Tuesday, 31 May 2022

तेजल सवैया के दो सृजन।


 तेजल सवैया के दो  सृजन।

२ ११२ ११२ ११२ ११, 

२ ११२ ११२ ११२ २ ।


पनिहारिन


वो झँझरी झनकी झन झन्नक,

पायल बोल रसी स्वर बोले।

नार सजी सज के चलदी वह,

गागर सुंदर ले सिर तोले ।

घाट चढ़ी जल में रखती पग,

हाथ उठा निज घूंघट खोले।

ओह मनोरम रूप उजागर,

देख मिलिंद छली मुख डोले।।


नार नवेली

मारुत जो फहरी चलती अब,

वो मदरी मदरी मन भाई।

आज कई सपने दिखते नव,

आँख झुकी बदरी घिर आई।

आँचल लाल उड़ा सिर से सर,

लो लट श्यामल सी लहराई।

सुंदर रूप दिखे सलिला जल,

मंजुल सी छवि वो सकुचाई।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 26 May 2022

अमलतास की शोभा


 अमलतास की शोभा


पीत वर्णी पुष्प दल से

वृक्ष दल शोभित भले

रम्य मोहक रूप मंजुल

काँति पट दीपक जले।


ग्रीष्म ऋतु में मुस्कुराते

सूर्य सी आभा झरे

जब चले लू के थपेड़े

आँख शीतलता भरे

राह चलते राहगीर को

धूप में पंखा झले।।


अंग औषधि का खजाना

व्याधिघाती धर्म है

सुनहरी फूहार पादप

और कितने मर्म है

देव नगरी सी अनुपमा

छाँव इसके ही तले।।


स्वर्ण झूमें शाख शाखा

भूषणों का चाव है

पात तक जब छोड़ते

रुक्ष मौसम घाव है

तब तुम्हीं श्रृंगार करते

हो भ्रमित मधुकर छले।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 22 May 2022

निराशा को धकेलो।


 निराशा को धकेलो


चारों ओर जब निराशा

के बादल मंडराए

प्रकाश धीमा सा हो

अंधेरा होने को हो

कुछ भी पास न हो

किसी का साथ न हो

मन डूबा सा जाए

कुछ समझ न आए

तब एक बार शक्ति लगाकर

अपने खोये आत्मविश्वास 

को ललकारो, उठो चलो

लगेगा मैं चल सकता हूँ

आने वाली सूर्य रश्मियाँ

काफी चमक के साथ

स्वागत करेगी

यह निश्चय ही होगा

मन  में  ठान  लो।।


  कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 19 May 2022

फिर एक गीत लिख तू


 फिर एक गीत लिख तू


फिर एक गीत लिख तू

अर्पित मन मेरे

सूरज को ठंडक दे 

कल्पित मन मेरे।


तन्वंगी सरिता रोती

नीर बहेगा क्या

वसुधा का आँचल जर्जर 

बचा रहेगा क्या

तर्पित मन मेरे।।


फिर एक गीत लिख तू।


हाहाकार मचा भारी

चैन नहीं थोड़ा

दुख के बादल गहरे

सुख ने मुख मोड़ा

अल्पित मन मेरे।।


फिर एक गीत लिख तू।


घोर प्रभंजन दुखदाई

काल घड़ी लगती

चार दिशा में वात युद्ध

जल रही जगती 

जल्पित मन मेरे।।


फिर एक गीत लिख तू।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'



अर्पित=अर्पण किया हुआ

कल्पित=कल्पना किया हुआ

तर्पित=तर्पण किया हुआ

अल्पित =उपेक्षित

जल्पित=मिथ्या

Sunday, 15 May 2022

साहिल पर नाँव लिए बैठें हैं


 जो फूलों सी ज़िंदगी जीते काँटे हज़ार लिये बैठे हैं।

दिल में फ़रेब होंठों पर झूठी मुस्कान लिये बैठें हैं। 


ऊपर खुला आसमां ख्वाबों के महल आँखों में।

कुछ टूटते अरमानों का ताजमहल लिये बैठें हैं। 


सफेद दामन दिखते जिनके दिल दाग़दार हैं उनके।

एक भी तो ज़वाब नहीं सवाल बेशुमार लिये बैठें हैं। 


हंसते हुए चेहरों के पीछे छुपे दिल लहूलुहान से।

क्या लें दर्द किसी का अपने हज़ार लिये बैठें हैं। 


टुटी कश्ती वाले हौसलों की पतवार पर सवार।

डूबने से डरने वाले साहिल पर नाव लिये बैठें हैं।


              कुसुम  कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 11 May 2022

कौन पढ़े मेरी कविता।


 कौन पढ़े मेरी कविता


चिर निद्रा के आलिंगन में

उतरेगा थक कर सविता

कह दो इसके बाद जगत में

कौन पढ़े मेरी कविता।


आखर-आखर श्वांस पिरोई

भावों की है रंगोली 

अंतर का आलोक उजासित

ज्यों केसर की है होली 

समतल या पथरीली राहें

रही लेखनी बन भविता।।


कह दो इसके बाद जगत में

कौन पढ़े मेरी कविता।।


पत्राजन रंग श्वेत पाने 

भाग्य अपना बाँचते हैं

मेघा पुर में स्वर्ण कितना

धर्म काँटे जाँचते हैं

ज्यों आँखों से ओझल राही 

जन मानस पट की धविता।।


कह दो इसके बाद जगत में

कौन पढ़े मेरी कविता।।


भाषा का आडम्बर हो या

भावों के माणिक मोती

निज हृदय उदगार अनुपम

गंगा जल से नित धोती

मन की बातें बूझे कोई

बने कौन दृष्टा पविता।‌।


कह दो इसके बाद जगत में

कौन पढ़े मेरी कविता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 8 May 2022

सुधी सवैया के दो सृजन


 सुधी सवैया दो रचना भावार्थ सहित।


चाँद और उद्धाम लहरें


उतंग तरंग नदीश हिय में, प्रवात प्रवाह बहाता बली।

अधीर हिलोर कगार तक आ, पुकार सुधांशु उठी वो चली।

चढ़े गिरती हर बार उठती, रहे जलधाम सदा श्यामली।

पयोधि कहे प्रिय उर्मि सुनना, कलानिधि है छलिया ज्यों छली।।


सागर की सीख लहर को


तुम्ही सरला नित दौड़ पड़ती, छुने उस चन्द्र कला को चली।

न हाथ कभी लगता कुछ तुम्हें, तपी विरहा फिर पीड़ा जली।

प्रवास सदा मम अंतस रहो, बसो तनुजा हिय मेरे पली।

न दुर्लभ की मन चाह रखना, मयंक छुपे शशिकांता ढली ।।


भावार्थ:-

पूर्णिमा और अमावस्या के आसपास सागर में लहरें कुछ ज्यादा ही तेज और ऊंची होती है । ये दो रचना शुक्ल पक्ष के चांद और लहरों की उद्वेलन को आधार रख लिखी गई है।


सागर के हृदय में ऊँची लहरें उठ रही है, तेज वायु प्रवाह को और बलवान कर रही है।

लहरें अधीर होकर किनारों की और आती है और सुधाँशु यानि चाँद को पुकार कर कहती है कि वो आ रही है अपने चाँद के पास।

चढ़ती हैं फिर गिर जाती हैं हर बार वो श्यामल लहरें सदा समुद्र में ही रह जाती हैं।

सागर कहता है हे प्रिय उर्मि सुन कलानिधि (चंद्रमा तो सदा का छलिया है छली ही उसका नाम होना चाहिए।


दूसरा सवैया

तुम तो सरला हो सरल मन की मोह वश उस चंद्रकला को छुने के लिए दौड़ पड़ती हो।

पर तुम्हारे हाथ कुछ भी तो नहीं आता बस विरह की पीड़ा में तपती हो जलती हो। 

तुम सदा मेरे अंतस में रहो, मेरी प्रिय पूत्री मेरे हृदय में पली हो तुम।

कभी भी दुर्लभ की कामना मन में नहीं करो, सुनो जैसे ही चाँद ढलेगा शशिकांता (चाँदनी) भी ढल जाएगी जिस को देख तुम सम्मोहित हो।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 2 May 2022

भावों के मोती


 भावों के मोती


भावों के मोती जब बिखरे

मन की वसुधा हुई सुहागिन


आज मचलती मसी बिखेरे

माणिक मुक्ता नीलम हीरे

नवल दुल्हनिया लक्षणा की

ठुमक रही है धीरे-धीरे

लहरों के आलोडन जैसे

हुई लेखनी भी उन्मागिन।।


जड़ में चेतन भरने वाली

कविता हो ज्यों सुंदर बाला

अलंकार से मण्डित सजनी

स्वर्ण मेखला पहने माला

शब्दों से श्रृंगार सजा कर

निखर उठी है कोई भागिन।


झरने की धारा में बहती

मधुर रागिनी अति मन भावन

सुभगा के तन लिपटी साड़ी

किरणें चमक रही है दावन

वीण स्वरों को सुनकर कोई

नाच रही लहरा कर नागिन।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'