Saturday, 31 July 2021

मुंशी जी की जन्म जयंती पर

युग प्रवर्तक ,साहित्य शिरोमणि,

आधुनिक हिंदी कहानी के पितामह, उपन्यास सम्राट

मुंशी प्रेमचंद।

अगर आपके पास थोडा सा हृदय है तो क्या मजाल की मुंशी जी की कृतियां आपकी आँखें ना भिगो पाये, जीवन के विविध रूपों के हर पहलूओं पर उन्होंने जो चित्र उकेरे हैं वो विलक्षण है ।

उन्होंने कथा ,उपन्यासों को मनोरंजन,तिलिस्म और फंतासी से बाहर निकाल सीधे यथार्थ के धरातल पर खडा कर दिया । यथार्थ भी ऐसा जिससे आभिजात्य कहलाने वाला वर्ग अनजान था या कन्नी काट रहा था ।

उनकी रचनाओं में दर्द ऐसे उभर कर आता है कि सारे बदन में सिहरन भर देता है, इस कठोर सत्य को पढने में भी उकताहट  कहीं हावी नही होती, रोचकता से  प्रवाह में बहता लेखन ,सहज व्यंग और हल्का हास्य का पुट पाठक को बाँधे रखता है ।

उन्होनें आम व्यक्ति की समस्याओं भावनाओं और परिस्थितियों का इतना मार्मिक वर्णन किया है कि यह कह सकते हैं उनका साहित्य संसार, हिन्दुस्तान के सबसे विशाल तबके का  संसार है।

प्रेम चंद का साहित्य का महत्व भारत में ही नही विदेशों में भी समादृत है।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Wednesday, 28 July 2021

लक्ष्य बुलाता


लक्ष्य बुलाता


जीत कर देखा बहुत

खेलते हैं हार तक।

इक नया सोपान रख

बादलों के द्वार तक।


झिलमिलाता है गगन

शर्वरी इठला रही

नाचती है कौमुदी

रूप श्रृंगारे मही

आज स्नाता सी लगे

स्रोत की हर धार तक।।


मूक न्योता दे रहा

राजसी वैभव छले

बज उठी पायल हठी

लो कई सपने पले

मन मयूरा नाचता 

आखिरी झंकार तक।।


गाँव वो जो दूर है

सत्य है या है भरम

दूर इतना लक्ष्य है

राह टेढ़ी या नरम

बैल गाड़ी में चलो

चाँद के उस पार तक।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 25 July 2021

तिमिर के पार जिजीविषा


 तिमिर के पार जिजीविषा 


दूर तिमिर के पार 

एक आलौकिक 

ज्योति-पुंज है।

एक ऐसा उजाला

जो हर तमस  पर भारी है।

अनंत सागर में फंसी

नैया हिचकोले खाती है।

दूर-दूर तक कहीं 

प्रतीर नजर नहीं आते हैं।

प्यासा नाविक 

नीर की बूँद को तरसता है‌।

घटाएँ घनघोर

पानी अब बरसने को 

विकल है ।

अभी सैकत से अधिक

अम्बू की चाहत है।

पानी न मिला तो प्राणों का

अविकल गमन है।

प्राण रहे तो किनारे 

जाने का युद्ध अनवरत है।

लो बरस गई बदरी

सुधा बूँद सी शरीर में दौड़ी है ।

प्रकाश की ओर जाने की

अदम्य प्यास जगी  है ‌

हाथों की स्थिलता में 

अब ऊर्जा  का संचार है।

समझ नहीं आता प्यास बड़ी थी

या जीवन बड़ा है।

तृषा बुझते ही 

फिर जीवन के लिये संग्राम शुरू है।

आखिर वो तमिस्त्रा के

उस पार कौन सी प्रभा है  

और ये कैसी जिजीविषा है।।


       कुसुम कोठारी।

Wednesday, 21 July 2021

चाय सुधा रस


 चाय सुधा रस


उठ भगाना भूत आलस

और मन जाये बहल ये।।


आँच पर पानी बिठाया

एक चम्मच कूट अदरक

मुंह से भी भाप निकले

खोल आये जल्द मनलख

चाय के बिन अब कहाँ है

ठंड में जीवन सरल ये।।


बलवती ये सोम रस सी

गात में भर मोद देती

काँच रंगे पात्र में भर

हर घड़ी आमोद देती

इक तरह का है नशा पर

मधुरिमा बहती तरल ये‌।।


हर दिवस का राग प्यारा

मेहमानों को लुभाती

नाथ निर्धन भेद कैसा

रंग बैठक में जमाती

लाल काली दूधवाली

रूप इसका है अचल ये।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 18 July 2021

क्लांत सूरज


  क्लांत सूरज


दिन चला अवसान को अब 

नील  नभ पर स्वर्ण घेरा 

काल क्यों रुकता भला कब 

रात दिन का नित्य फेरा ।।


थक चुका था सूर्य चलकर 

क्लांत मन ढलता कलेवर 

ढ़ांकता कलजोट कंबल 

सो गया आभा  छुपाकर 

ओढ़ता चादर तिमिरमय 

सांझ का मध्यम अँधेरा।।


झिंगुरी हलचल मची है 

दीप जलते घाट ऊपर 

उड़ रहे जुगनू दमकते 

शांत हो बैठा चराचर 

लो निकोरा चाँद आया 

व्योम पर अब डाल डेरा।।


हीर कणिका सा चमकता 

कांति मय है तारिका दल 

पेड़ पत्तो में छुपी जो 

चातकी मन प्राण हलचल 

दूर से निरखे प्रिया बस 

चाव मिलने का घनेरा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'।

Friday, 16 July 2021

भाव शून्य


 भाव शून्य


क्रूर सोच जगती में बढ़ती

पाप कर्म के मेघ सघन।

अपना ही सब संगम रचते

बने टनाटन कर नाहन ।।


भाव शून्य हैं पाथर जैसे

गर्म तवे ज्यों बूंद गिरी

संवेदन सब सूख गये हैं

मानवता अवसाद घिरी

कण्टक के तरुवर को सींचा

पुष्प महकता कब उपवन।।


मानव और पशु का अंतर 

जिनको समझ नहीं आता

उनसे आशा व्यर्थ पालना 

जिनको निज यश ही भाता

अर्थ नाम लिप्सा में उलझे

अहम समेटे हैं जो मन।।


दान पुण्य का खूब दिखावा

उजली चादर मन काला 

पीठ पलटते ताव दिखाते

हाथ फेरते झूठी माला

अंतस मैला वहीं जमा है

खूब रगड़ते है बस तन।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 10 July 2021

मौसम


 मौसम 


गंध  लेकर पुष्प महके

आ गया मौसम सुहाना

बोल बोले भृंग भोले

कोकिला गाती तराना।।


कल्पना में तीर यमुना

श्याम का आनन सलौना

राधिका थी मानिनी सी

बांसुरी का इक खिलौना

साथ हरि सब नाचते थे

प्रीत का अनुपम खजाना ।।


भूल बैठे उस समय को

गागरी पर साज बजता

बालु के शीतल तटों पर

मंडली का कल्प सजता

चाँद की उजली चमक में

झूम उठता मन दिवाना।।


कंठ से सरगम मचलती

ताल लय सुर भी महकते

कुछ क्षणों में नव सृजन के

भाव मधुरस बन बहकते

आज मुखड़ा ढूँढता है

गीत अपना ही पुराना।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Monday, 5 July 2021

पावस गीत


 पावस गीत


बादल चले ठन के

समर को जीत चतुरंगी।

जल भार लादा है

बनी सौदामिनी संगी ।।


चाबुक पवन मारे

सिसकती है घटा काली

रोये नयन सौ भर 

तपन के तेज की पाली

आया बरसके अब

जलद लघु काय बजरंगी।।


पावस सदा आता

करें सब लोग अगवानी

धागे बिना देखो

प्रकृति सिलती वसन धानी

है व्योम भी चंचल

पहनता पाग सतरंगी।।


संगीत है अनुपम

नगाड़े दे धमक बजते 

आषाढ़ अब बरसा

गगन में मेघ भी सजते 

वर्षा मधुर सरगम

बजे ज्यूँ वाद्य सारंगी।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 1 July 2021

हीर कणिकााएं


हीर कणिकााएं
 

ये रजत बूंटो से सुसज्जित नीलम सा आकाश,

ज्यों निलांचल पर हीर कणिकाएं जडी चांदी तारों में,


फूलों  ने भी पहन लिये हैं वस्त्र किरण जाली के,

आई चंद्रिका इठलाती पसरी लतिका के बिस्तर में।


विधु का कैसा रुप मनोहर तारों जडी पालकी है,

भिगोता सरसी हरित धरा को निज चपल चाँदनी में ।


स्नान करने उतरा हो ज्यों निर्मल शांत झील में।

जाते-जाते छोड़ गया कुछ अंश अपना पानी में ।


ये रात है या सौगात है अनुपम  कोई कुदरत की,

जादू जैसा तिलिस्म फैला सारे  विश्व आंगन में।।


              कुसुम कोठारी  'प्रज्ञा'