भिन्नता
अपनी अपनी सोच अनूठी
अपनी खुशियांँ अपना डर।
एक पात लो टूट चला है
तरु की उन्नत शाखा से
एक पात इतराता ऊपर
झाँक रहा है धाका से
छप्पन भोगों पर इठलाती
पत्तल भाग्य प्रशंसा कर।।
व्यंजन बस रस की है बातें
स्वाद भूख में होता है
एक थाल को दूर हटाता
इक रोटी को रोता है
पेट भरा तो कभी पखेरू
दृष्टि न डाले दाने पर।।
समय समय पर मूल्य सभी का
कहीं अस्त्र लघु सुई बड़ी
प्राण रहे तन तब धन प्यारा
सिर्फ देह की किसे पड़ी
सदा कहाँ होता है सावन
घूम-घूम आता पतझर।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'