Tuesday, 30 July 2019

मुंशी प्रेमचंद


युग प्रवर्तक ,साहित्य शिरोमणि,
आधुनिक हिंदी कहानी के पितामह, उपन्यास सम्राट
मुंशी प्रेमचंद।
अगर आपके पास थोडा भी हृदय है तो क्या मजाल की मुंशी जी की कृतियां आपकी आंखे ना भिगो पाये, जीवन के विविध रूपों के हर पहलूओं पर उन्होंने जो चित्र उकेरे हैं वो विलक्षण है ।
उन्होंने कथा ,उपन्यासों को मनोरंजन,तिलिस्म और फंतासी से बाहर निकाल सीधे यथार्थ के धरातल पर खडा कर दिया । यथार्थ भी ऐसा जिससे आभिजात्य कहलाने वाला वर्ग अनजान था या कन्नी काट रहा था ।
उनकी रचनाओं में दर्द ऐसे उभर कर आता है कि सारे बदन में सिहरन भर देता है, इस कठोर सत्य को पढने में भी उकताहट  कहीं हावी नही होती, रोचकता से  प्रवाह में बहता लेखन ,सहज व्यंग और हल्का हास्य का पुट पाठक को बांधे रखता है ।
उन्होनें आम व्यक्ति की समस्याओं भावनाओं और परिस्थितियों का इतना मार्मिक वर्णन किया है कि यह कह सकते हैं उनका साहित्य संसार, हिन्दुस्तान के सबसे विशाल तबके का  संसार है।
प्रेम चंद का साहित्य का महत्व भारत में ही नही विदेशों में भी समादृत है।

कुसुम कोठारी।

Saturday, 27 July 2019

सीप की वेदना

सीप की वेदना

हृदय में लिये बैठी थी
एक आस का मोती,
सींचा अपने वजूद से,
दिन रात हिफाजत की
सागर की गहराईयों में,
जहाँ की नजरों से दूर,
हल्के-हल्के लहरों के
हिण्डोले में झूलाती,
सांसो की लय पर
मधुरम लोरी सुनाती,
पोषती रही सीप
अपने हृदी को प्यार से,
मोती धीरे धीरे
शैशव से निकल
किशोर होता गया,
सीप से अमृत पान
करता रहा तृप्त भाव से,
अब "यौवन" मुखरित था
सौन्दर्य चरम पर था,
आभा ऐसी की जैसे
दूध में चंदन दिया घोल,
एक दिन सीप
एक खोजी के हाथ में
कुनमुना रही थी,
अपने और अपने अंदर के
अपूर्व को बचाने,
पर हार गई उसे
छेदन भेदन की पीडा मिली,
साथ छूटा प्रिय हृदी का ,
मोती खुश था बहुत खुश
जैसे कैद से आजाद,
जाने किस उच्चतम
शीर्ष की शोभा बनेगा,
उस के रूप पर
लोग होंगे मोहित,
प्रशंसा मिलेगी,
हर देखने वाले से ,
उधर सीपी बिखरी पड़ी थी
दो टुकड़ों में
कराहती सी रेत पर असंज्ञ सी,
अपना सब लुटा कर,
वेदना और भी बढ़ गई
जब जाते-जाते
मोती ने एक बार भी
उसको देखा तक नही,
बस अपने अभिमान में
फूला चला गया,
सीप रो भी नही पाई,
मोती के कारण जान गमाई,
कभी इसी मोती के कारण
दूसरी सीपियों से
खुद को श्रेष्ठ मान लिया,
हाय क्यों मैंने
स्वाति का पान किया।

         कुसुम कोठारी।

Wednesday, 24 July 2019

कारगिल विजय

कारगिल दिवस पर सैनिकों को समर्पित

वीर ! देश के गौरव हो तुम
माटी की शान तुम ,
भूमि का अभिमान तुम
देश की आन तुम,
राह के वितान तुम।

हो शान देश की
धीर तुम गम्भीर तुम।

राहें विकट,हौसले बुलंद थे,
चीरते सागर का सीना
पांव पर्वतों पर थे,
आंधी तुम तूफान तुम
राष्ट्र की पतवार तुम।

हो शान देश की
मशाल तुम ,मिशाल तुम।

भाल को उन्नत रखा
हाथ में बारूद था,
बन के आत्माभिमानी
शीश दुश्मनों का काटा,
विजय पर लक्ष्य था ।

हो शान देश की
मान तुम गुमान तुम ।

मास दो लड़ते रहे
सीमा की ढाल तुम,
जान हाथों में रख
बने महान कर्मकर,
अर्जुन तुम कृष्ण तुम ।

हो शान देश की
विशाल तुम उन्नत भाल तुम ।

     कुसुम कोठारी ।

बरस ऋतु सावन की आई

बरस ऋतु सावन की आई

अल्हड़ शरमाती ,इठलाती ,
मेंहदी रचे हाथों में
बरसता सावन भर
मुख पर उड़ाती ,
हाथों में चेहरा छुपाती
हटे हाथ , निकला
ओस में भीगा गुलाब ।
संग सखियों के जाना
पाँव में थिरकन , हृदय है झंकृत
तार-तार मन वीणा बाजत ,
रोम-रोम हरियाली छाई
सरस ऋतु सावन की आई ।
डाल-डाल पर झुले सज गये ,
आ सखी पेग बढ़ाएं ,
रुनझुन पायलिया झनकाएं
छनक-छनक गाए ,
गीत सुनाए, जिया भरमाए
नींद चुराए ।
चारों ओर छटा मनोहर छाई
बरस ऋतु सावन की आई ।

         कुसुम कोठरी ।

Thursday, 18 July 2019

एक ग़ज़ल बना दूं

एक ग़ज़ल बना दूं

एक ग़ज़ल खूबसूरत बना दूं तो कोई बात हो
फूल आसमानों में खिला दूं तो कोई बात हो।

हवाओं में बहका - बहका सा अंदाज है
एक गीत गुनगुना दो तो कोई बात हो।

माना कमसिन हो मासूम हो खूबसूरत हो
सितारे आंचल में सजादूं तो कोई बात हो।

झरने की रवानी है आपकी पायल में
मेरे आंगन में उतर आए तो कोई बात हो।

                    कुसुम कोठारी ।

Tuesday, 16 July 2019

धरा का स्वयंवर

धरा का स्वयंवर

धरा ने आज देखो
स्वयंवर है रच्यो ।

चंद्रमल्लिका हार
सुशोभित सज्यो।

नव पल्लव नर्म उर
चूनर धानी रंग्यो।

सरस गुलाबी गात
आंख अंजन डार् यो।

मेघ हुलकत दौड़े
ज्यों नौबत बाज्यो ।

हेत सागर लहरायो
हिय उमंग भर् यो।

बूंदों संग संदेशो आयो
वसुधा धीर धर् यो।

मही के अनंग जग्यो
हर्ष अपार भय्यो ।

हवा भी हो हर्षित
पातो संग रास रच्यो ।

क्षितिज के उस पार
मिलन को नेह धर् यो ।

 कुसुम कोठारी ।

Monday, 15 July 2019

सावन अब कैसा सावन

सावन अब कैसा सावन
वारिध ने अपनी चाल ही बदल़ दी
ना वो लयबद्ध झड़ी बादलों की
ना वो बहारें,
ना वो मिट्टी की
भीनी सौंधी खुशबू
ना वो सावन के झूले
ना वो गीत लहरी
ना वो ठिठोलियां
ना ही आत्मा तक
पहुँचने वाली
कोयल की कुहुक
ना पपीहे का राग
ना जाने हम रसहीन हो गये
या समय ने सावन
ही बेरंगा कर डाला ।

      कुसुम कोठारी ।

Friday, 12 July 2019

विसंगतियां

विसंगतियां

आकर हाथों की हद में सितारे छूट जाते हैं
हमेशा ख़्वाब रातों के सुबह में टूट जाते हैं।


लुभाते हैं मंजर  हसीन वादियों के मगर
छूटते पटाखों से भरम बस टूट जाते हैं ।

चाहिए आसमां बस एक मुठ्ठी भर फ़कत
पास आते से नसीब बस रूठ जाते हैं ।

सदा तो देते रहे आमो ख़ास को  मगर
सदाक़त के नाम पर कोरा रोना रुलाते हैं।

तपती दुपहरी में पसीना सींच कर अपना
रातों को खाली पेट बस सपने सजाते हैं।
           
                  कुसुम कोठारी।

Wednesday, 10 July 2019

क्या जीत क्या हारा

क्या जीता क्या हारा

फतह तो किले किये जाते हैं
राहों को कौन जीत पाया भला
करना हो कुछ भी हासिल
कुछ खोना कुछ पाना हो
चाहे हो सिकंदर कहीं का
इन्ही राहों से जाना हो
कोई हार के,
दिल जीत गया विजेताओं के
कोई जीत के,
हार गया सम्मान आंखों से
क्या हारा क्या जीता का
हिसाब बहुत ही टेढ़ा है
जीत हार का मान दंड
सदा अलग सा होता है
सभी जीत का जश्न मनाते
हार गये तो रोता है
नादान ए इंसान हार जीत में
कितने रिश्ते खोता है
अपना दिल हार के देखो
संसार तुम पर हारेगा
महावीर ने जग हार कर
सिद्धत्व को जीत लिया
जग में कितने जीतने वालों ने
अपना मान ही हार दिया
तो क्या जीता क्या हारा
आंकलन हो बस खरा खरा।

कुसुम कोठारी।

Friday, 5 July 2019

शाम की उदासियां

.            शाम की उदासियां

           झील के शांत पानी में
   शाम की उतरती धुंधली उदासी
              कुछ और बेरंग
     श्यामल शाम का सुनहरी टुकडा
      कहीं क्षितिज के क्षोर पर पहुंच 
           काली कम्बली में सिमटता
  निशा के उद्धाम अंधकार से एकाकार हो
            जैसे पर्दाफाश करता
            अमावस्या के रंग हीन
            बेरौनक आसमान का
      निहारिकाएं जैसे अवकाश पर हो
        चांद के साथ कही सुदूर प्रांत में
ओझल कहीं किसी गुफा में विश्राम करती
     छुटपुट तारे बेमन से टिमटिमाते
        धरती को निहारते मौन
           कुछ कहना चाहते,
       शायद धरा से मिलन का
              कोई सपना हो
           जुगनु दंभ में इतराते
        चांदनी की अनुपस्थिति में
       स्वयं को चांद  समझ डोलते
            चकोर व्याकुल कहीं
       सरसराते अंधेरे पात में दुबका
          खाली सूनी आँखों में
      एक एहसास अनछुआ सा
          अदृश्य से गगन को
           आशा से निहारता
        शशि की अभिलाषा में
              विरह में जलता
               कितनी सदियों
             यूं मयंक के मय में
                 उलझा रहेगा
               इसी एहसास में
             जीता मरता रहेगा
          उतरती रहेगी कब तक
  शांत झील में शाम की उदासियां।
           
                 कुसुम कोठारी।

Monday, 1 July 2019

तुम मुझे भूल जाओ शायद

तुम मुझे भूल जाओ शायद

तुम मूझे भूल जाओ शायद पर साथ
गुजारे वो  लम्हे  क्या भूल  पाओगी
वो नीरव तट पर साथ मेरा और मचलती
लहरों का कल-छल क्या भूल पाओगी।

वो हवाओं का तेरे आंचल को छेड़ना
और मेरा अंगुलियों पर आंचल रोकना
वो नटखट घटाओं का तेरे चंद्र मुख पर
छा जाना और मेरा फिर उन्हें मोड़  देना
क्या भूल पाओगी....

मेरी कागज पर लिखी निर्जीव  गजल
गुनगुना के सजीव करना जब अपना
नाम आता तो दांतों में अंगुली दबाना
 उई मां कह रतनार हो आंख झुकाना
क्या भुला पाओगी.....

वो शर्म की लाली जो अपना ही रूप देख
साथ मेरे आईने में आती मुख पर तुम्हारे,
वो गिरते आंसुओं को रोकना हथेली पर मेरी
और तुम्हारा उन्ही हथेलियों में मुख छुपाना
क्या भूल पाओगी..

               कुसुम कोठारी ।