Sunday, 21 October 2018

बादलों की डोलची

बादलों की डोलची

नीलम सा नभ उस पर खाली डोलची लिये
स्वच्छ बादलों का स्वच्छंद विचरण
अब  उन्मुक्त  हैं कर्तव्य  भार से
सारी सृष्टि  को जल का वरदान
 मुक्त हस्त दे आये सहृदय
अब बस कुछ दिन यूंही झूमते घूमना
चाँद  से अठखेलियां,हवा से होड
नाना नयनाभिराम  रूप मृदुल, श्वेत
चाँद  की चांदनी में चांदी सा चमकना
उड उड यहां वहां बह जाना फिर थमना
धवल शशक सा आजाद  विचरन करना
कल फिर शुरू करना है कर्म पथ का सफर
फिर  खेतों में खलिहानों में बरसना
फिर पहाडों पे , नदिया पे गरजना
मानो धरा को सींचने स्वयं न्योछावर होना।

               कुसुम कोठारी।

12 comments:

  1. बहुत सुंदर भाव है इस रचना के सखी

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    1. आपका स्नेह है सखी,
      सस्नेह आभार ।

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  2. बेहतरीन रचना कुसुम दी 🙏

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    1. सस्नेह आभार अभिलाषा बहन ।

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  3. कर्म पथ तो यही है बादलों का ...
    स्वयं को मिटा देना किसी के प्रेम या कर्तव्य की ख़ातिर ...
    बहुत सुंदर रचना ...

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    1. बहुत बहुत आभार नासवा जी।
      आपकी सराहना सदा लेखन को संबल देता है।

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  4. बहुत ही सुन्दर ...मनभावन सखी

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    1. बहुत बहुत आभार प्रिय सखी।

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  5. अतिसुन्दर भाव दी

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