भास्कर उतरा सिंधु प्रांगण में
अपनी तपन से तपा
अपनी गति से थका
लेने विश्राम ,शीतलता
देखो भास्कर उतरा
सिन्धु प्रांगण में
करने आलोल किलोल ,
सारी सुनहरी छटा
समेटे निज साथ
कर दिया सागर को
रक्क्तिम सुनहरी ,
शोभित सारा जल
नभ. भूमण्डल
एक डुबकी ले
फिर नयनो से ओझल,
समाधिस्थ योगी सा
कर साधना पूरी
कल फिर नभ भाल को
कर आलोकित स्वर्ण रेख से
क्षितिज का श्रृंगार करता
अंबर चुनर रंगता
आयेगा होले होले,
और सारे जहाँ पर
कर आधिपत्य शान से
सुनहरी सात घोड़े का सवार
चलता मद्धम गति से
हे उर्जामय नमन तूझे।
कुसुम कोठारी।
भास्कर उतरा सिंधु प्रागंण में .....,अप्रतिम सृजन ।सूर्योदय से सूर्यास्त तक का मनमोहक वर्णन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार मीना जी आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से रचना गतिमान हुई।
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ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 17अप्रैल 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सस्नेह आभार पम्मी जी ।
Deleteआना तो निश्चित है देर सबेर।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 16/04/2019 की बुलेटिन, " सभी ठग हैं - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कुसुम जी ! लेकिन आपके भास्कर को बड़ी क्लिष्ट भाषा पसंद है.
ReplyDeleteसादर आभार सर आपकी प्रतिक्रिया सदा उत्साह बढाती है।
Deleteवैसे भास्कर दादा स्वयं कितने क्लिष्ट हैं उनका सामना करने का कुछ ताव तो हो शब्दों में भी.
ऐसा कुछ नही सर बस शब्दों पर प्रयोग मूझे अच्छा लगता है उस चक्कर में सायद कुछ क्लिष्टता आ जाती है।
सादर ।
लेने विश्राम ,शीतलता
ReplyDeleteदेखो भास्कर उतरा
सिन्धु प्रांगण में
वाह!!!
बहुत सुन्दर ...
लाजवाब।
बहुत बहुत आभार सुधा जी।
Deleteसस्नेह ।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, कुसुम दी।
ReplyDeleteढेर सा स्नेह आभार बहना।
Deleteबहुत सुन्दर ...लाजवाब।
ReplyDeleteसस्नेह आभार सखी ।
Deleteसस्नेह आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया सदा उत्साह बढाती है
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeleteफिर नयनो से ओझल,
ReplyDeleteसमाधिस्थ योगी सा
कर साधना पूरी
कल फिर नभ भाल को
बहुत ही सुंदर.....सादर नमस्कार आप को