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Tuesday 13 December 2022

व्यंजना पीर जाई


 व्यंजना पीर जाई


पीर ही है इस जगत में

व्यंजनाओं में ढली जो

आँख से टपकी कभी वो

मन वीथिका में पली जो।।


रात के आँसू वही थे

लोक में जो ओस फैली

चाँद की भी देह सीली

व्योम की भी पाग मैली

ये हवाएँ क्यूँ सिसकती 

थरथरा कर के चली जो।।


त्रास के बादल घुमड़ते

और व्यथा से घट झरा है

वेदना की दामिनी से

शूल का भाथा भरा है

नित सुलगती ताप झेले

अध जली काठी जली जो।।


भाव मणियाँ गूँथती है 

मसी जब आकार लेती

तूलिका से पीर झांके 

लक्षणा जब थाप देती

गूढ़ मन के गोह बैठी

भावना से है छली जो।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

31 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

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  2. पीर ही है इस जगत में

    व्यंजनाओं में ढली जो

    आँख से टपकी कभी वो

    मन विथीका में पली जो।।

    हृदय स्पर्शी सृजन कुसुम जी
    बहुत दिनों बाद मैं ब्लॉग भ्रमण पर निकलीं हूं ंंआनन्द आ गया,सादर नमन आपको 🙏

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    Replies
    1. सस्नेह आभार आपका कामिनी जी।
      आपका ब्लॉग पर भ्रमण हमारा उत्साहवर्धन है।
      सस्नेह।

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 15 दिसंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 15 दिसंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    Replies
    1. जी हृदय से आभार आपका ।
      मैं पांच लिंक पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर सस्नेह।

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  5. भावपूर्ण हृदय स्पर्शी श्रेष्ठ रचना सखी, बहुत ही सुन्दर

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    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका सखी ब्लॉग पर आपका स्वागत है सदा।
      सस्नेह।

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  6. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना सखी सादर

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    Replies
    1. सस्नेह आभार आपका सखी।

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  7. वाह ! महादेवी जी की अमर रचना - 'मैं नीर भरी दुःख की बदली ---' याद आ गयी.

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    1. आपकी सराहना से मन हर्षित हुआ सर, महादेवी जी जैसा क्षणांश भी लिख पाऊं तो लेखनी धन्य होगी।
      आत्मीय आभार आपका।
      सादर।

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  8. बहुत ही सुन्दर रचना

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    Replies
    1. जी हृदय से आभार आपका।
      सादर।

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  9. रात के आँसू वही थे

    लोक में जो ओस फैली

    चाँद की भी देह सीली

    व्योम की भी पाग मैली

    ये हवाएँ क्यूँ सिसकती

    थरथरा कर के चली जो।।


    मन मोह लिया
    कलम कि जय
    जय
    जय हो

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी श्र्लाघ्य टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
      सादर आभार आपका आदरणीय।

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  10. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार २० दिसंबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
    Replies
    1. ये तो बहुत सुखद है सुधा जी मेरी रचना को पाँच लिंक पर आपके द्वारा प्रेषित करना।
      सस्नेह आभार आपका।

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  11. ये हवाएँ क्यूँ सिसकती

    थरथरा कर के चली जो।।
    वाह!!!
    अद्भुत...
    हमेशा की तरह बहुत ही लाजवाब।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी हृदय से आभार आपका सुधा जी।
      सस्नेह।

      Delete
  12. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार २० दिसंबर २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
  13. आ. कुसुम जी टिप्पणी नहीं दिख रही कृपया स्पैम देखिए न ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी स्पैम में थी निकाल दी सभी टिप्पणियां।
      सस्नेह।

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  14. भावपूर्ण अभव्यक्ति । पीर को भी खूबसूरती से बयाँ कर दिया ।

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    Replies
    1. हृदय से आभार आपका संगीता जी उत्साह वर्धन करती टिप्पणी आपकी।
      सस्नेह।

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  15. सचमुच दी आपकी लेखनी का जादू है जिससे व्यथा को भी इतनी खूबसूरती से व्यक्त किया जा सकता है।
    अत्यंत भावपूर्ण सुंदर अभिव्यक्ति।
    हर बंध बेहतरीन है।
    -------
    सादर प्रणाम दी।

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    Replies
    1. श्वेता आपकी स्नेहिल टिप्पणी से सृजन को नई गति मिलती है।
      सस्नेह आभार हृदय से।

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  16. भाव मणियाँ गूँथती है
    मसी जब आकार लेती
    तूलिका से पीर झांके
    लक्षणा जब थाप देती
    गूढ़ मन के गोह बैठी
    भावना से है छली जो।///
    भावनाएँ जब छली जाती है तभी सृजन के लिए लेखनी सक्रिय होती है।जिससे कालजयी भाव प्रवाहित होते हैं।हमेशा की तरह लाजवाब रचना प्रिय कुसंग बहन 🙏❤

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    Replies
    1. रेणु बहन आपकी प्रतिक्रिया सदा रचना को गौरवान्वित करती है।
      हृदय से आभार आपका।
      सस्नेह

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  17. रात के आँसू वही थे

    लोक में जो ओस फैली

    चाँद की भी देह सीली

    व्योम की भी पाग मैली

    ये हवाएँ क्यूँ सिसकती

    थरथरा कर के चली जो।। कितने गहनता से मन के भाव भरे हैं। हृदयस्पर्शी रचना । बधाई कुसुम जी।

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    Replies
    1. आपकी सराहना से लेखन सार्थक हुआ जिज्ञासा जी, हृदय तल से आभार आपका।
      सस्नेह।

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