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Thursday 28 January 2021

एक बूँद का आत्म बोध


 एक बूंद का आत्म बोध


पयोधर से निलंबित हुई

अच्युता का भान एक क्षण

फिर वो बूंद मगन अपने में चली

सागर में गिरी

पर भटकती रही अकेली

उसे सागर नही

अपने अस्तित्व की चाह थी

महावीर और बुद्ध की तरह

वो चली निरन्तर

वीतरागी सी

राह में रोका एक सीप ने 

उस के अंदर झिलमिलाता

एक मोती बोला

एकाकी हो कितनी म्लान हो

कुछ देर और

बादलों के आलंबन में रहती

मेरी तरह स्वाती नक्षत्र में

बरसती तो देखो

मोती बन जाती

बूंद ठिठकी

फिर लूँ आलंबन सीप का !!

नही मुझे अपना अस्तित्व चाहिये

सिद्ध हो विलय हो जाऊँ एक तेज में ।


कहा उसने.... 

बूँद हूँ तो क्या

खुद अपनी पहचान हूँ 

मिल गई गर समुद्र में क्या रह जाऊँगी

कभी मिल मिल बूँद ही बना सागर 

अब सागर ही सागर है बूंद खो गई

सीप का मोती बन कैद ही पाऊंगी 

निकल भी आई बाहर तो   

किसी गहने मे गुंथ जाऊंगी

मैं बूँद हूँ स्वयं अपना अस्तित्व

अपनी पहचान बनाऊँगी ।।


       कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

7 comments:

  1. बूँद का अस्तित्व इंगित करती सुन्दर रचना।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३०-०१-२०२१) को 'कुहरा छँटने ही वाला है'(चर्चा अंक-३९६२) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  3. उसे सागर नही
    अपने अस्तित्व की चाह थी
    महावीर और बुद्ध की तरह..
    वाह!! बहुत खूब !!अति सुन्दर!!

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  4. अति सुंदर सृजन दी।
    शब्द चयन और भाव बेहद उत्कृष्ट है।
    सादर।

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  5. मै बूंद हूं..
    बूंद ही सही..
    अस्तित्व की खोज में हूं मै..
    लेना आश्रय किसी सागर का नहीं..

    बहुत सुंदर रचना..

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