Friday, 14 January 2022

पुस्तकों का अवसाद


 पुस्तकों का अवसाद


पुस्तकें अवसाद में अब

बात कल की सोचती सी

झाड़ मिट्टी धूल अंदर

हम रहें मन रोसती सी।।


माध्यमों की बाढ़ आई

प्रश्न है अस्तित्व ही जब

भीड़ का हिस्सा कहाएं

मान बाकी है कहा अब

शारदा की पुत्रियाँ लो

भाग्य अपना कोसती सी।।


ज्ञान का था सिंधु हम में

शीश पर चढती सदा ही

कौन अब जो पूछता है

हाथ सहलाते कदा ही

काठ की बन पुतलियों सम

खूटियों को खोचती सी।।


रद्दियों सम या बिकेंगी 

या बने कागज पुराने

मौन सिसकी कंठ डूबे

भूत हैं अब दिन सुहाने

ढेर का हिस्सा बनी वो 

देह अपनी नोचती सी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

34 comments:

  1. रद्दियों सम या बिकेंगी

    या बने कागज पुराने

    मौन सिसकी कंठ डूबे

    भूत हैं अब दिन सुहाने

    ढेर का हिस्सा बनी वो

    देह अपनी नोचती सी।।
    बहुत सुंदर सृजन, कुसुम दी।

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    1. हृदय से आभार आपका ज्योति बहन, उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए।
      सस्नेह।

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  2. पुस्तकों के मर्म की व्यथा ।
    मुझे आज भी पुस्तक हाथ में लेकर ही पढ़ने में आनंद आता है ।

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    1. हृदय से आभार आपका संगीता जी। वैसे मुझे भी पुस्तकें बहुत प्यारी है पर अब पहले जैसे सारा दिन उन में ही नहीं रमी रहती इन आधुनिक गैजेट्स ने समय को अपनी तरफ कर रखा है।
      और युवा पीढ़ी तो पुस्तकों से काफी विलग हो रही है।
      सादर सस्नेह।

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  3. पुस्तकें अवसाद में अब

    बात कल की सोचती सी

    झाड़ मिट्टी धूल अंदर

    हम रहें मन रोसती सी।।

    लाजवाब

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    1. हृदय से आभार आपका मनोज जी।
      सादर।

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  4. बहुत बहुत सुन्दर

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    1. हृदय से आभार आपका आलोक जी।
      सादर।

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  5. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (16-1-22) को पुस्तकों का अवसाद " (चर्चा अंक-4311)पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. हृदय से आभार आपका कामिनी जी।
      चर्चा में शामिल होना सदा सुखद अनुभव है।
      मैं चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर।

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  6. पुस्तकों का अवसाद में जाना चिन्तनीय है
    हमारी पीढ़ी पुस्तकों का मान समझती है

    सुन्दर रचना

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    1. जी सही कहा आपने विभा जी पर सत्य को नकारें कैसे कैसे युवा पीढ़ी को पुस्तकों की और आकर्षित करें।
      सस्नेह।

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  7. सत्य को उजागर करती मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति । आज के समय में
    ऑनलाईन रीडिंग के प्रचलन से पुस्तकों के प्रति उदासीनता से देखी जा सकती है। चिंतनपरक सृजन ॥

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    1. लेखन को समर्थन देती टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ मीना जी।
      आज पुस्तकें सचमुच सजावट भर रह गई हैं ।
      सस्नेह आभार आपका।

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  8. आपकी लिखी रचना सोमवार. 17 जनवरी 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. हृदय से आभार आपका संगीता जी पांच लिंक पर रचना को शामिल करने के लिए।
      मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर सस्नेह।

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  9. रद्दियों सम या बिकेंगी

    या बने कागज पुराने

    मौन सिसकी कंठ डूबे

    भूत हैं अब दिन सुहाने

    ढेर का हिस्सा बनी वो

    देह अपनी नोचती सी।।
    उम्दा अभिव्यक्ति आदरणीय , बहुत बधाइयाँ ।

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    Replies
    1. जी हृदय से आभार आपका आदरणीय।
      आपकी समर्थन देती टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
      सादर।

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  10. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
    पुस्तकों की व्यथा की

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    1. जी हृदय से आभार आपका भारती जी ।
      आपकी सार्थक प्रतिक्रिया से लेखन प्रवाह मान हुआ।
      सस्नेह।

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  11. माध्यमों की बाढ़ आई

    प्रश्न है अस्तित्व ही जब

    भीड़ का हिस्सा कहाएं

    मान बाकी है कहा अब

    शारदा की पुत्रियाँ लो

    भाग्य अपना कोसती सी।।... शिल्प के साथ भावों की गहनता सराहनीय है।
    हर बंद कुछ कहता सा।
    सादर

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    1. सस्नेह आभार प्रिय अनिता!मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया।
      आपकी मनमोहक स्नेहिल टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ ।
      सस्नेह।

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  12. रद्दियों सम या बिकेंगी
    या बने कागज पुराने
    मौन सिसकी कंठ डूबे
    भूत हैं अब दिन सुहाने
    ढेर का हिस्सा बनी वो
    देह अपनी नोचती सी।।
    सच को बयां करती बहुत ही उमराव सराहनीय रचना
    ऑनलाइन पढ़ाई के जमाने में खासकर इस कोरोना काल में पुस्तकों की कोई कीमत ही नहीं रही पर सच जो खुशबू पुस्तकों से आती वह किसी इलेक्ट्रॉनिक यंत्र से नहीं आती जिस तरह हम पुस्तकों को उनकी खुशबू से पहचान लेते हैं किसी भी ले कहानी या रचना को पढ़ने में जो आनंद पुस्तकों मैं आता है वह किसी भी यंत्र में नहीं! यह सच है की आज पुस्तकें अपनी किस्मत को कोसते हैं,
    और सऊदी अरब जैसे देशों में तो कुछ वर्षों में एकदम से पुस्तकों का नामोनिशान खत्म होने वाला है क्योंकि वह पेपर फ्री कंट्री हो चुकी है! उसी की देखा देखी बहुत से देश अपने कंट्री को पेपर फ्री करना चाहेंगे जिससे पुस्तकों का अस्तित्व और भी अधिक खतरे में है! शायद कुछ साल बाद पुस्तक जैसी कोई चीज ना बचे..!

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    1. विस्तृत चिंतन परक टिप्पणी मनीषा जी बहुत बहुत आभार आपका, आपने सत्य कहा स्थिति चिंता जनक हैं, एक तरफ कोई पुस्तक पढ़ना नहीं चाहता दूसरी और पुस्तकें छपने की गति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है।
      अब न छापने वालों की कभी है न छपवाने वालों की बस सिर्फ पढ़ने वाले ही नहीं रहे , कभी कभी लगता है बस कागजों की बर्बादी भर है पर्यावरण का बड़ा कारण भी।
      पुनः आभार आपका सस्नेह।

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  13. राद्दियों में भी कहाँ बिकती हैं अब...

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    1. जी सही कहा आपने चिंतनीय स्थिति।
      बहुत बहुत आभार आपका।
      ब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
      सस्नेह।

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  14. वाह दी लाज़वाब सृजन।
    लेखकों का अपना सृजन पुस्तकों में सहेजने का स्वप्न तो पूर्ण हो रहा किंतु पुस्तकों का महत्व पाठक की दृष्टि में विचारणीय है।
    अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण कर मनोभावों का अक्षरशः चित्रण किया है आपने।
    आपकी रचनाएँ सदैव संदेश प्रधान रही हैं बेहद सारगर्भित और विचारणीय भाव लिए सामयिक सृजन।

    प्रणाम दी
    सादर।

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    1. श्वेता आपने मंथन करके विचार रखे हैं सही में पुस्तकें छपवाना अब बस पैसे का तमाशा भर रह गया पढ़ने वाले ही नहीं मिलते ।
      पाठक तो पैसे देकर भी नहीं बन सकते सब अपना मन चाहा इंटर नेट पर पा जाते हैं।
      पुस्तकों की हालत चिंताजनक है, पर सभी उसके उत्तरदाई भी ।
      खैर ..
      आपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ, ढेर सा स्नेह ढेर सा आभार।
      सस्नेह

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  15. माध्यमों की बाढ़ आई

    प्रश्न है अस्तित्व ही जब

    भीड़ का हिस्सा कहाएं

    मान बाकी है कहा अब

    शारदा की पुत्रियाँ लो

    भाग्य अपना कोसती सी।।
    सच में ये कटु सत्य है आज का...किताबों का अस्तित्व औरहम पुस्तक प्रेमियों की भी व्यथा है ये..आज की पीढ़ी हमें विद्या माता को सर आँखों लगाते देख उपहास करती है..
    उन अनछुए से भावों को नवगीत में उकेरा है आपने जिन्हें सिर्फ महसूस रहे हैं हम...
    हमेशा की तरह लाजवाब सृजन
    वाह!!!

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    1. हृदय से आभार आपका सुधा जी आपकी विस्तृत सारगर्भित टिप्पणी से लेखन को समर्थन मिला।
      पुस्तकों की पीड़ा से मन भी अवसाद में आ जाता है ।
      पुनः आभार आपका।
      सस्नेह।

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  16. जिन्होंने चिर संगिनी पुस्तक के प्रेम को जिया है वो हर स्थिति में अपना प्राण न्यौछावर करते रहेंगे । पुस्तकें चिरंजीवी अवश्य होंगी । अति सुन्दर विमर्श ।

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  17. जिन्होंने चिर संगिनी पुस्तक के प्रेम को जिया है, आपके ये शब्द किसी धीर गंभीर साहित्य प्रेमी के ही हो सकते हैं
    नमन, साधुवाद।
    सस्नेह आभार आपका अमृता जी।
    आपके शब्द नव ऊर्जा से हैं सच कहूं तो यहीं निकलता है मुंह से, पुस्तकें चिरंजीवी है ,रहेगी ।
    फिर भी स्थिति चिंताजनक है पुस्तकों के अस्तित्व की ।
    सस्नेह।

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  18. बहुत बढ़िया पुस्तकों का दर्द बयान किया है जो बात पुस्तक पढ़ने में आती है , वो किंडल पर कहाँ । मुझे लगता है पुस्तकें लौटेंगी … चाहे जो प्रसिद्ध हो जायें , वे ही ।आँखों पर इतना ज़ोर पड़ता है , चाहे इस वजह से ही ।

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    1. जी आपका सार्थक चिंतन साकार हो यही प्रार्थना है ।
      सकारात्मक सोच के लिए हृदय से साधुवाद ।
      ब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
      सादर सस्नेह।

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