Friday, 28 December 2018

छुवन हवा की

लो लहराके चली हवा

फूलों की छुवन साथ लिये
था थोड़ा बसंती सौरभ
कुछ अल्हड़ता लिये
मतंग मतवाली हवा।

लो लहराके चली हवा

सरगम दे मुकुल होठों को
तितलियों का बांकपन
किरणों के रेशमी ताने
ले मधुर गान पंछियों का।

लो लहराके चली हवा

भीना राग छेड़ तरंगिणी में
अमलतास को दे मृदुल छुवन
सांझ की लाली पर डोरे डाल
जा बैठी पर्वतों के पार।

लो लहराके चली हवा

थाम के ऊंगली मंयक की
आ बैठी मुंडेर पर
फिर बह चली आमोद में
सागर की लहरों पर नाचती।

लो लहराके चली हवा

चंदा खोया आधी रात में
डोलती तारों भरे आकाश में
तम की कालिमा हटी,
उषा की चूनर लहराई।

लो लहराके चली हवा

मार्तण्ड के घोड़े पर हो सवार
झरनों पर फिसलती
हिम का करती श्रृंगार
मानस में कलरव भरती।

लो लहराके चली हवा ।

        कुसुम कोठारी

Thursday, 27 December 2018

नव वर्ष एक सोच

नववर्ष एक सोच

नव वर्ष एक सोच
जो एक पुरे साल नही बदलता
वो एक पल में नव होता
उस एक क्षण को
पार करने में साल गुजरता
सुख, दुख ,शोक ,चिंता अवसाद
सब अडिग से रहते
बस कैलेंडर बदलता
और सब नया हो जाता !!
अंक गणित का खेल सा लगता
नव शताब्दी क्या बदला ?
और बदला तो कितना अच्छा था ?
था कुछ खुशी मनाने लायक ?
या फिर एक ढर्रा था
हर वर्ष नव वर्ष आया फिर आयेगा   
पता नही ये क्या गति जीवन की
कुछ हाथ ना पल्ले
वहीं खड़े जहां से थे चले।

जीर्ण शीर्ण हर सोच बदल दें
ये साल  खुशियों से भर दें ।

          कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 26 December 2018

निशब्द मेला बहारों का

नीरव निशा का दामन थामे देखो मंयक 
धरा को छूने आया अपनी रश्मियों से ।

मचल मचल लहरें  सागर के दिल से
दौडती है किनारो से मिलने कसक लिये
छोड कुछ हलचल फिर समाती सागर में
हवाओं में फिर से कुछ नई रवानी है
दूर क्षितिज तक फैली निहारिकाऐं
मानो कुछ कह रही है पुकार के हमें
यूं ही बिखरा निशब्द मेला बहारो का
सर्द मौसम अब समझाने लगा नये अर्थ ।

नीरव निशा का दामन थाम देखो मंयक
धरा को छूने आया अपनी किरणों  से ।
                  कुसुम कोठारी ।

Monday, 24 December 2018

जोखिम का सफर जिंदगी

जोखिम का सफर जिंदगी

जोखिम की मानिंद हो रही बसर है जिंदगी
खूबसूरत  सा  एक भंवर है जिंदगी ।

खिल के मिलना ही है धूल में जानिब नक्बत
जी लो जी भर माना खतरे की डगर है जिंदगी।

बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेजार
भीगी हुई चांदनी का शजर है जिंदगी

मिलने को तो मिलती रहे दुआ ए हयात रौशन
उसका करम है उसको नजर है जिंदगी।

माना डूबती है कश्तियां किनारों पर भी
डाल दो लहरों पे जोखम का सफर है जिंदगी ।
         
                कुसुम कोठारी ।

Friday, 21 December 2018

बिन मुस्कान

मुस्कान

बिन मुस्कान रूप लगे
ज्यों कागज के फूल
देखन में सुंदर लगे
बिन सौरभ निर्मूल।

होठ बिन मुस्कान के
ज्यों बिना चाँद के व्योम
सूने सूने  हैं लगत
ज्यों बिना पात के द्रुम।

खुशी आधी बिन मुस्कान
ज्यों बिन नीर पुष्कर
भाल न अगर मयूर पंखी
लगे अधूरे  मुरलीधर।

स्वागत फीका सा लगे
जब ना लब पर मुस्कान
बिन बिंदी दुल्हन ना सजे
बिना नीर ना भाऐ  घन।

बिन मुस्कान ओ रूपसी
ज्यों बिन ज्योति के आंख
बिन बरखा के सावन
बिन तारों के रात।

        कुसुम कोठारी।

Tuesday, 18 December 2018

मौसम आतें हैं जाते हैं

मौसम आते हैं जाते हैं

मौसम आते हैं जाते हैं
हम वहीं खड़े रह जाते हैं

सागर की बहुरंगी लहरों सा
उमंग से उठता है मचलता है
कैसे किनारों पर सर पटकता है
जीवन चक्र यूंही चलता है
मौसम आते है...

कभी सुनहरे सपनो सा साकार
कभी टुटे ख्वाबों की किरचियां
कभी उगता सूरज भी बेरौनक
कभी काली रात भी सुकून भरी
मौसम आते हैं....

कभी जाडे सा सुहाना
कभी गर्मीयों सी तपन
कभी बंसत सा मन भावन
कभी पतझर सा बिखरता
मौसम आते हैं....

कभी चांदनी दामन में भरता
कभी मुठ्ठी की रेत सा फिसलता
जिंदगी कभी  बहुत छोटी लगती
कभी सदियों सी लम्बी हो जाती
मौसम आते हैं....
              कुसुम कोठारी

Monday, 17 December 2018

नैना रे अब ना बरसना

नैना रे अब ना बरसना

शीत लहरी सी जगत की संवेदना
आँसू अपने आंखों में ही छुपा रखना ।
नैना रे अब ना बरसना।

शिशिर की धूप भी आती है ओढ़  दुशाला   
अपने ही दर्द को लपेटे है यहाँ सारा जमाना।
नैना रे अब ना बरसना।

देखो खिले खिले पलाश भी लगे  झरने
डालियों को अलविदा कह चले पात सुहाने।
नैना रे अब ना बरसना।

सलज कुसुम ओढ़ तुषार दुकूल प्रफुल्लित
प्रकृति के सुसुप्त नैसर्गिक द्रव्य है मुखलित।
नैना रे अब ना बरसना।

जो कल न कर सका उस से न हो अधीर
है जो आज उनसे कर इष्ट मुक्ता अंगीकार ।
नैना रे अब ना बरसना ।

              कुसुम कोठारी।

Sunday, 16 December 2018

सर्द का दर्द

                 सर्द का दर्द

               सर्द हवा की थाप ,
       बंद होते दरवाजे खिडकियां
   नर्म गद्दों में  रजाई से लिपटा तन
और बार बार होठों से फिसलते शब्द
            आज कितनी ठंड है!
         कभी ख्याल आया उनका
         जिन के पास रजाई तो दूर
           हड्डियों पर मांस भी नही ,
                 सर पर छत नही
           औऱ आशा कितनी बड़ी
               कल धूप निकलेगी
           और ठंड कम हो जायेगी
               अपनी भूख,बेबसी,
            औऱ कल तक अस्तित्व
               बचा लेने की लड़ाई
        कुछ रद्दी चुन के अलाव बनायें
                  दो कार्य एक साथ
              आज थोड़ा आटा हो तो
            रोटी और ठंड दोनों सेक लें ।

                        कुसुम कोठरी ।

Wednesday, 12 December 2018

सिसकती मानवता

तीन क्षणिकाएँ
सिसकती मानवता

सिसकती मानवता
कराह रही है
हर ओर फैली धुंध कैसी है
बैठे हैं एक ज्वालामुखी पर
सब सहमें से डरे डरे
बस फटने की राह देख रहे
फिर सब समा जायेगा
एक धधकते लावे में ।

जिन डालियों पर
सजा करते थे झूले
कलरव था पंछियों का
वहाँ अब सन्नाटा है
झूल रहे हैं फंदे निर्लिप्त
कहलाते जो अन्न दाता
भूमि पुत्र भूमि को छोड़
शून्य के संग कर रहे समागम।

पद और कुर्सी का बोलबाला
नैतिकता का निकला दिवाला
अधोगमन की ना रही सीमा
नस्लीय असहिष्णुता में फेंक चिंगारी
सेकते स्वार्थ की रोटियाँ
देश की परवाह किसको
जैसे खुद रहेंगे अमर सदा
हे नराधमो मनुज हो या दनुज।

            कुसुम कोठारी

Tuesday, 11 December 2018

आत्म चेतना

आत्म चेतना

स्वाध्याय का दीप प्रज्वलित कर
अज्ञान अंधकार को दूर करूं

अन्तरचक्षु  उद्धाटित कर
निज स्वरूप दर्शन करूं

सूक्ष्म का अवलोकन कर
आत्मा की पहचान करूं

पढा हुवा सब आत्मसात कर
सदआचरण व्यवहार करूं

तभी सफल हो मानव तन
सकल सौम्य आचार करूं।

        कुसुम कोठारी।

Sunday, 9 December 2018

दास्ताँ ए गम

रो रो के सुनाते रहोगे दास्ताँ ए गम
     भला कोई कब तक सुनेगा

देते रहोगे दुहाई उजड़ी जिंदगी की 
    भला कोई कब तक सुनेगा

आशियाना तुम्हारा ही तो बिखरा ना होगा
        भला कोई कब तक सुनेगा

गम से कोई जुदा कहां जमाने में
    भला कोई कब तक सुनेगा

अदम है आदमी बिन अत़्फ के
   भला कोई कब तक सुनेगा

अफ़सुर्दा रहते हो अजा़ब लिये
   भला कोई कब तक सुनेगा

आब ए आइना ही धुंधला इल्लत किसे
      भला कोई कब तक सुनेगा

गम़ख्वार कौन गैहान में आकिल है चुप्पी
     भला कोई कब तक सुनेगा ।

            कुसुम कोठारी।।

अदम =अस्तित्व हीन,  अत़्फ =दया
अफ़सुर्दा =उदास ,इल्लत =दोष
 गैहान=जमाना, आकिल =बुद्धिमानी

Friday, 7 December 2018

अप्रतिम सौन्दर्य

अप्रतिम सौन्दर्य

हिम  से आच्छादित
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
ज्यों देव पाकशाला में
पकते पकवानों की वाष्प गंध
उजालों को आलिंगन में लेती
सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ
पेड़ों पर छिटके हिम-कण
मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों
मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे
किसी धवल परी ने आंचल फैलया हो
पर्वत से निकली कृष जल धाराएँ
मानो अनुभवी वृद्ध के
बालों की विभाजन रेखा
चीङ,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार
चारों और बिखरे उतंग विशाल सुरम्य
कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े
कुछ आज भी तन के खड़े
आसमां को चुनौती देते
कल कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ
उनसे झांकते छोटे बड़े शिला खंड
उन पर बिछा कोमल हिम आसन
ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को
प्रकृति ने कितना रूप दिया  कश्मीर  को
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों  मे वर्णन असम्भव।

              कुसुम कोठारी।

   " गिरा अनयन नयन बिनु बानी "

Wednesday, 5 December 2018

लो बजी शहनाई

दूर कहीं शहनाई बजी
आहा! आज फिर किसी के
सपने रंग भरने लगे
आज फिर एक नवेली
नया संसार बसाने चली
मां ने वर्ण माला सिखाई
तब सोचा भी न होगा
चली जायेगी
जीवन के नये अर्थ सीखने
यूं अकेली
किसी अजनबी के साथ
जो हाथ न छोडती थी कभी
गिरने के डर से
वही हाथ छोड किसी
और का हाथ थाम चल पड़ी
जिसका पूरा आसमान
मां का आंचल था
वो निकल पड़ी
विशाल आसमान में
उडने, अपने पंख फैला
जिसकी दुनिया थी
बस मां के आस पास
वो चली आज एक
नई दुनिया बसाने
शहनाई बजी फिर
लो एक डोली उठी फिर।

       कुसुम कोठारी।

Monday, 3 December 2018

नव सूर्योदय नव गतिबोध

नव सूर्योदय नव गति बोध

दूर गगन ने उषा का
घूंघट पट खोला
स्वर्णिम  बाल पतंग
मुदित मन डोला
किरणों  ने बांहे फैलाई
ले अंगड़ाई
छन-छन सोई पायल
बोली, मनभाई
अलसाई सी सुबह ने
आँखे  खोली
खग अब उठ जाओ
प्यार से बोली
मधुर झीनी झीनी
बहे बयार मधु रस सी
फूलों ने निज अधर
खोले धीरे धीरे
भ्रमर गूंजार चहुँ और
सरस गूंजारित
उठ चला रात भर का
सोया कलरव
सभी चले करने
पुरीत निज कारज
आराम के बाद
ज्यों चल देता राहगीर
अविचल अविराम
पाने मंजिल फिर
यूंही सदा आती है सुबहो
फिर ढल जाने को
यूं ही सदा ढलता सूर्य
नित नई गति पाने को।

         कुसुम  कोठारी।

Saturday, 1 December 2018

ध्वनि अक्षर आवाज़

ध्वनि अक्षर आवाज।
   
  .    सारा ब्रह्माण्ड ध्वनि और
   प्रतिध्वनियों से गूंजारित रहता
       जब तक हम उन्हें न करते
        अक्षर  रूप  में  हासिल
उनका नही होता कोई स्पष्ट स्वरूप
 अक्षर दे सुनाई  तो आवाज बनते
    ढलते ही स्याही में शब्द बनते
    अलंकृत होते तो काव्य बनते
       लय बद्ध हो तो गीत बनते
     गुनगुनाने लगे तो गजल बनते
   और वही अक्षर कराने लगे बोध
        आत्मा एंव अध्यात्म का
       तो भजन और शास्त्र बनते।
             
                 कुसुम कोठारी।