Thursday, 14 June 2018

एक बूंद का आत्म बोध

एक बूंद का आत्म बोध

पयोधर से निलंबित हुई
अच्युता का भान एक क्षण
फिर वो बूंद मगन अपने मे चली
सागर मे गिरी
पर भटकती रही अकेली
उसे सागर नही
अपने अस्तित्व की चाह थी
महावीर और बुद्ध की तरह
वो चली निरन्तर
वीतरागी सी
राह मे रोका एक सीप ने
उस के अंदर झिलमिलाता
एक मोती बोला
एकाकी हो कितनी म्लान हो,
कुछ देर और
बादलों के आलंबन मे रहती
मेरी तरह स्वाती नक्षत्र मे
बरसती तो देखो
मोती बन जाती
बूंद ठिठकी
फिर लूं आलंबन सीप का !!
नही मुझे अपना अस्तित्व चाहिये
सिद्ध हो विलय हो जाऊं एक तेज मे।

कहा उसने....
बूंद हूं तो क्या
खुद अपनी पहचान हूं
मिल गई गर समुद्र मे क्या रह जाऊंगी
कभी मिल मिल बूंद ही बना सागर
अब सागर ही सागर है,बूंद खो गई
सीप का मोती बन कैद ही पाऊंगी
निकल भी आई बाहर तो 
किसी गहने मे गूंथ जाऊंगी
मै बूंद हूं स्वयं अपना अस्तित्व
अपनी पहचान बनाऊंगी।
            कुसुम कोठारी ।

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