एक चिंतन
कवि काव्य, साहित्यकार साहित्य और भी लेखन कला में हम श्रमिक और गरीब को भर-भर लिखते हैं पर एक मजदूर को उससे कितना सरोकार है ? सोचें !!
मजदूर नाम से ही एक कर्मठ पर बेबस लाचार सा व्यक्तित्व सामने आ खड़ा होता है जिसकी सारी जिंदगी बस अपना और परिवार का पेट भर जाय इतनी जुगाड़ में निकल जाता है ।सारा परिवार बच्चों सहित लगा रहता है मजदूरी में पर वो भी सदैव मयस्सर नहीं होती। आधे दिन फाके की नौबत रहती है, बिमारी में उधारी और पास का सब कुछ बिक जाता है फिर भी सब कुछ सापेक्ष नही होता।
बस एक मजदूर के नाम पर एक साधन हीन चेहरा उभर कर आता है जिसे हम गरीब कहते हैं।
और उसी गरीब पर *राष्ट्रपिता* के कुछ उद्दगार हृदय-स्पर्शी मर्म को भेदते ....
"गरीबों का काव्य ,समाज ,और रचनात्मकता कितनी?"
"भारत के विस्तृत आकाश के नीचे मानव -पक्षी रात को सोने का ढ़ोंग करता है, भुखे पेट उसे जरा भी नींद नही आती और जब वह सुबह बिस्तर से उठता है तब उसकी शक्ति पिछली रात से कम हो जाती है।
लाखों मानव-पक्षियों को रात भर भूख प्यास से पीड़ित रहकर जागरण करना पड़ता है अथवा जाग्रत सपनों में उलझे रहना पड़ता है ।
यह अपने अपने अनुभव की, अपनी समझ की, अपनी आँखों देखी अकथ दुखपूर्ण अवस्था और कहानी है।
कबीर के गीतों से इस पीड़ित मानवता को सान्त्वना दे सकना असम्भव है ।
यह लक्षावधि भूखी मानवता हाथ फैलाकर, जीवन के पंख फड़फड़ाकर कराहकर केवल एक कविता माँगती है _पौष्टिक भोजन ।"
श्री विष्णुप्रभाकर जी के एक उपन्यास
" तट के बंधन " से लिया ये एक पत्र है जो महात्मा गांधी ने रविन्द्र नाथ टैगोर को लिखा था ।
एक संकलन......