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Friday 22 June 2018

बीजांकुर

बीजांकुर

जलधर भार से नीचे झुके
चंचल हवा ने आंचल छेड़ा
अमृत बरसा तृषित धरा पर
माटी विभोर हो सरसी हुलसी
हृदय तल मे जो बीज थे रखे
उन्हें प्यार से सींचा स्नेह दिया
क्षिती दरक ने लगी अति नेह से
एक बीजांकुर प्रस्फुटित हुवा
सहमा सा रेख से बाहर झांके
खुश हो अंगड़ाई ली देखा उसने
चारों और उसके जैसे नन्हे नरम,
कोमल नव पल्लव चहक रहे
धरित्री की गोद पर खेल रहे
पवन झकोरों पर झूल रहे
 अंकुर  मे  स्फुरणा जगी
अंतः प्रेरणा लिये बढता गया।

सच ही है धरा को चीर अंकुर
जब पाता उत्थान है
तभी मिलता मानव को
जीवन का वरदान
सींचता वारिध उस को
कितने प्यार से
पोषती वसुंधरा , करती
उसका श्रृंगार है
एक अंकुर के खिलने से
खिलता संसार है।
   कुसुम कोठारी।

9 comments:

  1. आभार सखी
    सादर

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  2. सादर आभार लोकेश जी।

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २५ जून २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  4. वाह!!कुसुम जी ,बेहतरीन रचना ।

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    1. शुभा जी आपकी प्रतिक्रिया लेखन को सदा प्रोत्साहित करती है।

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  5. सब बीजांकुर ही की काया - माया है बहन |प्रकृति कितना कच्छ करती है एक बीज को अंकुरित करने लिए | प्रभावी सरस रचना !!!!!!!!

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    1. सस्नेह आभार रेनू बहन आपकी विस्तृत और व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया रचना को विस्तार देती है और रचनाकार को उत्साह ।
      सस्नेह

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