दुल्हन के मनोभाव
मेघ ने छेड़ा मधुर स्वर
झांझरें झनकी मलय में
बूँद बरसी चाव से तब
पाँव थिरके फिर निलय में।
फिर विदा हो एक दुल्हन
व्योम को निज हाथ में धर
रोम में पुलकन मचलती
लो चली नयना सपन भर
प्रीत की रचती हथेली
गूँज शहनाई हृदय में।।
पाँव रखती धैर्य से वो
साँस अटकी जा रही है
और आँखे द्वार देखे
कामना बल खा रही है
मुंह की आभा अनोखी
केशरी ज्यों रंग पय में ।।
नव जगत की आस ले मन
हर्ष डर मिल भाव डोले
झील जैसे दृग भरे से
होंठ चुप है साज बोले
लाड़ली आशीष तुम को
सूर्य आयेगा उदय में।।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'