Thursday, 28 June 2018

मंजर हसीं वादियों के

मंजर हसीं वादियों के

हां जलते रहेंगे चराग यूंही दिल की वफाओं मे
करना ही होगा अब यकीं मौसम की हवाओं मे

खामोशियां कब बयां होगी किसी जरूरत मे
बयां तो  करना ही  होगा खामोश सदाओं मे

नशेमन शीशे  का क्यों बनाते हो बेताबियों मे
कुछ भी न बच पायेगा पत्थर की सजाओंं मे

चाहत  मे  बस अहसास की छूवन  हो यादो मे
जैसे मौजे छूकर साहिल को लौटती दुआओं मे

हसीं वादियों के मंजर कितने खुशनुमा चमन मे
भीगा दामन धरा का घुमड़ती काली घटाओं मे।।

                कुसुम कोठारी।

Tuesday, 26 June 2018

सुर और साज

एक सुर निकला  उठ चला
जाके विधाता से तार  मीला।

संगीत मे ताकत है इतनी
साज से उठा दिल मे मचला
मस्तिष्क का हर तार झनका
गुनगुन स्वर मध्धम सा चला
दुखियों के दुख भी कम करता
सुख मे जीवन सुरंग रंग भरता।
एक सुर..........

मधुर मधुर वीणा बजती
ज्यों आत्मा तक रस भरती
सारंगी की पंचम  लहरी
आके हिया के पास ठहरी
सितार के सातों तार बजे
ज्यों स्वर लहरी अविराम चले।
एक सुर..........

ढोलक धुनक धुनक डोली
चल कदम ताल मिलाले बोली
बांसुरी की मोहक धुन बाजी
ज्यों माधव ने  मुरली साजी
जल तरंग की मोहक तरंग
झरनो की कल कल अनंग।
एक सुर..........

तबले की है थाप सुहानी
देखो नाचे गुडिया रानी
मृदंग बोले मीठे स्वर मे
मीश्री सी घोले तन उर मे
एक तारा जब प्यार से बोले
भेद जीया के सारे खोले।
एक सुर......…..

पेटी बाजा बजे निराला
सप्त सुरों का सुर प्याला
और नगाड़ा करता शोर
ताक धिना धिन नाचे मन मोर
और बहुत से साज है खनके
सरगम का श्रृंगार बनके।
एक सुर.... .....
                 कुसुम कोठारी ।

Saturday, 23 June 2018

स्नेह का अंकुर

क्या रखा है ऊंच नीच मे और क्या जात पांत है
स्नेह का एक अंकुर प्रस्फुटित हो तो कोई बात है।

धर्म को ना आड बना के दुश्मनी पालो
खून बहो किसी का भी होता आखिर खून है
पीछे रह जाती  सिसकियां और चित्कार है
जाना तो सब को आखिर एक ही राह है
वहाँ जाने वालो की कौन पूछता जात है

स्नेह का अंकुर प्रस्फुटित हो तो कोई बात है।

अपने ही मद मे फूलता हर नादां  इंसान है
काल सिरहाने खडा करता निशब्द हास है
एक पैसा तक तो जा पाता नही साथ है
संचय करता धन के साथ कितना पाप है
पतझर आते ही देखो पेडों से झरते पात है

स्नेह का अंकुर प्रस्फुटित हो तो कोई बात है।

कितने आये चले गये विश्व विजय का ध्येय लिये
रावण जैसे यूं गये कि वंश दीप तक नही रहे
अहंकार और स्वार्थ का ना तुम संसार रचो
अनेकांत के  मार्ग पर चल सभी को सम्मान दो
दिल के उजाले चुकते ही फिर अंधेरी रात है

स्नेह का अंकुर प्रस्फुटित हो तो कोई बात है।
                   कुसुम कोठारी।

Friday, 22 June 2018

बीजांकुर

बीजांकुर

जलधर भार से नीचे झुके
चंचल हवा ने आंचल छेड़ा
अमृत बरसा तृषित धरा पर
माटी विभोर हो सरसी हुलसी
हृदय तल मे जो बीज थे रखे
उन्हें प्यार से सींचा स्नेह दिया
क्षिती दरक ने लगी अति नेह से
एक बीजांकुर प्रस्फुटित हुवा
सहमा सा रेख से बाहर झांके
खुश हो अंगड़ाई ली देखा उसने
चारों और उसके जैसे नन्हे नरम,
कोमल नव पल्लव चहक रहे
धरित्री की गोद पर खेल रहे
पवन झकोरों पर झूल रहे
 अंकुर  मे  स्फुरणा जगी
अंतः प्रेरणा लिये बढता गया।

सच ही है धरा को चीर अंकुर
जब पाता उत्थान है
तभी मिलता मानव को
जीवन का वरदान
सींचता वारिध उस को
कितने प्यार से
पोषती वसुंधरा , करती
उसका श्रृंगार है
एक अंकुर के खिलने से
खिलता संसार है।
   कुसुम कोठारी।

Thursday, 21 June 2018

प्रकृति के रूप

प्रकृति के रूप

बुनती है संध्या
ख्वाबों के जाले
परिंदों के भाग्य मे
नेह के दाने।

आसमान के सीने पर
तारों का स्पंदन
निशा के ललाट पर
क्षीर समंदर।

हर्ष की सुमधुर बेला
प्रकृति की शोभा
चंद्रिका मुखरित
समाधिस्थ धरा।

आलोकिक विभा
शशधर का वैभव
मंदाकिनी आज
उतरी धरा पर ।

पवन की पालकी
नीरव हुवा घायल
छनकी होले होले
किरणों की पायल।

  कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 20 June 2018

क्षण भंगुर

क्षण भंगुर

किस का गुमान 
कौन सा अभिमान
माटी मे मिल जानी माटी की ये  शान।

भूल भुलैया मे भटका
खुद के गर्व मे तूं अटका
कितने आये कितने चले गये मेहमान ।

एक पल के किस्से मे
तेरे मेरे के हिस्से मे
जीवन के कोरे पल अनजान ।

ना फूल झुठी बडाई मे
ना  पड़ निरर्थक लडाई मे
सब काल चक्र का फेरा है नादान।

तूं धरा का तुक्ष कण है
आया अकेला जाना क्षण मे
समझ ले ये सार मन मे कर संज्ञान  ।
     
  किसका गुमान...
                           कुसुम कोठारी ।

Tuesday, 19 June 2018

मै उन्मुक्त गगन का राही

मै उन्मुक्त गगन का राही

निर्मल, शीतल, सम्मोहन सा
पीछे मेरे किरणों का वितान
तारों की चुनरी है नभ की
मै नीले भाल चमकता टीका
बिन मेरे आकाश है फीका

मै उन्मुक्त गगन का राही

उज्ज्वल रश्मि मेरी
चंचल हिरणी सी कुलांचे भरती
वन विचरण करती
बन पाखी, द्रुम दल विहंसती
जा सूनी मूंडेरें चढती
झांक आती सबके झरोखे
फूलों से क्रीडा करती,

मै उन्मुक्त गगन का राही

बाग बगीचे आच्छादित मुझ से
तम को दूर भगाता
शीतलता देता भरपूर
सबको भाता मन को लुभाता
सूरज आते ही छिप जाता।

मै उन्मुक्त गगन का राही।

        कुसुम कोठारी।

खुशियों के अंकुर

खुशियों के अंकुर

खुशियों के जो बीज मिले
भर लूं उन को बस मुठ्ठी मे
उन्हें छींट दूं आगंन मे
आंख के आंसू जब
बारिश बन कर बरसेंगे
नव खुशियों के अंकुर फूटेगें
प्यार की कलियाँ चटकेगी
रंग बिरंगे फूल खिलेंगे
लहरायेगी हरियाली
ना रहेगा कोई गम
आंगन भर जायेगा मेरा
खुशियों से बस खुशियों से ।

       कुसुम कोठारी।

Sunday, 17 June 2018

सीप और मोती

सीप और मोती

हृदय मे लिये बैठी थी
एक आस का मोती
सींचा अपने वजूद से,
दिन रात हिफाजत की
सागर की गहराईंयो मे
जहाँ की नजरो से दूर
हल्के हल्केे लहरों के
हिण्डोले मे झूलाती
सांसो की लय पर
मधुरम लोरी सुनाती
पोषती रही सीप
अपने हृदी को प्यार से
मोती धीरे धीरे
शैशव से निकल
किशोर होता गया
सीप से अमृत पान
करता रहा तृप्त भाव से
अब यौवन मुखरित था
सौन्दर्य चरम पर था
आभा ऐसी की जैसे
दूध मे चंदन दिया घोल
एक दिन सीप
एक खोजी के हाथ मे
कुनमुना रही थी
अपने और अपने अंदर के
अपूर्व को बचाने
पर हार गई उसे
छेदन भेदन की पीडा मिली
साथ छूटा प्रिय हृदी का
मोती खुश था बहुत खुश
जैसे कैद से आजाद
जाने किस उच्चतम
शीर्ष की शोभा बनेगा
उस के रूप पर
लोग होंगे मोहित
प्रशंसा मिलेगी
हर देखने वाले से ,
उधर सीपी बिखरी पड़ी थी
दो टुकड़ों मे
कराहती सी रेत पर असंज्ञ सी
अपना सब लुटा कर
वेदना और भी बढ़ गई
जब जाते जाते
मोती ने एक बार भी
उसको देखा तक नही
बस अपने अभिमान मे
फूला चला गया
सीप रो भी नही पाई
मोती के कारण जान गमाई
कभी इसी मोती के कारण
दूसरी सीपियों से
खुद को श्रेष्ठ मान लिया
हाय क्यूं मैने
स्वाति का पान किया।

         कुसुम कोठारी।

Friday, 15 June 2018

श्वेत तुंरग

श्वेत तुंरग

हे श्वेत तुंरग उतरे हो कहां से
क्या इंद्र लोक से आये हो
ऐसा उजला रूप अनुपम
कहो कहां से लाये हो
कैसे सुरमई राहो पर तुम
बादल बन कर छाये हो
मद्धरिम चाल अति मोहक
दिल तक उतर आये हो
ना सज्जा ना वस्त्राभुषन
फिर भी बिजली से लहराऐ हो
तेज मनोहर मुख पर ऐसा जैसे
संग्राम युद्ध क्षेत्र से आये हो
अविचल सा है भाव तुम्हारा
सुसंस्कृत ज्ञानी लगते हो
आये कहां से गमन कहां अब
बतादो मुझ मन की जिज्ञासा है
हे हय  मनोहर क्या तुमको
श्री हरी ने यहां पठाया है
या राम चंद्र के अश्व हो तुम
यज्ञ पूर्ण करने निकले हो
कहो कहो है सैंधव तुम
कौन लोक से आये हो
या पार्थ के रथ से लेने
विश्राम तुम आये हो
भारत मे महाभारत का
संकेत दिखाने आये हो
महाराणा के प्यारे चेतक
रूप बदल फिर आये हो।
कहो कहो हे बाजी तुम
कौन देश से आये हो।

Thursday, 14 June 2018

एक बूंद का आत्म बोध

एक बूंद का आत्म बोध

पयोधर से निलंबित हुई
अच्युता का भान एक क्षण
फिर वो बूंद मगन अपने मे चली
सागर मे गिरी
पर भटकती रही अकेली
उसे सागर नही
अपने अस्तित्व की चाह थी
महावीर और बुद्ध की तरह
वो चली निरन्तर
वीतरागी सी
राह मे रोका एक सीप ने
उस के अंदर झिलमिलाता
एक मोती बोला
एकाकी हो कितनी म्लान हो,
कुछ देर और
बादलों के आलंबन मे रहती
मेरी तरह स्वाती नक्षत्र मे
बरसती तो देखो
मोती बन जाती
बूंद ठिठकी
फिर लूं आलंबन सीप का !!
नही मुझे अपना अस्तित्व चाहिये
सिद्ध हो विलय हो जाऊं एक तेज मे।

कहा उसने....
बूंद हूं तो क्या
खुद अपनी पहचान हूं
मिल गई गर समुद्र मे क्या रह जाऊंगी
कभी मिल मिल बूंद ही बना सागर
अब सागर ही सागर है,बूंद खो गई
सीप का मोती बन कैद ही पाऊंगी
निकल भी आई बाहर तो 
किसी गहने मे गूंथ जाऊंगी
मै बूंद हूं स्वयं अपना अस्तित्व
अपनी पहचान बनाऊंगी।
            कुसुम कोठारी ।

Saturday, 9 June 2018

पावस का पहला संगीत

पावस का पहला संगीत

आज चली कुछ
हल्की हल्की सी पुरवाई
एक भीनी सौरभ से
भर गई  सभी दिशाऐं
मिट्टी महकी सौंधी सौंधी
श्यामल बदरी छाई
कर लो सभी स्वागत
देखो देखो बरखा आई
कितना झुलसा तन धरती का
आग सूरज ने बरसाई
अब देखो खेतीहरों के
नयनों भी खुशियाँ छाई
आजा रे ओ पवन झकोरे
थाप लगा दे नीरद पर
अब तूं बदरी बिन बरसे
नही यहां से जाना
कब से बाट निहारे तेरी
सूखा तपता सारा जमाना
मिट्टी,खेत,खलिहान की
मिट जाए अतृप्त प्यास
आज तूझे बरसना होगा
मिलजुल करते जन अरदास ।
           कुसुम  कोठारी ।

Friday, 8 June 2018

तुम्ही पे तुम्ही से

तुम्ही पे तुम्ही से

संचित जलाशय सा जीवन
कहो किस काम का
कुछ तो गति हो जीवन मे
स्थिर जल मे जन्म लेती हैं
शैवालिका जो
पानी का अमरत्व हर लेती
सहज झरना बन बहो
हां गिरना तो होगा
अचल अटल श्रेणीयों से
पर एक मधुर जीवन राग
गूंजेगा वादियों मे
कितनी नई राहें
बनेगी पद चिंहों से
हरितिमा मुस्कुरायेगी
बाहुपाश मे
संचित जलाशय भी
तो निर्भर होगें
तुम्ही पे तुम्ही से।

 कुसुम कोठारी।

Wednesday, 6 June 2018

जीवन की दहलीज

जीवंत होने का अर्थ है
जीवन की दहलीज पर
चुनौती ताजी रखें
कुछ नया खोजते रहे
क्योंकि नए की खोज में ही
हमारे भीतर जो छिपे हैं स्वर
उन्हें मुक्त कर पायेंगे
नई राग, नई धुन,
नया संगीत दे पायेंगे
नए की खोज में ही
हम  स्वयं नये रह पायेंगे
जैसे ही नया अन्वेषण बंद होता है
हम पुराने हो जाते,
जर्जर् खंडहर,
जो गिरने की राह तकने लगते हैं
रुकती है जब जब भी नदी
धार मलीन होने लगती है
शुरू हो जाती है पंक उत्पत्ति
पावनता तो सतत बहते रहने का नाम है
तभी तक धार पवित्र और निर्मल रहती है
जब तक बहती रहती है
सदा बहते रहो
निरन्तर गतिमान रहो
और सदा मन दहलीज पर
चुनौतियां ताजी रखो।
     कुसुम कोठरी।

Tuesday, 5 June 2018

गूजरिया

ओ सुनयनी सरोजिनी गूजरिया
चंचल चपल नैन सोहे कजरिया
ज्यों बादर बीच चमके बिजुरिया
ललाट शोभित चंदा सी रखरिया।

तीखी नासिका दमके नथनिया
अधर गुलाब  मधुर मुस्कनिया
ग्रीवा सुडौल सजत नौलखिया
कान सुघड़ झुमका झनकईया।

बांह चम्पई खन खनकत  चूरियां
लचकत कमर बांध करधनिया
केशरी लहंगा रतनार  चुनरिया
चलत  छमकत  पांव पैजनिया ।

पनिया भरन  आई पनघटिया
शीश कलश माटी की झरिया
ताल पोखरे रीते, सूखी दरिया
अब तो पानी बरसा मन हरिया।
                  कुसुम कोठारी।

दस्तक दहलीज पर

दस्तक दे रहा दहलीज पर कोई
चलूं उठ के देखूं कौन है
कोई नही दरवाजे पर
फिर ये धीरे धीरे मधुर थाप कैसी
चहुँ और एक भीना सौरभ
दरख्त भी कुछ मदमाये से
पत्तों की सरसराहट
एक धीमा राग गुनगुना रही
कैसी स्वर लहरी फैली
फूल कुछ और खिले खिले
कलियों की रंगत बदली सी
माटी महकने लगी है
घटाऐं काली घनघोर,
मृग शावक सा कुचाले भरता मयंक
छुप जाता जा कर उन घटाओं के पीछे
फिर अपना कमनीय मुख दिखाता
फिर छुप जाता
कैसा मोहक खेल है
तारों ने अपना अस्तित्व
जाने कहां समेट रखा है
सारे मौसम पर मद होशी कैसी
हवाओं मे किसकी आहट
ये धरा का अनुराग है
आज उसका मनमीत
बादलों के अश्व पर सवार है
ये पहली बारिश की आहट है
जो दुआ बन दहलीज पर
बैठी दस्तक दे रही है
चलूं किवाडी खोल दूं
और बदलते मौसम के
अनुराग को समेट लूं
अपने अंतर स्थल तक।
         कुसुम कोठारी।

कभी ना कभी (दहलीज )

" कभी न कभी "
मन की दहलीज पर
स्मृति का चंदा उतर आता
यादों के गगन पर,

सागर के सूने तट पर
फिर लहरों की हलचल
सपनो का भूला संसार
फिर आंखों मे ,

दूर नही सब
पास दिखाई देते हैं
न जाने उन अपनो के
दरीचों मे भी कोई
यादों का चंदा
झांकता हो कभी,

हां भुला सा कल सभी को
याद तो आता ही होगा
यादों की दहलीज पर
कोई मुस्कुराता ही होगा
कभी न कभी ।
       कुसुम कोठारी ।

Saturday, 2 June 2018

नई दुल्हन और उषा सौन्दर्य

नई दुल्हन और उषा सौन्दर्य   
         
दुल्हन ने अपनी
तारों जड़ी चुनरी
समेटी नींद से उठ के
चाँद से आभूषण
सहेज रख दिये संदूक मे
बादलों से निकलता
भास्कर ज्यों
उषा सी नवेली दुल्हन का
चमकता चेहरा
फैलती लालीमा
जैसे  मांग का
दमकता सिंदूर
धीरे धीरे धूप धरा पे
यों बिखरती ज्यों
कोई नवेली
लाज भरे नयन लिये
मन्द कदम उठाती
अधर अधर आगे बढती
पंक्षियों की मनभावन
चिरिप चिरिप
यूं लगे मानो
धीर धीरे बजती
पायल के रुनझुन की
स्वर लहरी
ओस से भीगे फूल
जैसे अपनो का
साथ छुटने की
नमी आंखों मे
खिलती कलियाँ
ज्यों मंद हास
नव जीवन की
शुरुआत का उल्लास।
            कुसुम कोठारी ।

अंधो के शहर मे आईना बेचने आया हूं

फिर से आज एक कमाल करने आया हूं
अंधो के शहर मे आईना बेचने आया हूं।

संवर कर सुरत तो देखी कितनी मर्तबा शीशे मे
आज बीमार सीरत का जलवा दिखाने आया हूं।

जिन्हें ख्याल तक नही आदमियत का
उनकी अकबरी का पर्दा उठाने आया हूं।

वो कलमा पढते रहे अत्फ़ ओ भल मानसी का
उन के दिल की कालिख का हिसाब लेने आया हूं।

करते रहे उपचार  किस्मत ए दयार का
उन अलीमगरों का लिलार बांच ने आया हूं।
       
                        कुसुम कोठारी।

अकबरी=महानता  अत्फ़=दया
किस्मत ए दयार= लोगो का भाग्य
अलीमगरों = बुद्धिमान
लिलार =ललाट(भाग्य)