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Friday, 19 March 2021

विराट और प्रकृति


 विराट और प्रकृति।


ओ गगन के चँद्रमा , मैं शुभ्र ज्योत्सना तेरी हूँ ,

तू आकाश भाल विराजित, मैं धरा तक फैली हूँ।


ओ अक्षुण भास्कर, मै तेरी उज्ज्वल प्रभा हूँ ।

तू विस्तृत नभ आच्छादित, मैं तेरी प्रतिछाया हूँ।


ओ घटा के मेघ शयामल, मैं तेरी जल धार हूँ,

तू धरा की प्यास हर , मैं तेरा तृप्त अनुराग हूँ ।


ओ सागर अन्तर तल गहरे , मैं तेरा विस्तार हूँ,

तू घोर रोर प्रभंजन है, मैं तेरा अगाध उत्थान हूँ।


ओ मधुबन के हर सिंगार, मैं तेरा रंग गुलनार हूँ ,

तू मोहनी माया सा है, मैं निर्मल बासंती बयार हूँ।


             कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

18 comments:

  1. जो विराट है व्व भी प्रकृति का ही एक रूप है ।प्रकृति के बिना विराट नहीं और विराट के बिना प्रकृति नहीं ।
    सुंदर रूपकों में बांध लिया है आपने भावों को ।

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    1. जी सही कहा आपने बहुत अच्छा लगा विस्तृत उद्गारों से रचनाकार सदा लाभान्वित होता है।
      सस्नेह आभार आपका।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२०-०३-२०२१) को मनमोहन'(चर्चा अंक- ४०११) पर भी होगी।

    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका।
      चर्चा मंच पर उपस्थित रहूंगी मैं
      रचना का चर्चा मंच पर आना सदा सुखद अनुभूति ।
      सादर सस्नेह।

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  3. बेहद खूबसूरत,आप सभी बहुत ही अच्छा लिखती है ,संगीता जी ने सही कहा, हार्दिक आभार,नमन

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    1. बहुत बहुत आभार आपका ज्योति जी,आपकी विशिष्ट टिप्पणी से रचना और रचनाकार दोनों उर्जावान हुए।
      सस्नेह।

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  4. आपकी कल्पना का कैनवास विराट है जहाँ बिंब और प्रतीक अपनी कलात्मकता के साथ उपस्थित हैं। ऐसी रचनाएँ बार-बार पढ़ने पर भी उन्हें पुनः पढ़ने की आतुरता बनी रहती है।
    मंत्रमुग्ध करता सृजन।
    सादर नमन आदरणीया दीदी।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका, उत्साहवर्धन के साथ सुंदर विस्तृत टिप्पणी से रचना मुखरित हुई और लेखनी को नई उर्जा मिली।
      सादर सस्नेह।

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  5. आपकी रचनाएं मंत्रमुग्ध कर देती है आदरणीय कुसुम जी, निशब्द हो जाती हूं..बस सादर नमन करती हूं आप को

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    1. बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी आपका स्नेह सदा मेरा उत्साह वर्धन करता है।
      सस्नेह।

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  6. विराट और प्रकृति!!!
    प्रकृति के विस्तार की विराटता को दर्शन कराती बहुत ही उत्कृष्ट एवं लाजवाब कृति...
    वाह!!!

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    1. बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया सदा मेरा उत्साह वर्धन करती है ।
      सस्नेह।

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  7. सृष्टि के कोटि कोटि तक पहुंचती,प्रकृति से अनुराग करती,अनुपम कृति ।

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  8. ढेर सा सनेह जिज्ञासा जी आपकी मोहक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई ।
    सदा स्नेह आकांक्षी।
    सस्नेह।

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  9. प्राकृति के कितने ही आयाम ... कितने ही अंग ...
    कितने ही छंद ... कितने ही अनछुए रँग ... बहुत ही सहज अपने इन पंक्तियों में उतार दिए हैं ... दिल में सीधे उतारते हुए ...

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  10. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (११-०७-२०२१) को
    "कुछ छंद ...चंद कविताएँ..."(चर्चा अंक- ४१२२)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  11. ओ अक्षुण भास्कर, मै तेरी उज्ज्वल प्रभा हूँ ।

    तू विस्तृत नभ आच्छादित, मैं तेरी प्रतिछाया हूँ।

    बहुत ही सुंदर अदभुत सृजन आदरणीय कुसुम जी,जो एक बार फिर पढ़ने का अवसर मिला ,सादर नमन आपको

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  12. हमेशा की तरह अप्रतिम !

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