Wednesday, 26 December 2018

निशब्द मेला बहारों का

नीरव निशा का दामन थामे देखो मंयक 
धरा को छूने आया अपनी रश्मियों से ।

मचल मचल लहरें  सागर के दिल से
दौडती है किनारो से मिलने कसक लिये
छोड कुछ हलचल फिर समाती सागर में
हवाओं में फिर से कुछ नई रवानी है
दूर क्षितिज तक फैली निहारिकाऐं
मानो कुछ कह रही है पुकार के हमें
यूं ही बिखरा निशब्द मेला बहारो का
सर्द मौसम अब समझाने लगा नये अर्थ ।

नीरव निशा का दामन थाम देखो मंयक
धरा को छूने आया अपनी किरणों  से ।
                  कुसुम कोठारी ।

12 comments:

  1. मचल मचल लहरें सागर के दिल से
    दौडती है किनारो से मिलने कसक लिये
    बहुत सुंदर रचना सखी

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया सखी आपका स्नेह पा रचना सार्थक हुई।

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  2. यूं ही बिखरा निशब्द मेला बहारो का
    सर्द मौसम अब समझाने लगा नये अर्थ ।
    वाह!! बहुत खूब !!

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    1. मीना जी बहुत सा स्नेह आपकी प्रतिक्रिया पा मन प्रसन्न होता है।
      सस्नेह।

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  3. बेहद प्यारी रचना .............. स्नेह

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    1. सस्नेह आभार कामिनी जी ।

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  4. नीरव निशा का दामन थाम देखो मंयक
    धरा को छूने आया अपनी किरणों से ।...मनोहारी बिम्ब!

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    1. बहुत सा आभार विश्व मोहन जी आपको रचना पंसद आई लेखन सार्थक हुवा ।
      सादर

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  5. Bahut sundar rachna ... Badhai sakhi

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  6. नीरव निशा का दामन थाम देखो मंयक
    धरा को छूने आया अपनी किरणों से. ....बहुत ख़ूब 👌

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    1. ढेर सा आभार उत्साह वर्धन के लिये ।
      सस्नेह।

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