Tuesday, 12 November 2019

ढोल की पोल

अब सिर्फ देखिये, बस चुप हो देखिए
पांव की ठोकर में,ज़मी है गोल कितनी देखिए।

क्या सच क्या झूठ है, क्या हक क्या लूट है,
मौन हो सब देखिए, राज यूं ना खोलिए,
क्या जा रहा आपका, बेगानी पीर क्यों झेलिए,
कोई पूछ ले अगर, तो भी कुछ ना बोलिए ।
अब सिर्फ देखिए, बस चुप हो देखिए ।

गैरत अपनी को, दर किनार कर बैठिए,
कुछ दिख जाय तो, मुख अपना मोडिए ,
कुछ खास फर्क पडना नही यहां किसीको,
कुछ पल में सामान्य होता यहां सभी को ।
अब सिर्फ देखिए, बस चुप हो देखिए।

ढोल में है पोल कितनी बजा-बजा के देखिए,
मार कर ठोकर या फिर ढोल को ही तोड़िए,
लम्बी तान सोइये, कान पर जूं ना तोलिए,
खुद को ठोकर लगे तो,आंख मल कर बोलिए।
अब सिर्फ क्यों देखिये, लठ्ठ बजा के बोलिए।

                 कुसुम कोठारी

5 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 13 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. हर थाप के साथ पोल खुल जाती है आज़कल।
    सुंदर रचना।

    आपकी नज़र के इंतजार में 👉👉 ख़ाका 

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  3. ढोल में है पोल कितनी बजा-बजा के देखिए,
    मार कर ठोकर या फिर ढोल को ही तोड़िए,
    लम्बी तान सोइये, कान पर जूं ना तोलिए,
    खुद को ठोकर लगे तो,आंख मल कर बोलिए।
    अब सिर्फ क्यों देखिये, लठ्ठ बजा के बोलिए। वाह बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति सखी।

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  5. बहुत खूब!! व्यवहारिकता के नाम पर जो विसंगतियां देखने को मिलती हैं उनको बहुत उम्दा लिखा है आपने ।
    बहुत सुन्दर सृजन कुसुम जी ।

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