श्याम मोहिनी
रजत चाँद की निर्मल आभा
लो लहर पलक पर लहरी हैं ।
वो झांक रहे हैं इधर उधर
टिमटिम कर अंबक मटकाते
नीलाम्बर की बाहों में घिर
मणिकांत मणी से मनभाते
दौड़ धूप से क्लांत शिथिल अब
निर्निमेष आँखें ठहरी है।।
रजनी कर श्रृंगार निकलती
रुनझुन पायल झनकाती
श्याम मोहिनी वो सुकुमारी
नीले कंगन खनकाती
भ्रमण करे जब निशा सुंदरी
तारक दल जैसे पहरी है।।
अलंकार नित नव घड़वाती
रंग रूप उजला सा भरने
पर जब तक उजली वो होती
काल नवल सा लगता झरने
जब चलती है धीरे लगता
चाल चले कोई गहरी है।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी उत्साह वर्धन के लिए हृदय से आभार।
Deleteसादर।
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ReplyDeleteइंटरनेट का आविष्कार किसने किया ?
वाह
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteरजनी कर श्रृंगार निकलती
ReplyDeleteरुनझुन पायल झनकाती
श्याम मोहिनी वो सुकुमारी
नीले कंगन खनकाती
बहुत सुन्दर रचना
बहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धन करती सुंदर प्रतिक्रिया।
Deleteसादर।
रजनी सी रमणीय रचना... बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteउत्साहवर्धन हुआ।
सादर।
सुंदर रचना।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
सादर।
भ्रमण करे जब निशा सुंदरी
ReplyDeleteतारक दल जैसे पहरी है।
सुंदर बात
बहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया।
Deleteसस्नेह।
श्याम मोहिनी पर इतना खूबसूरत विन्यास लिखा है, वाह गज़ब>>>रजनी कर श्रृंगार निकलती
ReplyDeleteरुनझुन पायल झनकाती
श्याम मोहिनी वो सुकुमारी
नीले कंगन खनकाती
भ्रमण करे जब निशा सुंदरी
तारक दल जैसे पहरी है।।
बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी ,आपकी मनोहर प्रतिक्रिया से रचना नव उर्जा से प्रस्फुटित हुई।
Deleteसादर सस्नेह।
बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका जेन्नी जी उत्साहवर्धन के लिए ।
Deleteसस्नेह
रजत चांद की निर्मल आभा! वाह..बहुत सुन्दर। बहुत खूब।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया आपकी रचना को सार्थकता दे रही है ।
सादर।
शब्दों से जादूगरी करी है आपने ... श्याम की मोहिनी पे इतना कमाल ...
ReplyDeleteशब्दोब से बोलती है रचना ...
गणेश चतुर्थी की हार्दिक बधाई हो ...
जी सादर आभार आपका, आपकी सुंदर उत्साहवर्ध प्रतिक्रिया से रचना गौरान्वित हुई।
Deleteसादर।
उम्मीद करते हैं आप अच्छे होंगे
ReplyDeleteहमारी नयी पोर्टल Pub Dials में आपका स्वागत हैं
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ReplyDeleteवो झांक रहे हैं इधर उधर
टिमटिम कर अंबक मटकाते
नीलाम्बर की बाहों में घिर
मणिकांत मणी से मनभाते
दौड़ धूप से क्लांत शिथिल अब
निर्निमेष आँखें ठहरी है।। वाह, प्रकृति की स्वर्णिम आभा बिखेरती सुन्दर पंक्तिया, नायाब रचना ।
आपकी सराहना से रचना को नये आयाम मिले जिज्ञासा जी,
Deleteमन हर्षित हुआ,उर्जा वान प्रतिक्रिया।
सस्नेह।
मन मोहक रचना!
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteरचना सार्थक हुई।
सस्नेह।
बहुत बहुत आभार आपका,पाँच लिंक पर रचना को मान देने के लिए।
ReplyDeleteमैं लिंक पर उपस्थित रहूंगी।
सादर।