मुद्रित यादें
जीवन की आपा धापी में
दूर देश छबि एक दिखी
साधन सीमित होते लेकिन
लोग हुआ करते स्वधिती।।
बाली की चौगान घनेरी
दादा की एक खटोली
श्याम खरल में घोटा चलता
जड़ी बूटियों की थैली
स्मृतियों की गुल्लक से निकली
मुद्रित यादें नाम लिखी।।
लम्बी तीखी मूँछ कटीली
ठसक भरी बोली बोले
लगा ठहाका ऐसे हँसते
ज्यूँ खनखन सिक्के तोले
बैठे दिखते घर चौबारे
मन भावों से जगत हिती।।
लकड़ी वाला चूल्हा चंचल
चटक-चटक जलता रहता
घूँघट डाले माँ काकी का
हाथ शीघ्र चलता रहता
सौंधी खुशबू वाली होती
रोटी भी अंगार सिकी।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'