Friday, 24 January 2020

नव गीत-दीन का दर्द

नवगीत
१६ १०मात्रा।

सर के ऊपर टूटी टपरी
 नही और दावा
उर की पीड़ा बाहर फ़ूटे
 बहती बन लावा ।।

सारा दिन हाड़ों को तोड़ा
जो भी काम मिला,
कभी कीच या रहे धूल में
मिलता रहा सिला ,
अवसादो के घन गहराते
साथ नही मितवा ।
उर की पीड़ा बाहर फ़ूटे
बहती बन लावा ।।

नियती कैसा खेल खेलती
कैसी  ये माया
कहीं बहारों के हैं मेले
कहीं दुःख छाया
दुनिया ये आनी जानी है
झूठा दिखलावा।
उर की पीड़ा बाहर फ़ूटे
बहती बन लावा ।।

आग सुलगी हृदय में ऐसी
दहके ज्यों ज्वाला
बन बैठी है लाचारी अब
चुभती बन भाला
निर्धन कितना बेबस होता
 सत्य यही कड़वा ।
उर की पीड़ा बाहर फ़ूटे
बहती बन लावा।।

कुसुम कोठारी।

1 comment:

  1. बहुत ही सार्थक रचना
    कुसुम दी , इस पीड़ा को मैं तीन दशक से सहन कर रहा हूँ।
    पत्रकार हूँ, धनार्जन का अनेक अवसर आये..
    परंतु वह गीत है ना- सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी..
    हमारे जैसे लोग प्रारब्ध का रोना रोते रहते हैं, क्योंकि गणतंत्र से हम रूबरू नहीं !

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