मेधा और मन
द्रोह उपजता प्रज्ञा में पर
कहलाता कोमल मन काला
छोटी छोटी बातों रचता
नया नया फिर फिर घोटाला।।
मनन पथिक विस्मृत भूला सा
होके अविवेकी फिर फँसता
चाहे सामने सभी प्रिय हो
पिछे जगत पर सारा हँसता
मति की पीछे क्या क्या भुगते
लगा बड़ा है गड़बड़ झाला ।।
कुछ अवधि तक रहे कृतज्ञता
मर कर फिर सदगति को पाती
उसे समझ कर्तव्य किसीका
भावों की मति मारी जाती
करते हैं विद्रोह वहीं क्यों
उम्मीदों ने जिनको पाला।।
जीवन यात्रा कैसी अबूझ
कौन इसे समझा है अब तक
चक्र चले ये चले निरन्तर
मेधा सृष्टि रहेगी जब तक
मतभेद अवसाद साथ रहे
चले सदा भावों का भाला।।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'