Thursday, 6 February 2020

पँखुरी ---एक गुलाब की वेदना

" पँखुरी "
एक गुलाब की वेदना ।

काँटो में भी महफूज़ थे हम।
हाँ तब कितने ख़ुश थे हम।

खिल-खिलाते थे ,सुरभित थे ,
हवाओं से खेलते झूलते थे ,
हम मतवाले कितने ख़ुश थे ।

काँटो में भी महफूज़ थे हम।

फिर तोड़ा किसीने प्यार से ,
सहलाया हाथो से ,नर्म गालों से ,
दे डाला हमें प्यार की सौगातों में ।

काँटो में भी महफूज़ थे हम।

घड़ी भर की चाहत में सँवारा ,
कुछ अँगुलियों ने हमे दुलारा ,
और फिर पँखुरी-पँखुरी बन बिखरे ।

काँटो में भी महफूज़ थे हम ।
हां तब कितने  ख़ुश थे हम।।

            कुसुम कोठारी ।

17 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (08-02-2020) को शब्द-सृजन-7 'पाँखुरी'/'पँखुड़ी' ( चर्चा अंक 3605) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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    1. बहुत बहुत आभार आपका चर्चा मंच पर मेरी रचना को लेने के लिए मैं अवश्य उपस्थित रहूंगी।

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 08 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत बहुत आभार आपका मुखरित मौन में आना मेरे लिए खुशी का विषय है।

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  3. फूलों का दर्द बया करती बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति कुसुम जी , सादर नमस्कार

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    1. बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।

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  4. घड़ी भर की चाहत में सँवारा ,
    कुछ अँगुलियों ने हमे दुलारा ,
    और फिर पँखुरी-पँखुरी बन बिखरे ।

    लौकिक प्रेम का यही हाल होता है कुसुम दी।

    इसी पर मैंने भी एक लेख लेखा है दी।
    सम्भवतः आपने पढ़ा हो।

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    1. सटीक सार्थक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार।

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  5. घड़ी भर की चाहत में सँवारा ,
    कुछ अँगुलियों ने हमे दुलारा ,
    और फिर पँखुरी-पँखुरी बन बिखरे । बेहद खूबसूरत रचना सखी 👌👌

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    1. बहुत बहुत आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया से मन प्रसन्न हुआ।

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  6. काँटो में भी महफूज़ होने की कला कोई गुलाब से सीखे .... या फ‍िर ये क‍ि कांटे अपने अस्त‍ित्व को लांक्षना में धकेल गुलाब को महान बना देते हैं ... अद्भु्त

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    1. बहुत बहुत आभार सुंदर सार्थक प्रतिक्रिया से रचना कोगति मिली।
      फर्लांग पर आपकी उपस्थिति सदा वांछित रहेगी ।
      सादर

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  7. घड़ी भर की चाहत में सँवारा ,
    कुछ अँगुलियों ने हमे दुलारा ,
    और फिर पँखुरी-पँखुरी बन बिखरे ।

    काँटो में भी महफूज़ थे हम ।
    हां तब कितने ख़ुश थे हम।।
    वाह!!!
    एक अलग ही दृष्टिकोण
    बहुत लाजवाब।

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    1. सुधा जी बहुत बहुत स्नेह आभार आपका! आपकी प्रतिक्रिया सदा उत्साह वर्धक होती है।
      सस्नेह आभार।

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  8. बहुत सुंदर प्रिय कुसुम बहन। काँटों की महिमा बढ़ाना भी कोई गुलाब से सीखे। उनकी चुभन से ज्यादा उनके मध्य सुरक्षा का भाव यही कहता है, कि किसी की पल की चाहत गुलाब का अस्तित्व समाप्त कर देती है, तो कांटे उसके अस्तित्व को बखूबी संभाल कर रखते हैं। बहुत प्यारी रचना 👌👌👌👌🙏🙏

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    1. आपकी टिप्पणी सदा बहुत विस्तृत और रचनाकार को उर्जा देने वाली होती है रेणु बहन ।
      रचना के समानांतर सुंदर सार्थक ।
      सस्नेह आभार।

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