुम एक द्रोपदी की रक्षा हेतू
दौडे दौडे आये थे
आज संतप्त  समाज सारा
चहुँ और हाहाकार है
आज नारी की लाजदेखो
लुटती भरे बाजार है
तुम न आवो मधुसूदन
तुम्हें घनेरे काज है
कम से कम
अपना कोई दूत पठाओ
इस जलती अवनी को
कुछ ठण्डी बौछार  भिजाओ।

Monday 19 March 2018

मै तुम्हारा एकलव्य

एकलव्य की मनो व्यथा >

तुम मेर द्रोणाचार्य थे
मै तुम्हारा एकलव्य ,
मै तो मौन गुप्त साधना मे था ,
तुम्हें कुछ पता भी न था
फिर इतनी बङी दक्षिणा
क्यों मांग बैठे ,
सिर्फ अर्जुन का प्यार और
 अपने वचन की चिंता थी ?
या अभिमान था तुम्हारा,
सोचा भी नही कि सर्वस्व
 दे के जी भी पाऊंगा ?
इससे अच्छा प्राण
मांगे होते सहर्ष दे देता
और जीवित भी रहता
फिर मांगो गुरुदक्षिणा
मै दूंगा पर ,सोच लेना
अपनी मर्यादा फिर न
भुलाना वर्ना धरा डोल जायेगी ,
मै फिर भेट करूंगा अंगूठाअपना,
और कह दूंगा सारे जग को
तुम मेरे आचार्य नही
सिर्फ द्रोण हो सिर्फ एक दर्प,
 पर मै आज भी हूं
तुम्हारा एकलव्य ।
             कुसुम कोठारी ।

Sunday 18 March 2018

उम्मीद पर जीने से हासिल कुछ......

माना उम्मीद पर जीने से हासिल कुछ नही लेकिन
पर ये भी क्या,कि दिल को जीने का सहारा भी न दें।

उजडने को उजडती है बसी  बसाई बस्तियां
पर ये भी क्या के फकत एक आसियां भी ना दे।

खिल के मिलना ही है धूल मे जानिब नक्बत
पर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।

माना डूबी है कस्तियां किनारों पे मगर
पर यूं भी क्या किसी को अश़्फाक भी न दे।

बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेजार
पर ये क्या उक़ूबत तिश्नगी मे पानी भी न दे।

मिलने को तो मिलती रहे दुआ ए हयात रौशन
पर ये क्या के अजुमन को आब दारी भी न दे ।

                 कुसुम कोठारी।

नक्बत=दुर्भाग्य,अश़्फाक =सहारा आब ए चश्म = आंसू,उक़ूबत =सजा,तिश्नगी =प्यास

Saturday 17 March 2018

नारी सिर्फ नाजुक नही

नवरात्री शुभारंभ की हार्दिक शुभकामनायें ।

नारी सिर्फ नाजुक नही है
जरूरत पडे कटार भी है
चंदा की शीतलता ही नही
उसमे सूर्य  सी आग भी है
फूलों  सी नाजुक  ही सही
दुर्गा  का अवतार भी है
संदल की महक ही नही
हवन का लोबान भी है
पायल की रुनझुन ही नही
शिव का ताणडव भी है।
    कुसुम कोठारी।

Friday 16 March 2018

तूं अकेला कब है

कर्म  का सुनहरा पैगाम....

तूं अकेला कब है
तेरे साथ तेरा आत्म गौरव है
तूं अकेला कब है
तेरे साथ तेरी हिम्मत  है
तूं अकेला कब है
तेरे साथ तेरा आत्म बल है
बादलों मे जो राह बना ले
तूं ऐसा सौर्यमंडल है ।

    कुसुम कोठारी।

Thursday 15 March 2018

दुल्हन का श्रृंगार














झुमर झनका, कंगन खनका
जब राग मिला मन से मन का
मोती डोला, बोली माला बल खाके 
अब सजन घर जाना गोरी शर्मा के
चमकी बिंदिया ,खनकी पायल
पिया का दिल हुवा अब घायल
नयनों की यह  काजल रेखा
मुड़ मुड़ झुकी नजर से देखा
नाक की नथनी डोली
मन की खिडकी खोली 
ओढी चुनरीया धानी लाल
बदल गई दुल्हन की चाल
कैसा समय होता शादी का
रूप निखरता हर बाला का ।
         कुसुम कोठारी ।

Wednesday 14 March 2018

हर पीड़ा से भूख बड़ी.....

हर पीडा से भूख बड़ी है
इसी भूख ने गांव छुडाया
भाई बहन परिवार छुडाया
मां की ममता
पीपल छांव छुडाई
बाबा की मनुहार छुडाई
दादी का दूलार छुडाया
अब तो सब कुछ ही छुटा
जीवन का आदर्श भी टूटा
बचपन जैसे रूठा रुठा
जीवन है बस लुटा और झूठा ।
           कुसुम कोठारी


Monday 12 March 2018

श्याम सुंदर पुर आये

               
पादप पल्लव का आसन
कुसमित सुमनों से सजाऐ

आस लगाए बैठी राधिका
मन का उपवन महकाऐ

अब तक ना आऐ बनमाली
मन का मयूर अकुलाऐ

धीर पडत नही पल छिन
मन का कमल कुम्हलाऐ

कैसे कोई संदशो भेजूं
मन पाखी बन उड जाऐ

ललित कलियाँ सजादूं द्वारे
श्याम सुंदर जब पुर आऐ ।

            कुसुम कोठरी।

Saturday 10 March 2018

ऋतु परिक्रमा











ऋतु परिक्रमा

गर्मी का मौसम आता है
तपती दोपहरी लाता है
सन्नाटे शोर मचाते हैं
गर्म थपेड़े देह जलाते हैं
तन बदन कुम्हलाते हैं
और फूल सभी मुरझाते हैं।

जब बरखा की रूत आती है
हरियाली साथ मे लाती है
जब काली घटा छा जाती है
कोयल मीठे गीत सुनाती है
पुरवाई मल्हार गाती है
विरहित  हृदय अकुलाते हैं।

जब सर्दी का मौसम आता है
धुप सुहानी प्यारी लगती है
दोपहरी आंगन  मुस्काती है
शाम जल्दी दीप जलाती  है
रातें लम्बी दिन छोटे हो जाते हैं
सोंधे पकवान जी ललचाते है।

बसंत मधुमास बन आता है
धरा इंद्रधनुषी रंग जाती है
मयूर सुंदर नृत्य दिखाते है
तितली भंवरों की ऋतु आती है
पपीहरा पी की राग सुनाता है
नव कोंपल फूल खिल जाते है।

ऋतु  परिक्रमा.....
           कुसुम कोठारी।

Thursday 8 March 2018

परिक्रमा।










मै निकली सफर पर अकेली
मंजिल क्या होनी ये पता लेकर
पर चल पडी राह बदल
न जाने किधर
भूल गयी कहाँ से आई
और कहाँ है जाना
किस भूल भुलैया मे भटकी
कभी चली फिर अटकी
साथ मे थी फलों की गठरी
कुछ मीठे कुछ खट्टे,
कुछ नमकीन कसैले
खाना होगा एक एक फल
मीठे खाये खुश हो हो कर
कुछ रोकर
कुछ निगले दवा समान
कुछ बांटने चाहे
पर किसी को ना दे पाये
अपने हिस्से के थे सब 
किसको हिस्से देते
अब कुछ अच्छे मीठे
फलों  के पेड लगादूं
तो आगे झोली मे
मधुर मधुर ही ले के जाऊं
अनित्य मे से शाश्वत समेटूं
फिर एक यात्रा पर चल दूं
पाना है परम गति
तो निर्मल, निश्छल,
विमल, वीतरागी बन
मोक्ष मार्ग की राह थाम लूं
मै आत्मा हूं
काम, क्रोध मोह-माया,
राग, द्वेष मे लिपटी
भव बंधन मे जकडी
तोड के सब जंजीरे
स्वयं स्वरूप पाना है
बार बार की संसार
 परिक्रमा से
मुक्त हो जाना है।
    कुसुम कोठारी।

फल=पूर्व कृत कर्म।

Wednesday 7 March 2018

अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजे ।


अगले जनम  मोहे बिटिया ही कीजे
प्रभु मुझ मे ज्वाला भर दीजे
अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजे
बस  ऐसी  शक्ति  प्रभु  दीजे
अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजे
आंख उठे जो ले बेशर्मी
उन आंखों से ज्योति छीन लूं
बन अम्बे दानव मन का
शोणित  नाश करू कंसो का
अबला, निर्बल,  निस्सहाय नारी का
संबल बनु दम हो जब  तक
चीर हीन का बनु मे आंचल
आततायीयों की संहारक
काली दुर्गा  शक्ति रूपेण बन
हनन करू सारे जग के खल जन
विनती ऐसी सुन प्रभु सुन लीजे
अगले जनम  मोहे बिटिया  ही कीजे।।

Tuesday 6 March 2018

अम्बर प्रांगण

अम्बर प्रांगण।

अम्बर प्रागंण में कुछ झिलमिलाते फूल खिले,
हीर कणी से चमक रहे, क्या रत्नों के लिबास पहने !

चाँद के साथ करते अठखेलियाँ हो मस्त कुछ ऐसे ,
कुछ अविस्मृत चित्र ,ज्यों चक्षु पटल पर दौड़ चले ।
मां का तारो जड़ी चुनर,छोटे घुंघट से झांकता मुखड़ा ,
आकाश पर जड़े तारों की मेखला ओढे चंद्र टुकड़ा ।
अम्बर प्रागंण में...... 

कितने प्यारे, कितने न्यारे तुम निशा की सन्तति हो ,
सूरज से डरते हो कितना, आते ही छुप जाते हो।
क्या चांद तुम्हारा मामा लगता, या है कोई और ही नाता,
अपने ही  जैसा रजत रेशमी रूप तुम में क्यों भर देता ।
अम्बर प्रागंण में... ।

कुछ नही कहते चुप रहते, कभी छोड़ते घर अपना ,
दिन में कंहा छुपे रहते ,क्या देखते सोकर सपना ,
कितने प्यारे कितने न्यारे,क्यों कभी नही बडे़ होते,
काश हम भी कभी न बढ़ते ,सदा सदा बच्चे रहते ।
अम्बर प्रागंण में ...
                  कुसुम कोठारी ।

Sunday 4 March 2018


 निशिगंधा की भीनी
मदहोश करती सौरभ
चांदनी का रेशमी
उजला वसन
आल्हादित करता
मायावी सा मौसम
फिर झील का अरविंद
उदास गमगीन क्यों
सूरज की चाहत
प्राणो का आस्वादन है
रात कितनी भी
मनभावन हो
कमल को सदा चाहत
भास्कर की लालिमा है
जैसे चांद को चकोर
तरसता हर पल
नीरज भी प्यासा बिन भानु
पानी के रह अंदर,
ये अपनी अपनी
प्यास है  देखो
बिन शशि रात भी
उदास है देखो।

  कुसुम कोठरी

Saturday 3 March 2018

मन का उद्वेग


पूर्णिमा गयी,बीते दिन दो
चाँद आज भी पुरे शबाब पर था
सागर तट पर चाँदनी का मेला
यूं तो चारों और फैला नीरव
पर सागर मे था घोर प्रभंजन
लहरें द्रुत गति से द्विगुणीत वेग से
ऊपर की तरफ झपटती बढ़ती
ज्यो चंन्द्रमा से मिलने
नभ को छू लेगी उछल उछल
और किनारों तक आते आते
बालू पर निराश मन के समान
निढ़ाल हो फिर लौटती सागर मे
ये सिलसिला बस चलता रहा
दूर शिला खण्ड पर कोई मानव आकृति
निश्चल मौन मुख झुकाये
कौन है वो पाषण शिला पे
क्या है उस का मंतव्य,
कौन ये रहस्यमयी, क्या सोच रही
गौर से देखो ये कोई और नही
तेरी मेरी सब की क्लान्त परछाई है
जो कर रही सागर की लहरों से होड
उससे ज्यादा अशांत
उससे ज्यादा उद्वेलित
कौन सा ज्वार जो खिचें जा रहा
कितना चाहो समझ न आ रहा ।
           कुसुम कोठारी ।

Friday 2 March 2018

उदास

शाम का ढलता सूरज
उदास किरणे थक कर
पसरती सूनी मूंडेर पर
थमती हलचल धीरे धीरे
नींद केआगोश मे सिमटती
वो सुनहरी चंचल रश्मियां
निस्तेज निस्तब्ध निराकार
सुरमई संध्या का आंचल
तन पर डाले मुह छुपाती
क्षितिज के उस पार अंतर्धान
समय का निर्बाध चलता चक्र
कभी हंसता कभी  उदास
ये प्रकृति का दृश्य है या फिर
स्वयं के मन का परिदृश्य
वो ही प्रतिध्वनित करता जो
निज की मनोदशा स्वरूप है
भुवन वही परिलक्षित करता
जो हम स्वयं मन के आगंन मे
सजाते है खुशी या अवसाद
शाम का ढलता सूरज क्या
सचमुच उदास....... ?
         कुसुम कोठारी ।

उदास

शाम का ढलता सूरज
उदास किरणे थक कर
पसरती सूनी मूंडेर पर
थमती हलचल धीरे धीरे
नींद केआगोश मे सिमटती
वो सुनहरी चंचल रश्मियां
निस्तेज निस्तब्ध निराकार
सुरमई संध्या का आंचल
तन पर डाले मुह छुपाती
क्षितिज के उस पार अंतर्धान
समय का निर्बाध चलता चक्र
कभी हंसता कभी  उदास
ये प्रकृति का दृश्य है या फिर
स्वयं के मन का परिदृश्य
वो ही प्रतिध्वनित करता जो
निज की मनोदशा स्वरूप है
भुवन वही परिलक्षित करता
जो हम स्वयं मन के आगंन मे
सजाते है खुशी या अवसाद
शाम का ढलता सूरज क्या
सचमुच उदास....... ?
         कुसुम कोठारी ।

Thursday 1 March 2018












रंग और खुशी जो ले के आई
सब कहते हैं होली
आ हमसफर तू राह बना दे
मै भी साथ हो  ली
रुख पर तूने जो रंग डाला
उस दिन तेरी हो  ली
आ सब गिले शिकवे भुला दें
खूब खेलें हम होली
झनक झनक पैजनीया छनके
नाच नचाये होली
रंग गुलाल की इस महफिल में
फाग सुनाये होली
तन सूखा मन रंग जाए
ऐसी स्नेह की होली
चलो चलें हम आज सभी के
संग मनायें होली ।
       कुसुम कोठारी।