Sunday, 1 July 2018

अभिशप्त न रहो

अभिशप्त न रहो

क्यों बांध रखा है स्वयं को
बांध के पानी की तरह
तुम उतंग पहाड़ों का सरगम हो
निर्झर बन निकल पड़ो
सुसुप्त स्रोतो से
बह निकलो नदी की
उन्मुक्त धार बनके
सागर सा अंतर मंथन लिये
प्रशांत हो बैठे क्यों हो
क्यो बेकल हो लहरों की तरह आजाद किनारों से खेलते नही
अरमानों को सजाओ
अभिशप्त न करो
अभिलाषाओं का दमन न करों
ये पल ये समय बीते हुवे क्षण
कभी भी नही आयेंगे लौट
जो संजोना हो अभी बस अभी
समय की निर्बाध धारा मे
निःसहाय से न बहो
तैर कर आंनद उठाओ
टूटे पत्ते नही कि हवा का झोंका             
या जल तंरग बहा ले जाय तुम्हें
हवाओं के रुख पर हर कोई बहता है
विपरीत दिशा मे राह बनाओ
कुछ भी करो बस अभिशप्त न रहो।
युग का महा संगीत सुनो
मन का अह्लाद मुखरित करो
सिर्फ जीने के लिये नही जीयो
गरल नही जीवन अमृत पीयो।

          कुसुम कोठरी।

13 comments:

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    1. सादर आभार लोकेश जी।

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  2. वाहहह... वाहहह...👌👌👌👌 बेहद सुंदर सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण जीवन में खुशियों की आस जगाती रचना।

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    1. सस्नेह आभार प्रिय आपकी सराहाना सदा मन खुश कर देती है।

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  3. वाह दीदी जी बेहद सुंदर
    नकारात्मक सोच के बंधन से मुक्ती दिला नव ऊर्जा का संचार करती सकारात्मक रचना
    अद्भुत

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    1. सस्नेह आभार आंचल बहन आपकी व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया लेखन को सदा उत्साहित करती है।

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  4. This comment has been removed by the author.

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  5. समय की निर्बाध धारा मे
    निःसहाय से न बहो
    तैर कर आंनद उठाओ बहुत सुंदर रचना कुसुम जी

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    1. सस्नेह आभार अनुराधा जी आपकी प्रतिक्रिया लेखन को संबल देती सी मनभावन।

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  6. जीवन रुपी अमृत पीने का आह्वान करती सुन्दर रचना ...
    इस धरा के विपरीत बहने और अपना मार्ग बनाने मिएँ जो सुख है उसे प्राप्त करना जीवन है ... भावपूर्ण रचना ...

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    1. सादर आभार, आपकी विशिष्ट प्रतिक्रिया और सराहना रचना को विस्तार और आलंबन प्रदान करती सी ।

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  7. लेखनी के तेज से मन प्रेरित हुआ जाय
    मैं भी कुछ टिप्पणी करूँ मुझको रही उकसाय
    मुझको रही उकसाय मुझे कुछ समझ न आए
    इस श्रेष्ठतम कृति हेतु कोई शब्द न भाए
    मन कहता बारंबार बस ताली बजाऊँ
    लेखन हो जाए धन्य जो ऐसी कृपा मैं भी पा जाऊँ।।
    👏👏👏👏👏👏

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    1. आपके स्नेह के प्रतिदान मे मेरे पास कोई शब्द नही मीता अतिशयोक्ति भी मन लुभा रही है ढेर सारा प्यार।

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