अथाह सागर में, अनंत प्यास
सब अपनी चाल चले
मध्यम,द्रुत गति,
कोई रुके, ठहरे।
अथाह सागर में
मीन की प्यास की
कोई थाह नही
चले निरन्तर
किसकी तलाश
कोई नही जाने
ढूंढ रही है क्या ?
वो सुधा ! जो
सुर ,सुरपति,
ले के दूर चले
या उत्कर्ष करने
निज प्राण व्याकुल
गरल घट लखे
अनंत में यों डोले
फिर भी मन वेदना
का एक तार ना खोले
कब तक यूंही भटकेगी
प्यास अबूझ लिये ।
कुसुम कोठारी ।
सब अपनी चाल चले
मध्यम,द्रुत गति,
कोई रुके, ठहरे।
अथाह सागर में
मीन की प्यास की
कोई थाह नही
चले निरन्तर
किसकी तलाश
कोई नही जाने
ढूंढ रही है क्या ?
वो सुधा ! जो
सुर ,सुरपति,
ले के दूर चले
या उत्कर्ष करने
निज प्राण व्याकुल
गरल घट लखे
अनंत में यों डोले
फिर भी मन वेदना
का एक तार ना खोले
कब तक यूंही भटकेगी
प्यास अबूझ लिये ।
कुसुम कोठारी ।
कई बार प्यास जल से नहीं बुझती ...
ReplyDeleteअथाह सागर भी कम पद जाता है ... मन की प्यास ऐसी होती है ...
जी हां सही कहा आपने कहते हैं पानी में मीन प्यासी।
Deleteव्याख्यात्मक प्रतिक्रिया का सादर आभार आपका।
मन की तृष्णा का अत्यन्त सुन्दर निरुपण । गंभीर विषय पर सुन्दर सृजन कुसुम जी ।
ReplyDeleteबहुत सा आभार आपका बहुत सुंदर विश्लेषणात्मक चिंतन।
Deleteकुसुम दी, मन की प्यास कभी बुझती नहीं। इस बात को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया हैं आपने।
ReplyDeleteबहुत सा स्नेह आभार ज्योति बहन सुंदर प्रतिक्रिया आपकी। अगर वापस लिंक पर आयें तो मेरी टीका जरूर पढिये गा।
Deleteसस्नेह।
गहन विषय पर आपकी गहन दृष्टि से रचना को सार्थकता मिली मीना जी ।आपने सही कहा तृष्णा का कोई अंत नही।
ReplyDeleteमुझे एक नई सोच मिली ।
मैने आत्मा को प्रतिपादित किया पर तृष्णा भी सटीक है।
मेरे विचार...
कहते हैं समुद्र मंथन में सुधा (अमृत) और गरल घट (बिष का घड़ा) दोनो निकले थे।
हम देखते हैं मीन (मछली) निरंतर पानी में तैरती रहती है बैचेन सी
यहाँ मीन आत्मा का बिंब है जो भटकती रहती है संसार सागर में लगता है या तो सुधा पीकर अमर होना चाहती है या फिर गरल घट पी कर प्राण उत्सर्ग करना चाहती है पर कुछ भी नही पाती यहां। संसार की विसंगतियों में फसा जीव जिसे वांछित नही मिलता। सुधा सुर( देवता) और सुरपति (इंद्र) फिर एक बिंब है.. याने आध्यात्मिक चिंतन से जो सिद्धित्व पाते हैं । और विष भी तो नही मिलता उसे शिव जैसे कई विश्व कल्याण हेतू पी गये। तो ये प्यासी आत्मा रूपी मछली न जाने कितनी सदियों तक अनंत में भटकती रहेगी अपनी कभी न बुझने वाली प्यास लिये।
अथाह सागर में
ReplyDeleteमीन की प्यास की
कोई थाह नही
चले निरन्तर
किसकी तलाश
कोई नही जाने
ढूंढ रही है क्या ?सच कहाँ बुझती है मन की प्यास बहुत ही बेहतरीन रचना सखी
सखी आपकी प्रतिक्रिया से रचना को प्रवाह मिला ।
Deleteसस्नेह आभार।
गूढ़ दर्शन. बेहद सुंदर अभिव्यक्ति कुसुम दी
ReplyDeleteगहन दृष्टि को नमन सुधा बहन।
Deleteसस्नेह आभार ।
गंभीर विषय पर बढ़िया लिखा है कुसुम जी
ReplyDeleteजी सादर आभार आपका प्रोत्साहन मिला।
Deleteप्रिय कुसुम बहन आपने अपनी रचना को टिप्पणी रूप में खुद ही बड़े सुंदर घनग से परिभाषित कर दिया | संभवतः संसार में अप्राप्य की खोज ही मोहमाया और हर लिप्सा का मूल है | ये खोज उसी तरह है जैसे पानी में डूबती तैरती मछली की जल के लिए लालसा | सार्थक सृजन के लिए साधुवाद |
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