Thursday, 1 November 2018

मन की गति विरला ही जाने

मन की गति विरला ही जाने

एकाकीपन अवलंबन ढूंढता
और एकांत में वास शांति का
जो जो  एकांत में है उतरता
उद्विग्नता पर विजय है पाता ।

बिना सहारा लिये किसी के
वो महावीर, गौतम बन जाता
जगत नेह का स्वरुप है छलना
पाने की चाहत में और उलझना।

प्रिय के नेह को मन अकुलाता
मिलते ही वहीं उलझा जाता
और उसी में बस सुख  पाता
ना मिले तो रोता भरमाता।

मन का बोध अति मुश्किल
विकल, विरल ओ विचलित
अदम्य प्यास जो आज होती
कल वितृष्णा बन है खोती ।

मन की गति विरला ही जाने ।

                  कुसुम कोठारी ।

10 comments:

  1. प्रिय के नेह को मन अकुलाता
    मिलते ही वहीं उलझा जाता
    और उसी में बस सुख पाता
    ना मिले तो रोता भरमाता। बहुत सही कहा आपने बहुत सुंदर और सटीक रचना सखी

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    1. आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया से मन को खुशी और उत्साह मिलता है।
      सदा स्वागत है।

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  2. बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना आदरणीया

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    1. बहुत बहुत आभार अभिलाषा बहन।

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  3. मन का बोध अति मुश्किल
    विकल, विरल ओ विचलित
    अदम्य प्यास जो आज होती
    कल वितृष्णा बन है खोती ।


    क्या बात हैं।
    ग़ज़ब

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    1. सादर आभार आदरणीय,
      सक्रिय विस्तृत प्रतिक्रिया के लिये ।

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  4. बहुत ही उम्दा...बहुत ही सुन्दर रचना

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    1. आभार सखी आपके आने से रचना संवर जाती है

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  5. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है. https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2018/11/94.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

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    1. जी सादर आभार मै अवश्य आऊंगी।

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