Monday, 3 December 2018

नव सूर्योदय नव गतिबोध

नव सूर्योदय नव गति बोध

दूर गगन ने उषा का
घूंघट पट खोला
स्वर्णिम  बाल पतंग
मुदित मन डोला
किरणों  ने बांहे फैलाई
ले अंगड़ाई
छन-छन सोई पायल
बोली, मनभाई
अलसाई सी सुबह ने
आँखे  खोली
खग अब उठ जाओ
प्यार से बोली
मधुर झीनी झीनी
बहे बयार मधु रस सी
फूलों ने निज अधर
खोले धीरे धीरे
भ्रमर गूंजार चहुँ और
सरस गूंजारित
उठ चला रात भर का
सोया कलरव
सभी चले करने
पुरीत निज कारज
आराम के बाद
ज्यों चल देता राहगीर
अविचल अविराम
पाने मंजिल फिर
यूंही सदा आती है सुबहो
फिर ढल जाने को
यूं ही सदा ढलता सूर्य
नित नई गति पाने को।

         कुसुम  कोठारी।

6 comments:

  1. ज्यों चल देता राहगीर
    अविचल अविराम
    पाने मंजिल फिर
    यूंही सदा आती है सुबहो
    फिर ढल जाने को बहुत ही बेहतरीन रचना सखी

    ReplyDelete
    Replies
    1. सस्नेह आभार सखी।
      आपका स्नेह सदा उत्साह वर्धन करता है।

      Delete
  2. वाह! बहुत खुबसूरत रचना!!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर आभार आदरणीय विश्व मोहन जी ।
      आपकी प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।

      Delete
  3. Replies
    1. सस्नेह आभार प्रिय सखी ।

      Delete