Sunday, 28 February 2021

दुल्हन के मनोभाव


 दुल्हन के मनोभाव


मेघ ने छेड़ा मधुर स्वर 

झांझरें झनकी मलय में 

बूँद बरसी चाव से तब 

पाँव थिरके फिर निलय में।


फिर विदा हो एक दुल्हन 

व्योम को निज हाथ में धर 

रोम में  पुलकन मचलती 

लो चली नयना सपन भर 

प्रीत की रचती हथेली 

गूँज शहनाई हृदय में।। 


पाँव रखती धैर्य से वो 

साँस अटकी जा रही है

और आँखे द्वार देखे  

कामना बल खा रही है 

मुंह की आभा अनोखी 

केशरी ज्यों रंग पय में ।।


नव जगत की आस ले मन 

हर्ष डर मिल भाव डोले 

झील जैसे दृग भरे से 

होंठ चुप है साज बोले 

लाड़ली आशीष तुम को 

सूर्य आयेगा उदय में।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Thursday, 25 February 2021

लेखनी के रूप


 विधाता छंद 1222-----


लेखनी के रूप


कलम लिखती मसी बहती,नयी रचना मुखर होती।

लिखे कविता सरस सुंदर, नवल रस के धवल मोती।

चटकते फूल उपवन में ,दरकती है धरा सूखी।

कभी अनुराग झरता है, कभी ये ओज से भरती।।


हवा से तेज ये दौड़े, सदावट के खटोले पर।

दवा का घूंट भी ये है, सुधा का है सरस ये वर।

समेटे विश्व की पीड़ा, बहादे प्रेम की गंगा।

गुणों की खान होती है, चले जब लेखनी सर सर ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 23 February 2021

असर अब गहरा होगा


 असर अब गहरा होगा 


तारों ने बिसात उठा ली, असर अब  गहरा होगा ।

चांद सो गया जाके,अंधेरों का अब पहरा होगा ।


फक़त खारा पन न देख, अज़ाबे असीर होगा।

मुसलसल बह गया तो, समन्दर लहरा होगा । 


दिन ढलते ही आंचल आसमां का सुर्खरू होगा।

रात का सागर लहराया न जाने कब सवेरा होगा।


छुपा है पर्दो में कितने, जाने क्या राज़ गहरा होगा।

अब्र के छंटते ही बेनकाब, चांद का चेहरा होगा । 


साये दिखने लगे चिनारों पे, जानें अब क्या होगा।

मुल्कों के तनाव से, चनाब का पानी ठहरा होगा ।

                   

                कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 21 February 2021

दैदिप्य


 दैदिप्य


व्याल के हर बंध में भी 

है महकता प्रज्ञ चंदन 

और घिसता पत्थरों पर 

भाल चढ़ता है निरंजन।


उर समेटे यातनाएं 

होंठ सौम्या रेख बिखरी 

ताप सहकर धूप गहरी 

स्वर्ण जैसे और निखरी 

यूँ हथेली रोक लेती 

चूड़ियों का मौन क्रंदन।।


विश्व की हर योजना में 

तथ्य वांछित है निहित से 

औ प्रकृति अनुमोद करती 

धारणा होती विहित से 

काल जब करवट बदलता 

हास करता घोर स्पंदन।।


भाल पर इतिहास के भी 

कृष्ण सी बहु छाप होती 

बुद्धि जीवी बांचते हैं 

सभ्यताएं कोढ़ ढ़ोती 

और बदले रूप में भी 

कौन बनता दुख निकंदन।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 19 February 2021

शर्वरी का सौंदर्य


 शर्वरी का सौंदर्य


चाँद झुकता शाख पर ज्यों 

फूल का मुख चूमता सा 

साथ में सपने सुहाने 

विश्व सारा घूमता सा।। 


राग छाया पात पल्लव 

जागता अनुराग धानी 

भीगती है ओस कण में 

सिमटती है रात रानी 

और मतवाला भ्रमर भी 

आ गया है झूमता सा ।।


तारकों की ज्योति कोरी 

रौप्य सी आकाश गंगा 

नील अम्बर सैज सोई 

क्षीर का पहने लहंगा 

प्रीत हिंडोले लहर में 

हिय कुसुम कुछ झूलता सा।। 


शर्वरी कोमल सलौनी 

बीतती ही जा रही है 

आँख की बग्घी चढ़ी वो 

नींद देखो आ रही है 

झिंगुरी ताने सुनो सब 

स्वर मधुर वो बोलता सा।। 


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

शर्वरी =रात


शर्वरी =रात्रि

Wednesday, 17 February 2021

जीवन यही है


 गीतिका


जीवन यही है


कुनकुनी सी धूप ने भी बात अब मन की कही है।

कुछ दिनों तक हूँ सुहानी फिर तपे मुझ से मही है।।


आज जो मन को सुहानी कल वही लगती अशोभन।

काल के हर एक पल में मान्यता  ढहती रही है ।।


एक सी कब रात ठहरी आज पूनम कल अँधेरी।

सुख कभी आघात दुख का मार ये सब ने सही है।।


एक ही मानव सदा से चेल कितने है बदलता।

दूध शीतल रूप धरता और कहलाता दही है।


चक्र जैसा घूमता ऊपर कभी नीचे कभी जो।

कह उठा हर एक ज्ञानी बूझ लो  जीवन यही है।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 10 February 2021

चितेरी आत्मा


चितेरी आत्मा

मन पुलका है ये दृश्य देख
आनंद उमड़ा है रेख रेख।

हे पीत वरण पाखी सुन रे
तू बैठा है जिस डाली पे
वो नेह वात में ड़ोल रही
वीणा सी झंकृत बोल रही।।

मन पुलका.....

तू मधु सुरों की सरगम गा
होठों में सुंदर गीत सजा
देख रहा किस ओर सखे
टुकुर टुकुर प्रभात लखे।।

मन पुलका....

तेरी प्यारी कोमल काया 
ये जगत भरम की माया 
बच कर रहना अहेरी से
औ नेह लगाना चितेरी से।।

मन पुलका...

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'।

 

Sunday, 7 February 2021

सृजन


 सृजन


बादलों पर सज उठे लो

रंग धनुषी छाप छपने।


झंझवातों में उलझता 

पांख बांधे मन भटकता

बल लगा के तोड़ बंधन

मोह धागों में अटकता

क्लांत तन बिखरा पड़ा है

बुन रही है रात सपने।।


जब अधूरी आस टूटे

मन सुकोमल भी तड़पता

स्वप्न भीती चित्र जैसा

अधखुली पलकों मचलता

कामना उपधान डाले

लग रही प्रभु नाम जपने।


झांझरे मन की झनकती

मौन नीरव तोड़ती है

तार टूटे थे कभी वो

साधना से जोड़ती है

गीत लिखती लेखनी फिर

धुन पुकारे गीत अपने।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 5 February 2021

स्वागत करो नव बसंत को


 स्वागत करो नव बसंत को


स्वागत करो नव बसंत को

गावो मंगल गान सखी।


आवो सखी आई बहार बसंत 

चहूँ ओर नव पल्लव फूले 

कलियां चटकी 

मौसम में मधुमास सखी।


तन बसंती मन बसंती  

और बसंती बयार 

धानी चुनरओढ़ के 

धरा का पुलकित गात सखी।

   

नई दुल्हन को जैसे 

पिया मिलन की आस 

पादप अंग फूले मकरंद  

मुकुंद भी भरमाऐ सखी। 


स्वागत करो नव बसंत को

गावो मंगल गान सखी।


            कुसुम कोठारी  'प्रज्ञा'

Monday, 1 February 2021

रूपसी


 गीतिका (हिन्दी ग़ज़ल)


रूपसी


खन खनन कंगन खनकते, पांव पायल बोलती हैं।

झन झनन झांझर झनककर रस मधुर सा घोलती हैं।


सज चली श्रृंगार गोरी आज मंजुल रूप धर के।

ज्यों खिली सी धूप देखो शाख चढ़ कर डोलती है।


आँख में सागर समाया तेज चमके दामिनी सा।

रस मधुर से होंठ चुप है नैन से सब तोलती है।


चाँद जैसा आभ आनन केसरी सा गात सुंदर।

रक्त गालों पर घटा सी लट बिखर मधु मोलती है।


मुस्कुराती जब पुहुप सी दन्त पांते झिलमिलाई।

सीपियाँ जल बीच बैठी दृग पटल ज्यों खोलती है।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'