सुधी सवैया दो रचना भावार्थ सहित।
चाँद और उद्धाम लहरें
उतंग तरंग नदीश हिय में, प्रवात प्रवाह बहाता बली।
अधीर हिलोर कगार तक आ, पुकार सुधांशु उठी वो चली।
चढ़े गिरती हर बार उठती, रहे जलधाम सदा श्यामली।
पयोधि कहे प्रिय उर्मि सुनना, कलानिधि है छलिया ज्यों छली।।
सागर की सीख लहर को
तुम्ही सरला नित दौड़ पड़ती, छुने उस चन्द्र कला को चली।
न हाथ कभी लगता कुछ तुम्हें, तपी विरहा फिर पीड़ा जली।
प्रवास सदा मम अंतस रहो, बसो तनुजा हिय मेरे पली।
न दुर्लभ की मन चाह रखना, मयंक छुपे शशिकांता ढली ।।
भावार्थ:-
पूर्णिमा और अमावस्या के आसपास सागर में लहरें कुछ ज्यादा ही तेज और ऊंची होती है । ये दो रचना शुक्ल पक्ष के चांद और लहरों की उद्वेलन को आधार रख लिखी गई है।
सागर के हृदय में ऊँची लहरें उठ रही है, तेज वायु प्रवाह को और बलवान कर रही है।
लहरें अधीर होकर किनारों की और आती है और सुधाँशु यानि चाँद को पुकार कर कहती है कि वो आ रही है अपने चाँद के पास।
चढ़ती हैं फिर गिर जाती हैं हर बार वो श्यामल लहरें सदा समुद्र में ही रह जाती हैं।
सागर कहता है हे प्रिय उर्मि सुन कलानिधि (चंद्रमा तो सदा का छलिया है छली ही उसका नाम होना चाहिए।
दूसरा सवैया
तुम तो सरला हो सरल मन की मोह वश उस चंद्रकला को छुने के लिए दौड़ पड़ती हो।
पर तुम्हारे हाथ कुछ भी तो नहीं आता बस विरह की पीड़ा में तपती हो जलती हो।
तुम सदा मेरे अंतस में रहो, मेरी प्रिय पूत्री मेरे हृदय में पली हो तुम।
कभी भी दुर्लभ की कामना मन में नहीं करो, सुनो जैसे ही चाँद ढलेगा शशिकांता (चाँदनी) भी ढल जाएगी जिस को देख तुम सम्मोहित हो।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'