Thursday, 29 November 2018

आवाज शमा की

आवाज शमा की

आवाज दी शमा ने ओ परवाने
            तूं क्यों नाहक जलता है।

           मेरी तो नियति ही जलना
           तूं क्यों मुझसे लिपटता है  ।
           परवाना कहता आहें भर ,
           तेरी नियति मेरी फितरत
         जलना दोनो की ही किस्मत
             तूं  तो  रहती जलती है
         मै तुझ से पहले बुझ जाता हूं।
 
       आवाज दी शमा ने ओ परवाने
            तूं क्यों नाहक जलता है।
     
   मैं तो जलती जग रौशन करने,
         तूं क्या देता दुनिया को
   बस नाहक जल जल मरता है !
      तूं जलती जग के खातिर
      जग तुझ को क्या  देता है
    बस खुद  को खो देती हो तो
          काला धब्बा रहता है ।
 
   आवाज दी शमा ने ओ परवाने
          तूं क्यों नाहक जलता है।

             मेरे फना होते ही हवा
              मेरे पंख ले जाती है
       रहती ना मेरे जलने की कोई निशानी
          बस इतनी सी मेरी तेरी कहानी है ।
          बस इतनी सी मेरी तेरी कहानी है।

                  कुसुम कोठारी ।

Tuesday, 27 November 2018

चाँदनी का श्रृंगार


      चाँदनी का श्रृंगार

      निर्मेघ नभ पर चाँद,
      विभा सुधा बरसा रहा
     तारों के  दीपों से नीलम
      व्योम झिलमिला रहा।

      निर्मल कौमुदी छटा से
        विश्व ज्यों नहा रहा
       पुष्प- पुष्प पर मंजुल
       वासंती मद तोल रहा।

      सरित, सलिल मुकुल,
       मधुर स्वर बोल रहा
      कानों में जैसे  सुमधुर
      अमृत रस घोल रहा।

    विधु का  वैभव  स्वतंत्र
     वल्लरियों पर झूम रहा
     चातकी पर मोहित हो
    विटप का मुख चूम रहा।

            कुसुम कोठारी।
कौमुदी=चांदनी,  मुकुल =दर्पण, वल्लरी =लता

Monday, 26 November 2018

एक नादानी

एक नादानी (काव्य कथा)

कहीं  एक तलैया के किनारे
एक छोटा सा आशियाना
फजाऐं  महकी महकी
हवायें  बहकी बहकी
समा था मदहोशी  का
हर आलम था खुशी का
न जगत की चिंता
ना दुनियादारी का झमेला
बस दो जनों का जहान था
वह जाता शहर लकड़ी बेचता
कुछ जरूरत का सामान खरीदता
लौट घर को आता
वह जब भी जाता
वह पीछे से कुछ बैचेन रहती
जैसे ही आहट होती
उस के पदचापों की
वह दौड द्वार खोल
मधुर  मुस्कान लिये
आ खडी होती
लेकर हाथ से सब सामान
एक गिलास  में पानी देती
गर्मी  होती तो पंखा झलती
हुलस हुलस सब बातें  पूछती
सुन कर शहर की रंगीनी
उड कर पहुंचती उसी दायरे में
जीवन बस सहज बढा जा रहा था
एक दिन जिद की उसने भी
साथ चलने की
उसने लाख रोका न मानी
दोनो चल पडे
शहर में खूब मस्ती की
चाट, झूले, चाय-पकौड़े
स्वतंत्र  सी औरतें
उन्मुक्त इधर उधर उडती
बस वही मन भा गया
मन शहर पर आ गया
नही रहना उस विराने में
इसी नगर में रहना
था प्रेम अति गहरा
पति रोक न पाया
उसे लेकर शहर आया
किसी ठेकेदार को सस्ते में
गांव का मकान बेचा
शहर में कुछ खरीद न पाया
किराये पर एक कोठरी भर आई
हाथ में धेला न पाई
काम के लिये भटकने लगा
भार ठेला जो मिलता करता
पेट भरने जितना भर
मुश्किल  से होता
फिर कुछ संगत बिगडी
दारू की लत लगी
अब करता ना कमाई
भुखा पेट, पीने को चाहिऐ पैसा
पहले तूं-तूं  मैं-मैं  फिर हाथा पाई
आखिर वो मांजने लगी बरतन
घर घर में भरने लगी पानी
जो अपने घर की थी रानी
अपनी नादानी से बनी नौकरानी
ना वो मस्ती  के दिन रात
और आँख में था पानी
ये एक छोटी नादान कहानी।

        कुसुम कोठारी ।

Friday, 23 November 2018

गुमगश्ता रुमानियत

गुमगश्ता रुमानियत

फूल दिया किये उनको खिजाओं में भी
पत्थर दिल निकले फूल ले कर भी ।

रुमानियत की बातें न कर ए जमाने
अज़ाब ए गिर्दाब में गुमगश्ता है जिंदगी भी।

संगदिलों से कैसी परस्ती ए दिल
वफा न मिलेगी जख्म ए ज़बीं पा के भी।
 
चाँद तारों की तमन्ना करने वाले सुन
जल्वा ए माहताब को चाहिये फलक भी।

"शीशा हो या दिल आखिर टूटता" जरुर
क्यों लगाता है जमाना फिर फिर दिल भी ।

तूफानों में उतरने से डरता है दरिया में
डूबती है कई कश्तियां साहिल पर  भी।

               कुसुम कोठारी।
(अज़ाब =दर्द, गिर्दाब =भंवर, ज़बीं =माथा, सर)

Monday, 19 November 2018

मेरी भावना ~ क्षणिकाएं

चार क्षणिकाएं ~ मेरी भावना

भोर की लाली लाई
आदित्य आगमन की बधाई

रवि लाया एक नई किरण
संजोये जो, सपने हो पूरण
पा जाऐं सच में नवजीवन

उत्साह की सुनहरी धूप का उजास
भर दे सबके जीवन मे उल्लास ।



साँझ ढले श्यामल चादर
जब लगे ओढ़ने विश्व!

नन्हें नन्हें दीप जला कर
प्रकाश बिखेरो चहुँ ओर
दे आलोक, हरे हर तिमिर

त्याग अज्ञान मलीन आवरण
पहन ज्ञान का पावन परिधान ।



मानवता भाव रख अचल
मन में रह सचेत प्रतिपल

सह अस्तित्व ,समन्वय ,समता ,
क्षमा ,सजगता और परहितता
हो रोम रोम में संचालन

हर प्राणी पाये सुख,आनंद
बोद्धित्व का हो घनानंद।



लोभ मोह जैसे अरि को हरा
दे ,जीवन को समतल धरा

बाह्य दीप मालाओं के संग
प्रदीप्त हो दीप मन अंतरंग
जीवन में जगमग ज्योत जले

धर्म ध्वजा सुरभित अंतर मन
जीव दया का पहन के वसन

          कुसुम कोठारी ।

Saturday, 17 November 2018

मन अतिथि

मन  अतिथि

कुहूक गाये कोयलिया
सुमन खिले चहुँ ओर
पपीहा मीठी राग सुनाये
नाच उठे मन मोर  ।

मन हुवा मकरंद आज
हवा सौरभ ले गई चोर
नव अंकुर लगे चटकने
धरा का खिला हर पोर।

द्वारे आया कौन अतिथि
मन में हर्ष हिलोल
ऐसे बांध ले गया मन
स्नेह बाटों में तोल।

मन बावरा उड़ता
पहुंचा उसकी ठौर
अपने घर भई अतिथि
बैठ नयनन की कोर।

     कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 14 November 2018

बेताबियों के अब्र

बेताबियों के अब्र

बरस जा ऐ बेसुमार बेताबियों के अब्र
सागर जो रुके आंखों में अब टूटा सब्र ।

ख्वाबों में सितारों से झोली भर ली होगी
ख्वाब टूटे कि फिर झोली खाली होगी।

आसमां में फूल गर खिल भी जायेंगे
आसमां के फूल हमारे काम क्या आयेंगें।

उड़ानें थी ऊंचाइयों पे था कितना दम खम
आ गऐ धरा पे टूटी तमन्ना का लिये गम ।

                    कुसुम कोठारी।

Sunday, 11 November 2018

मन मासूम परिंदा

.               मन की गति

मन एक मासूम परिंदा
स्व उडान से घायल होता।

स्वयं भोगता अवसाद
किसीको फर्क न पडता।

कैसी धारणा बनाता
किसीके बस ना रहता।

जब भी जगती है तृष्णा
खुद ही सुलगता जाता।

अपनो से भी द्वेष पालता
स्वयं को पीड़ा पहुंचाता।

मन एक घायल परिंदा।

      कुसुम कोठारी ।

Thursday, 8 November 2018

मां मैं, मैं प्रसू, मैं धात्री

मां मैैं , मैैं प्रसू मैैं धात्री

मेरा नन्हा झूल रहा था
मेरी आस के पलने में
किसलय सा कोमल सुकुमार
फूलों जैसी रंगत
मुस्कानो के मोती लब पे
उसकी अनुगूँज अहर्निश
किलकारी में सरगम
मुठठी बांधे हाथों की थिरकन
ज्यों विश्व विजय पर जाना
प्रांजल जैसा रूप मनोहर
प्रांजल सी प्रति छाया
देख के उस के करतब
अंतस तक हरियाया
याद है मुझको वो
प्रथम स्पंदन जो अंदर
गहरे अनुराग कर पुलकित
गात को दे मधुर आभास
मै मां मै प्रसू मै धात्री
कर धारण तूझको
सृष्टि भाल सुशोभित
नील मणि सम गर्वित
चंद्र कला सी बढती शोभा
ब्रह्मा स्वरुप विश्व सृजक
पहला पदार्पण एक सिहरन
अशक्त नाजुक देह कंपित
निर्बोध डरा सा मन बेताब
प्रथम क्रंदन, मां की मुस्कान
हल्की महक मां की परिचित
और सब अंजान,
मां ने पाया नव जीवन औ'
विधाता से अप्रतिम वरदान।

        कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 7 November 2018

बरखा की विदाई

बरखा की विदाई

बरखा ने ली विदाई
आया शरद सुखदाई
साफ निलाम्बर खोले
अपनी गठरी
हीरकणी से बिखेरे
तारे मनोहारी
नदिया ने भी की गति मद्दम
सरसों फूली
हरित पीत अवनी
सुंदर सरस मनभावन
दादुर मौन, पपीहा हर्षित
स्वागत शरद! सदा सुखदाई !!

        कुसुम कोठरी ।

Tuesday, 6 November 2018

दीपमालिका

शुभ दीपमालिका

दीप मालिका दीप ज्योति संग
भर-भर खुशीयां लाई
नवल ज्योति की पावन आभा 
प्रकाश पुंज ले आई
प्रज्वलित करने मन प्रकाश को
दीपशिखा लहराई
पुलकित गात,मुदित उर बीच
ज्यों स्नेह धारा बह आई
अमावस के अंधियारे पे
दीप  चांदनी  छाई
मन तारों ने झंकृत हो
गीत  बधाई  गाई
चहूं और उल्लास प्रदिप्त
घर-घर खुशियां छाई
मन मयूर कर नृतन कहे
लो दीप मालिका आई ।

    कुसुम कोठारी ।

Thursday, 1 November 2018

मन की गति विरला ही जाने

मन की गति विरला ही जाने

एकाकीपन अवलंबन ढूंढता
और एकांत में वास शांति का
जो जो  एकांत में है उतरता
उद्विग्नता पर विजय है पाता ।

बिना सहारा लिये किसी के
वो महावीर, गौतम बन जाता
जगत नेह का स्वरुप है छलना
पाने की चाहत में और उलझना।

प्रिय के नेह को मन अकुलाता
मिलते ही वहीं उलझा जाता
और उसी में बस सुख  पाता
ना मिले तो रोता भरमाता।

मन का बोध अति मुश्किल
विकल, विरल ओ विचलित
अदम्य प्यास जो आज होती
कल वितृष्णा बन है खोती ।

मन की गति विरला ही जाने ।

                  कुसुम कोठारी ।