विराट और प्रकृति।
ओ गगन के चँद्रमा , मैं शुभ्र ज्योत्सना तेरी हूँ ,
तू आकाश भाल विराजित, मैं धरा तक फैली हूँ।
ओ अक्षुण भास्कर, मै तेरी उज्ज्वल प्रभा हूँ ।
तू विस्तृत नभ आच्छादित, मैं तेरी प्रतिछाया हूँ।
ओ घटा के मेघ शयामल, मैं तेरी जल धार हूँ,
तू धरा की प्यास हर , मैं तेरा तृप्त अनुराग हूँ ।
ओ सागर अन्तर तल गहरे , मैं तेरा विस्तार हूँ,
तू घोर रोर प्रभंजन है, मैं तेरा अगाध उत्थान हूँ।
ओ मधुबन के हर सिंगार, मैं तेरा रंग गुलनार हूँ ,
तू मोहनी माया सा है, मैं निर्मल बासंती बयार हूँ।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
जो विराट है व्व भी प्रकृति का ही एक रूप है ।प्रकृति के बिना विराट नहीं और विराट के बिना प्रकृति नहीं ।
ReplyDeleteसुंदर रूपकों में बांध लिया है आपने भावों को ।
जी सही कहा आपने बहुत अच्छा लगा विस्तृत उद्गारों से रचनाकार सदा लाभान्वित होता है।
Deleteसस्नेह आभार आपका।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२०-०३-२०२१) को मनमोहन'(चर्चा अंक- ४०११) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
जी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteचर्चा मंच पर उपस्थित रहूंगी मैं
रचना का चर्चा मंच पर आना सदा सुखद अनुभूति ।
सादर सस्नेह।
बेहद खूबसूरत,आप सभी बहुत ही अच्छा लिखती है ,संगीता जी ने सही कहा, हार्दिक आभार,नमन
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ज्योति जी,आपकी विशिष्ट टिप्पणी से रचना और रचनाकार दोनों उर्जावान हुए।
Deleteसस्नेह।
आपकी कल्पना का कैनवास विराट है जहाँ बिंब और प्रतीक अपनी कलात्मकता के साथ उपस्थित हैं। ऐसी रचनाएँ बार-बार पढ़ने पर भी उन्हें पुनः पढ़ने की आतुरता बनी रहती है।
ReplyDeleteमंत्रमुग्ध करता सृजन।
सादर नमन आदरणीया दीदी।
बहुत बहुत आभार आपका, उत्साहवर्धन के साथ सुंदर विस्तृत टिप्पणी से रचना मुखरित हुई और लेखनी को नई उर्जा मिली।
Deleteसादर सस्नेह।
आपकी रचनाएं मंत्रमुग्ध कर देती है आदरणीय कुसुम जी, निशब्द हो जाती हूं..बस सादर नमन करती हूं आप को
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी आपका स्नेह सदा मेरा उत्साह वर्धन करता है।
Deleteसस्नेह।
विराट और प्रकृति!!!
ReplyDeleteप्रकृति के विस्तार की विराटता को दर्शन कराती बहुत ही उत्कृष्ट एवं लाजवाब कृति...
वाह!!!
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया सदा मेरा उत्साह वर्धन करती है ।
Deleteसस्नेह।
सृष्टि के कोटि कोटि तक पहुंचती,प्रकृति से अनुराग करती,अनुपम कृति ।
ReplyDeleteढेर सा सनेह जिज्ञासा जी आपकी मोहक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई ।
ReplyDeleteसदा स्नेह आकांक्षी।
सस्नेह।
प्राकृति के कितने ही आयाम ... कितने ही अंग ...
ReplyDeleteकितने ही छंद ... कितने ही अनछुए रँग ... बहुत ही सहज अपने इन पंक्तियों में उतार दिए हैं ... दिल में सीधे उतारते हुए ...
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (११-०७-२०२१) को
"कुछ छंद ...चंद कविताएँ..."(चर्चा अंक- ४१२२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
ओ अक्षुण भास्कर, मै तेरी उज्ज्वल प्रभा हूँ ।
ReplyDeleteतू विस्तृत नभ आच्छादित, मैं तेरी प्रतिछाया हूँ।
बहुत ही सुंदर अदभुत सृजन आदरणीय कुसुम जी,जो एक बार फिर पढ़ने का अवसर मिला ,सादर नमन आपको
हमेशा की तरह अप्रतिम !
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