Monday, 29 October 2018

पाती आई प्रेम की


पाती
पाती  आई  प्रेम  की
आज  राधिका नाम
श्याम पीया को आयो संदेशो
हियो हुलसत जाय
अधर छाई मुस्कान सलोनी
नैना नीर बहाय
एक क्षण भी चैन पड़त नाही
हिय उड़ी उडी जाय
जाय बसुं उस डगर जासे
आये नंद कुमार
राधा जी मन आंगने
नौबत बाजी जाय
झनक झनक पैजनिया खनके
कंगन गीत सुनाय
धीर परत नही मन में
पांख होतो उडी जाय
जाय बसे कान्हा के
नैनन सारा जग बिसराय।

      कुसुम कोठारी।

Tuesday, 23 October 2018

शरद स्वागतोत्सुक मंयक

शरद स्वागतोत्सुक मंयक

धवल ज्योत्सना पूर्णिमा की
अंबर रजत चुनर ओढ मुखरित
डाल डाल चढ़ चंद्रिका  डोलत
पात  पात पर  रमत  चंदनिया
तारक दल  सुशोभित  दमकत
नील कमल पर अली डोलत यूं
ज्यों श्याम मुखारविंद काले कुंतल
गुंचा महका ,  मलय  सुवासित
चहुँ और उजली किरण सुशोभित
नदिया  जल चांदी  सम चमकत
कल छल कल मधुर राग सुनावत
हिम गिरी  रजत  सम  दमकत
शरद स्वागतोत्सुक मंयक की
आभा अपरिमित सुंदर श्रृंगारित
शोभा न्यारी अति भारी सुखकारी।
               कुसुम कोठारी ।

Sunday, 21 October 2018

बादलों की डोलची

बादलों की डोलची

नीलम सा नभ उस पर खाली डोलची लिये
स्वच्छ बादलों का स्वच्छंद विचरण
अब  उन्मुक्त  हैं कर्तव्य  भार से
सारी सृष्टि  को जल का वरदान
 मुक्त हस्त दे आये सहृदय
अब बस कुछ दिन यूंही झूमते घूमना
चाँद  से अठखेलियां,हवा से होड
नाना नयनाभिराम  रूप मृदुल, श्वेत
चाँद  की चांदनी में चांदी सा चमकना
उड उड यहां वहां बह जाना फिर थमना
धवल शशक सा आजाद  विचरन करना
कल फिर शुरू करना है कर्म पथ का सफर
फिर  खेतों में खलिहानों में बरसना
फिर पहाडों पे , नदिया पे गरजना
मानो धरा को सींचने स्वयं न्योछावर होना।

               कुसुम कोठारी।

Saturday, 20 October 2018

वजह क्या थी


वजह क्या थी !!

मिसाल कोई मिलेगी 
उजडी बहार में भी 
उस पत्ते सी,
जो पेड़ की शाख में 
अपनी हरितिमा लिये डटा है 
अब भी। 
हवाओं  की पुरजोर कोशिश 
उसे उडा ले चले संग अपने 
कहीं खाक में मिला दे ,
पर वो जुडा था पेड के स्नेह से,
डटा रहता हर सितम सह कर
पर यकायक वो वहां से 
टूट कर उड चला हवाओं के संग, 
वजह क्या थी ?
क्योंकि पेड़ बोल पड़ा उस दिन
मैने तो प्यार से पाला तुम्हे,
क्यों यहां शान से इतराते हो
मेरे उजड़े हालात का उपहास उड़ाते हो,
पत्ता कुछ कह न पाया  
शर्म से बस अपना बसेरा छोड़ चला, 
वो अब भी पेड के कदमों में लिपटा है,
पर अब वो सूखा बेरौनक हो गया
साथ के सूखे पुराने पत्तों जैसा 
उदास, 
पेड की शाख पर वह
कितना रूमानी था ।

                कुसुम कोठारी।



Thursday, 18 October 2018

उतरा मुलम्मा सब बदरंग

उतरा मुलम्मा सब बदरंग

वक्त बदला तो संसार ही बदला नजर आता है
उतरा मुलम्मा फिर सब बदरंग नजर आता है।

दुरूस्त ना की कस्ती और डाली लहरो में
फिर अंजाम ,क्या हो साफ नजर आता है।

मिटते हैं आशियाने मिट्टी के ,सागर किनारे
फिर क्यो बिखरा ओ परेशान नजर आता है।

ख्वाब कब बसाता है गुलिस्ता किसीका
ऐसा  उजड़ा कि बस हैरान नजर आता है।

                  कुसुम कोठारी ।

Monday, 15 October 2018

दामन में चाँद

दामन में चाँद

अंधेरों से डर कैसा अब, मैने चाँद थामा दामन में
चांदनी बिखरी मेरे आंगन में,मैने चाँद थामा दामन में ।

उजाले लेने बसेरा आये मेरे द्वारे, नयनों में डेरा डाला
पलकें मूंद रखा अंखियन में, मैने चाँद थामा दामन में ।

हर शाख पर डोलत डोलत थका हारा सा चन्द्रमा
आया मुझसे लेने आसरा, मैने चाँद थामा दामन में ।

उर्मियां चंचल चपल सी डोलती पुर और उपवन में
घबराई ढूंढती शशि को आई, मैने चाँद थाम दामन में।

आमावस्या का ना रहा नामोनिशान अब जीवन में
किरणों का वास मुझ गृह में,मैने चाँद थामा दामन में  ।
                      कुसुम कोठारी ।

Saturday, 13 October 2018

उलझन और उलझती जाये

उलझन और उलझती जाये

शांत निर्झरिणी में गर कंकर मारो
दो क्षण विचलित हो ,
फिर शांत हो जाती है ।
मन के शांत सरोवर में
चोट अगर कोई लग जाये
व्याकुल हो मन बावरा ,
स्वयं को ही न समझ पाये
धागे सोचों के बल खाये
जितनी भी चाहें सुलझाओ
उलझन और उलझती जाये ।
पर ऐसे में भी अक्सर ,
अपने अस्तित्व का अहसास,
सदा सुखद सा लगता है
सच मन ही तो है,
मन की थाह कहाँ कोई पाये ।

          कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 10 October 2018

मुस्कान के मोती

मुस्कान के मोती

जब दिल की मुंडेर पर
अस्त होता सूरज आ बैठता है
श्वासों में कुछ मचलता है
कुछ यादें छा जाती,
सुरमई सांझ बन
जहाँ हल्का धुंधलका
हल्की रोशनी
कुछ उड़ते बादल मस्ती में
डोलते मनोभावों जैसे
हवाके झोंके
सोया एहसास जगाते
होले होले बेकरारियों को
थपकी दे सुलाते
मन गगन पर वो उठता चांद
रोशनी से पूरा आंगन जगमगा देता
मन दहलीज पर
मोती चमकता मुस्कान का
फिर नये ख्वाब लेते अंगड़ाई
होले - होले
जब दिल की.........
                      कुसुम कोठारी ।

Tuesday, 9 October 2018

मुदित मन स्वागत मां

मुदित मन स्वागत मां

बरखा अब विदाई के
अंतिम सोपान पर आ खडी है
विदा होती दुल्हन के
सिसकियों के हिलोरों सी
दबी दबी सुगबुगाहट लिये।

शरद ने अभी अपनी
बंद अटरिया के द्वार
खोलने शुरू भी नही किये
मौसम के मिजाज
समझ के बाहर उलझे उलझे।

मां दुर्गा भी उत्सव का
उपहार लिये आ गईं धरा पे
चहुँ और नव निकेतन
नव धाम सुसज्जित
आवो करें स्वागत मुदित मन से।

                      कुसुम कोठारी।

Monday, 8 October 2018

उलझन से निकलो

उलझन से निकलो

मन की अगणित परतों मे दबी ढकी आग
कभी सुलगती कभी मद्धम कभी धीमी फाग।

यूं न जलने दो नाहक इस तेजस अनल को
सेक लो हर लौ पर जीवन के पल-पल को।

यूं न बनाओ निज के अस्तित्व को नीरस
पकालो आत्मीयता की मधुर पायस।

गहराई तक उतर के देखो सत्य का दर्पण
निज मन की कलुषिता का कर दो  तर्पण ।

बस उलझन का कोहरा ढकता उसे कुछ काल
मन मंथन का गरल पी शिव बन, उठा निज भाल।

                   कुसुम कोठारी।

Friday, 5 October 2018

कैसा तिलिस्म विधु का

ये रजत बूंटों से सुसज्जित नीलम सा आकाश
ज्यों निलांचल पर हिरकणिका जडी चांदी तारों में

फूलों  ने भी पहन लिये हैं वस्त्र किरण जाली के
आई चंद्रिका इठलाती पसरी बिस्तर पे लतिका के

विधु का कैसा रुप मनोहर तारों जडी पालकी है
छूता निज चपल चांदनी से सरसी हरित  धरा को है

स्नान करने उतरा हो ज्यों निर्मल शांत झील में
जाते जाते छोड़ गया कुछ अंश अपना पानी में

ये रात है या सौगात है अनुपम  कोई कुदरत की
जादू जैसा तिलिस्म फैला सारे  विश्व आंगन में

              कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 3 October 2018

बैकुंठ में कश्मीर

बैकुंठ में रच दो कश्मीर

क्यों न रमने आते प्रभु तुम
इस अतुलित आंगन में
क्या कैद कर दिया है तुम को
तेरे ही मानव ने
एक बार उतर के आओ
फिर फिर तुम आवोगे
मंदिर और शिवालों से
ज्यादा आनंद पावोगे
अपनी बनाई रचना क्या
कभी न तुम को लुभाती
क्या कभी मां लक्ष्मी भी
आने की चाह दिखाती
एक बार आऐगी
तो संकट तूझ पर आयेगा
बैकुंठ में रच दो कश्मीर
जब ऐसा हट मचाऐगी
क्यों न रमने आते प्रभु तुम..

          कुसुम कोठरी ।

Monday, 1 October 2018

गांधी, आजादी और आज का भारतीय

गांधी जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं

राष्ट्रपिता को संबोधन , क्षोभ मेरे मन का :-

बापू कहां बैठे हो आंखें छलकाये
क्या ऐसे भारत का सपना था?
बेबस बेचारा पस्त थका - थका
इंसानियत सिसक रही
प्राणी मात्र निराश दुखी
गरीब कमजोर निःसहाय
हर तरफ मूक हाहाकार
कहारती मानवता,
झुठ फरेब
रोता हुवा बचपन,
डरा डरा भविष्य
क्या इसी आजादी का
चित्र बनाया था
अब तो छलकाई
आंखों से रो दो
जैसे देश रो रहा है।

कुसुम कोठारी।

आज दो अक्टूबर, मेरे विचार में गांधी।

मैं किसी को संबोधित नही करती बस अपने विचार रख रही हूं, प्रथम! इतिहास हमेशा समय समय पर लिखने वाले की मनोवृत्ति के हिसाब से बदलता रहा है, कभी इतिहास को प्रमाणिक माना जाता था आज इतिहास की प्रमाणिकता पर सबसे बड़ा प्रश्न चिंह है।
रही महापुरुषों पर आक्षेप लगाने की तो हम (हर कुछ भी लिखने वाला बिना सोचे) आज यही कर रहे हैं, चार पंक्तियाँ में किसी को भी गाली निकाल कर पढने वालों को भ्रमित और दिशा हीन कर अपने को तीस मार खाँ समझते हैं, ज्यादा कुछ आनी जानी नही, बस कुछ भी परोसते हैं, और अपने को क्रांतिकारी विचार धारा वाला दिखाते हैं, देश के लिये कोई कुछ नही कर रहा, बस बैठे बैठे समय बिताने का शगल।

हम युग पुरुष महात्मा गाँधी को देश का दलाल कहते हैं, जिस व्यक्ति ने सारा जीवन देश हित अर्पण किया,
सोच के बताओ देश को बेच कर क्या उन्होंने महल दो महले बनवा लिये, या अपनी पुश्तों के लिये संपत्ति का अंबार छोड गये, एक धोती में रहने वाले ने अपने आह्वान से देश को इस कौने से उस कौने तक जोड दिया, देश एक जुट हुवा था तो एक इसी व्यक्तित्व के कारण उस नेता ने देश प्रेम की ऐसी लहर चलाई थी कि हर गली मुहल्ले मे देश हित काम करने वाले नेता पैदा हुवे और अंग्रेजों से विरोध की एक सशक्त लरह बनी, हर तरफ अंदर से विरोध सहना अंग्रेजों के वश में नही रहा, और जब उनके लिऐ भारत में रूकना असंभव हो गया।

कहते हैं, वो चाहते तो भगतसिंह की फांसी रूकवा सकते थे ऐसा कहने वालो की बुद्धि पर मुझे हंसी आती है, जैसे कानून उनकी बपोती था? वो भी अंग्रेजी सत्ता में, और वो अपनी धाक से रूकवा देते, ऐसा संभव है तो हम आप करोड़ों देशवासी मिल कर निर्भया कांण्ड में एक जघन्य आरोपी को सजा तक नही दिला सके कानून हमारा देश हमारा और हम लाचार  हैं याने हम जो न कर पायें वो लाचारी और उन से जो न हो पाया वो अपराध अगर दो टुकड़े की शर्त पर भी आजादी मिली तो समझो सही छुटे वर्ना न जाने और कब तक अंग्रेजों के चुगल में रहते
और बाद मे देश को टुकड़ो में तोड़ ते रहते पहले भी राजतंत्र मे देश टुकड़ो मे बंटा सारे समय युद्ध में उलझा रहता था कुछ करने की ललक है तो आज भी देश की अस्मिता को बचाने का जिम्मा उठाओ कुछ तो कर दिखाओ सिर्फ हुवे को कब तक कोसोगे
जितना मिला वो तो अपना है उसे तो संवारो।
रही आज की बात तो हर बार यही होता है बातें करने और देश चलाने मे जमीन आसमान का फर्क होता है, संविधान के अंतर्गत कानून के तहत ही महत्वपूर्ण निर्णय लिये जा सकते है कोई अराजकता है, जो प्रधान नायक कुछ भी निर्णय ले और फौजी शासन की तरह थोप दे! हर क्षेत्र में।
संविधान की किसी भी धारा में संशोधन के लिये काफी समय लगता है, कोई खेल नही है, जो होना है होगा, तो कानून और संविधान के अंतर्गत, चाहे वो कानून कभी बने हो और उन के पीछे क्या उद्देश्य रहे हो, पर आज उन मे आमूलचूल परिवर्तन के लिए कफी जद्दोजहद करनी होती है।

मैं अहिंसा की समर्थक हूं, पर मै भी हर अन्याय के विरुद्ध पुरी तरह क्रांतिकारी विचार धारा रखती हूं, मैं सभी क्रांतिकारियों को पूर्ण आदर और सम्मान के साथ आजादी प्राप्ति का महत्वपूर्ण योगदाता मानती हूं।

पर गांधी को समझने के लिये एक बार गांधी की दृष्टि से गांधी को देखिये जिस महा मानव ने जादू से नही अपनी मेहनत, त्याग, देश प्रेम, अहिंसा और दृढ़ मनोबल से सारे भारत को एक सूत्र मे बांधा था भावनाओं से, ना कि डंडे से, और जो  ना उससे पहले कभी हुवा ना बाद में।
मै कहीं भी किसी पार्टी के समर्थन और विरोध में नही बल्कि एक चिंतन शील भारतीय के नाते ये सब लिख रही हूं।
कुसुम कोठारी 

जय हिंद।।