Sunday, 31 May 2020

तपिश

तपिश सूरज की बेशुमार
झुलसी धरती
मुरझाई लताऐं
सुलगा अंबर,
परिंदों को ठौर नही
प्यासी नदियाँ
कृषकाय झरने
तृषित  घास
पानी की आस,
सूनी गलियाँ
सूने चौबारे
पशु कलपते
बंद है दरवाजे,
गरमी में झुलसता
कर्फ्यू सा शहर
फटी है धरा
किसान लाचार,
लहराते लू के थपेड़े
दहकती दोपहरी
सूखे कंठ
सीकर में डूबा तन
वस्त्र  नम,
धूप की थानेदारी
काम की चोरी,
आंचल में छुपाये
मुख ललनाऐं,
गात बचाये,
बिन बरखा
हाथों में छतरी,
रेत के गुबार
आँखो में झोंके,
क्षरित वृक्ष
प्यासे कुंए
बिकता पानी,
फ्रिज ऐसी के ठाठ
रात में छत पर
बिछती खाट,
बादलों की आस
बढती प्यास,
सूखते होठ
जलता तन,
सूरज बेरहम
हाय रे  जेष्ठ की तपन।।

        कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 29 May 2020

शमा और शलभ

शमा और शलभ

आवाज दी शमा ने सुन शलभ
तूं क्यों नाहक जलता है।
मेरी तो नियति ही जलना ,
तूं क्यों मुझसे लिपटता है  ।
         
शलभ बोला आह भरके,
तेरी नियति मेरी फितरत
जलना दोनो की ही किस्मत
तूं  तो  जलती रहती है ,
मैं तुझ से पहले बुझ जाता हूं।
 
कहा शमा ने ओ परवाने
तूं नाहक ही जलता है।
मैं तो जलती जग रौशन करने,
तूं दुनिया को क्या देता?
बस नाहक जल-जल मरता है ।

तू जलती जग के खातिर जग तुझ को क्या देता,
जब खुद को खो देती हो बस
काला धब्बा रहता,
मेरे फना होते ही हवा मेरे पंख ले जाती है
रहती नही मेरे जलने की भी कोई निशानी
बस इतनी सी ही मेरी तेरी कहानी है।

            कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

सिसकती मानवता

तीन क्षणिकाएँ
सिसकती मानवता

सिसकती मानवता
कराह रही है ,
हर ओर फैली धुंध कैसी है,
बैठे हैं एक ज्वालामुखी पर
सब सहमें से डरे-डरे,
बस फटने की राह देख रहे ,
फिर सब समा जायेगा
एक धधकते लावे में ।

जिन डालियों पर
सजा करते थे झूले ,
कलरव था पंछियों का
वहाँ अब सन्नाटा है ,
झूल रहे हैं फंदे निर्लिप्त
कहलाते जो अन्न दाता
भूमि पुत्र भूमि को छोड़
शून्य के संग कर रहे समागम।

पद और कुर्सी का बोलबाला
नैतिकता का निकला दिवाला,
अधोगमन की ना रही सीमा
नस्लीय असहिष्णुता में फेंक चिंगारी,
सेकते स्वार्थ की रोटियाँ
देश की परवाह किसको,
जैसे खुद रहेंगे अमर सदा
हे नराधमो मनुज हो या दनुज।

            कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 28 May 2020

एकलव्य की मनोव्यथा

एकलव्य की मनो व्यथा >

तुम मेरे द्रोणाचार्य थे,
मैं तुम्हारा एकलव्य ‌
मैं तो मौन गुप्त साधना में था ,
तुम्हें कुछ पता भी न था ।
फिर इतनी बङी दक्षिणा
क्यों मांग बैठे ,
सिर्फ अर्जुन का प्यार और
अपने वचन की चिंता थी ?
या अभिमान था तुम्हारा,
सोचा भी नही कि सर्वस्व
दे के जी भी पाऊंगा ?
इससे अच्छा प्राण
मांगे होते सहर्ष दे देता
और जीवित भी रहता ‌।
फिर मांगो गुरुदक्षिणा
मैं दूंगा पर ,सोच लेना
अपनी मर्यादा फिर न भुलाना,
वर्ना धरा डोल जायेगी ‌
मैं फिर भेट करूंगा अंगूठाअपना,
और कह दूंगा सारे जग को
तुम मेरे आचार्य नही,
सिर्फ द्रोण हो सिर्फ एक दर्प,
 पर मैं आज भी हूं
तुम्हारा एकलव्य ।

      कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'।

Tuesday, 26 May 2020

लहकी नागफणी

लहकी नागफणी

महक उठे है मधुबन जैसे
पात हृदय के जो लूखे।
अक्षि पार्श्व दर्शन जो होते
पतझड़ खिल जाते रूखे।

व्याकुल होकर मोर नाचता
आस अटकी नभ के छोर।
आके नेह घटाएं बरसो
हैं धरा का निर्जल पोर।
अकुलाहट पर पौध रोप दे
दृग रहे दरस के भूखे।।

कैसी तृप्ती है औझड़ सी
तृषा बिना ऋतु के झरती ।
अनदेखी सी चाह हृदय में
बंद कपाट उर्मि  भरती।
लहकी नागफणी मरुधर में
लूं तप्त फिर भी न सूखे।।

पंथ जोहते निनिर्मेष से
कोई टोह नहीं आती।
चांद रात में दुखित चकोरी
दग्ध कौमुदी तड़पाती।
कब  तक होगी शेष प्रतीक्षा
पीर झेलें बन बिजूखे।।

कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Sunday, 24 May 2020

विधु का सागर स्नान

विधु का सागर स्नान

वायु वेग में विचलित विचि
क्षीरनिधि को भा रही है।
तरंग मोहित हो शशि पर
तट कुलांचे खा रही है।

रूप यूं निखरा निशा का
नील जलज शोभा सरसी।
झूके मुकुल नैना सलज
नभ से ज्यों आभा बरसी।
उर्मियाँ घूँघट हटाकर
फिर मचलती आ रही हैं।।

पूनो का मृगांक मंजुल
द्युलोक अँगन लीला करे।
झिलमिलाते तारकों से
जीवन सोम निर्झर झरे।
भर पियूष मयूख वर्तुल
चांदनी भी गा रही है ।।

रजनीपति किलोल करते
पारावार अवगाहना
झाग मंडित नीर सारा
उबटन रजत कर नाहना
बैठ कौमुदी झूले पर
रात बीती जा रही है।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 23 May 2020

मेहनतकश

मेहनतकश

मेहनतकश आज भर की
जुगाड़ नही कर पाता
कल की क्या सोचे
भुखा बिलखता बचपन
पेट भी नही भर पाता
पढने की क्या सोचे,
कैसी विडम्बना है कि कोई
महल दो महले पाकर भी खुश नही   
और कोई एक वक्त का
काम मिलते ही खुश हो जाता
यही है सत्य का बिलखता चेहरा
पर कोई देखना नही चाहता  ।
          कसुम कोठारी ।

श्रमिक

सिली लकड़ी धुआं धुंआ हो
बुझी बुझी आंखें झुलसा रही।
लो आई बैरी बौछार तेजी से
अध जला सा चूल्हा बुझा रही।।

काम नही मिलता मजदूरों को
बैरी जेबें खाली मुंह चिढा रही।
बच्चे भुखे,खाली पेट,तपे तन
मजबूर मां बातों से बहला रही।।

नियति कैसे-कैसे खेल रचाती
न जाने किसकी क्या खता रही
जो पहले से हैं शोषित औ क्षुब्ध
उन्हें ही सबसे ज्यादा सता रही।।

           कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

पद चिन्ह

जीवन अवसाद, प्रसन्नता

कदम बढते गये
बन राह के सांझेदार ।
मंजिल का कोई
ठिकाना ना पड़ाव ।
उलझती सुलझती रही
मन लताऐं  बहकी सी।
लिपटी रही सोचों के
विराट वृक्षों से संगिनी सी।
आशा निराशा में
उगता ड़ूबता भावों का सूरज।
हताशा अरु उल्लास के
हिन्डोले में झूलता मन।
अवसाद और प्रसन्नता में
अकुलाता भटकता ।
कभी पूनम का चाँद
कभी गहरी काली रात।
कुछ सौगातें
कुछ हाथों से फिसलता आज।
नर्गिस सा बेनूरी पर रोता
खुशबू पर इतराता जीवन।।

        कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 22 May 2020

परमेश्वरा


"परमेश्वरा "

तमो वितान
तम हर, दे ज्योति
पालनहार।

निशा थी काली
भोर की फैला लाली
हे ज्योतिर्मय।

शंकित मन
शंका हर , दे वर
जगत पिता।

रुठा है भाग्य
शरण तेरी आये
वरद दे हस्त।

आया शरण
भव नाव डोलत
परमेश्वरा ।

मंजिल भूले
राह नही सूझत
दे दिशा ज्ञान।

कुसुम कोठारी  'प्रज्ञा'

Tuesday, 19 May 2020

प्राबल्य अगोचर

प्राबल्य अगोचर

सृष्टि निर्माण रहस्य भारी
अद्भुत दर्शन से संवाहित
रिक्त आधार अंतरिक्ष का
प्राबल्य अगोचर से वाहित।

सत्य शाश्वत शिव की सँरचना
आलोकिक सी है गतिविधियां।
छुपी हुई है हर इक कण में
अबूझ अनुपम अदीठ निधियां।
ॐ निनाद में शून्य सनातन
है ब्रह्माण्ड समस्त समाहित।।

जड़ ,प्राण, मन, विज्ञान,अविचल
उत्पति संहारक जड़ जंगम।
अंतर्यामी कल्याणकार
प्रिय विष्णु महादेव संगम।
अन्न जल फल वायु के दाता
रज रज उर्जा करे  प्रवाहित।।

आदिस्त्रोत काल महाकाल 
सर्व दृष्टा स्वरूपानंदा।
रूद्र रूप तज सौम्य धरे तब
काटे भव बंधन का फंदा।
ऋचाएं तव गाए दिशाएं
वंदन करें देव मनु माहित ।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 15 May 2020

शाम की उदासियाँ (क्षितिज)

झील के शांत पानी में
शाम की उतरती धुंधली उदासी
कुछ और बेरंग,
श्यामल शाम का सुनहरी टुकडा
कहीं "क्षितिज" के क्षोर पर पहुंच 
काली कम्बली में सिमटता,
निशा के उद्धाम अंधकार से 
एकाकार हो,
जैसे पर्दाफाश  करता
अमावस्या के रंग हीन
बेरौनक आसमान का,
निहारिकाऐं जैसे अवकाश पर हो
चांद के साथ कही सुदूर प्रांत में,
ओझल कहीं किसी गुफा में विश्राम करती,
छुटपुट तारे बेमन से टिमटिमाते
धरती को निहारते मौन,
कुछ कहना चाहते
शायद धरा से मिलन का
कोई सपना हो,
जुगनु दंभ में इतराते
चांदनी की अनुपस्थिति में
स्वयं को चांद समझ डोलते,
चकोर व्याकुल कहीं
सरसराते अंधेरे पात में दुबका,
खाली सूनी आँखों में
एक एहसास अनछुआ सा
अदृश्य से गगन को
आशा से निहारता,
शशि की अभिलाषा में
विरह में जलता
कितनी सदियों
यूं मयंक के मय में
उलझा रहेगा
इसी एहसास में
जीता मरता रहेगा,
उतरती रहेगी कब तक
शांत झील में शाम की उदासियाँ।

     कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 12 May 2020

दोला

दोला !!

इक हिंडोला वृक्ष बँधा है
दूजा अदृश्य डोले ।
थिरक किवाड़ी मन थर झूले
फिर भी नींद न खोले ।

बादल कैसे काले काले,
छाई घटा घनघोर ।
चमक-चमक विकराल दामिनी
छुए क्षितिजी के छोर ।
मन के नभ पर महा प्रभंजन,
कितने बदले चोले ।।

रेशम डोर गांठ कच्ची है ।
डाली सूखी टूटे ।
पनघट जाकर भरते-भरते
मन की गागर फूटे।
विषयों के घेरे में जीवन ।
दोला जैसे दोले ।।

बहुत कमाया खर्चा ज्यादा
बजट बिगाड़ा पूरा ।
रहें बटोरे निशदिन हर पल ।
भग्न सपन का चूरा ।
वांछा में आड़ोलित अंतर ।
कच्ची माटी तोले ।।

कुसुम कोठारी' प्रज्ञा'

Monday, 11 May 2020

अवसान

अवसान

धूप शाम ढले आखिर
थक ही गई!
सारा दिन कितनी
तमतमाई सी गुस्साई!
अपनी गर्मी से शीतलता का
दोहन करती।
विजेता सी गर्व में
गर्म फुत्कार छोड़ती ।
जैसे सब भष्म कर देगी
अपनी अगन से‌।
ताल तलैया सब पी गई
अगस्त्य ऋषि जैसे।
हर प्राणी को अपने तीव्र
प्रचंड ताप से त्रस्त करती।
हवा को गर्म खुरदरे वस्त्र पहना
अपने साथ ले चलती।
त्राहिमाम मचाती
दानवी प्रवृति से सब को सताती।
आज सब जला देगी
जड़ चेतन प्राण औ धरती।
सूर्य का खूंटा पकड़ बिफरी
दग्ध दावानल मचाके।
आखिर थक गई शाम ढले
छुप बैठी जाके छाया में ।।

    कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 6 May 2020

साथ

साथ

कल्पना ये कल्पना है
आपके बिन सब अधूरी।
चाँद तक सीढ़ी बँधेगी
मखमली सी आस पूरी।।

संग तेरे मुस्कुराते
मोहक रंग भरी होली
आसमान पर डाल झूला
सजती मेघों की डोली।
गगन छुलें हाथ बढ़ाकर
साथ  तेरा  है जरूरी।।

सदा हम तेरे भरोसे
जिंदगी में जब मिले थे।
बाग तुम भंवरा भी तुम
फूल जैसे मन खिले थे ।
खिलखिलाती चाँदनी में
थामकर आशा की धूरी।

पत्थरों पर बैठकर जब
आँखों से सिंधु निहारूँ।
उर्मि की उठती रवानी
नाम तेरा ही पुकारूँ।
कल्पना ये कल्पना है
आपके बिन सब अधूरी।।

           कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 4 May 2020

आत्म बोध की ज्योति

आत्म  बोध की ज्योति

अब काल का अवसान हुआ
सब ये सिमटी झुठी माया ।
मोह पिंजर क्यों बंधा सोच
कर थे खाली तू जब आया।

पंछी दाना जब चुगता है
तब आत्ममुग्ध सा रहता है।
और तीर लगे अहेरी का
भीषण पीड़ा वो सहता है।
है घायल सोचे मूढ़ मना
बहुत बचा थोड़ा खाया।।

थिर नही भानु चंद्र जगत में
अम्बर अवनी अहर्निस घूमे ।
ये माटी की कंचन काया
मोह डोर बंधन में झूमे।
लगी काल की जब इक ठोकर
चूर चूर माटी का जाया।।

चँचल चित्त हय वश में करले
तू इधर उधर मत डोल मना।
स्थिर अंतर का भेद समझ अब
सुंदर शाश्वत का मोल घना।
वह आत्म  बोध की ज्योति जली
यह भू पतिता कंचुक काया।

कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Friday, 1 May 2020

मुखौटा

जो फूलों सी ज़िंदगी जीते कांटे हज़ार लिये बैठे हैं ।
दिल में फ़रेब मुख पे मुस्कान का मुखौटा लिये बैठें हैं।।

खुला आसमां ऊपर,ख्वाबों के महल लिये बैठें हैं ‌
कुछ, टूटते अरमानों का ताजमहल लिये बैठें हैं। ‌।

सफेद  दामन वाले भी दिल दाग़दार लिये बैठे हैं‌।
क्या लें दर्द किसी का कोई अपने हज़ार  लिये बैठें हैं।। ‌

हंसते हुए चहरे वाले दिल लहुलुहान लिये बैठे हैं‌
एक भी ज़वाब नही, सवाल बेशुमार लिये बैठें हैं। ।

टुटी कश्ती वाले हौसलों  की पतवार लिये बैठे हैं।
डूबने से डरने वाले साहिल पर नाव लिये बैठे हैं।।

                  कुसुम  कोठारी 'प्रज्ञा'