Sunday, 19 August 2018

आतुर दिल रो रहा

अति वृष्टि और बाढ़ से आहत जन मानस।

प्रलयंकारी  न बन
हे जीवन दायिनी
विनाशिनी न बन
हे सिरजनहारिनी
कुछ तो दया दिखा
हे जगत पालिनी
गांव के गांव
तेरे तांडव से
नेस्तनाबूद हो रहे
मासूम जीवन
जल समाधिस्थ हो रहे
निरीह पशु लाचार,
बेबस बह रहे
निर्माण विनाश में
तब्दील हो रहा
मानवता का संहार देख
पत्थर दिल भी रो रहा
कहां है वो गिरीधर
जो इंद्र से ठान ले।
जल मग्न होगी धरा
पुराणों मे वर्णित है
क्या ये उसका प्राभ्यास है
हे दाता दया कर
रोक ले इस विनाश को
सुन कर विध्वंस को
आतुर दिल रो रहा।

       कुसुम कोठारी।

12 comments:

  1. हृदयस्पर्शी रचना कुसुम जी

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    1. सस्नेह आभार सखी बस आपकी रचना और टीवी
      में न्यूज देखते ही कुछ भाव जगे सो लिख दिये आप सब को पसंद आये भाव शुक्रिया।

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  2. रोक ले विनाश को ...
    इंसान कर्म औरर प्रार्थना ही कर सकता है और हम सब आप मिलके कर रहे हैं ... ये रचना भी उसी का भाग है ...
    ऐसे विनाश से सबक भी लेना होगा इंसान को ...

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    1. जी बहुत बहुत आभार आदरणीय रचना और भाव दोनो को समर्थन मिला।
      सही कहा आपने पर्यावरण से छेड छाड के नमूने हर साल दृष्टि गोचर होते है प्राकृतिक आपदाओं के रूप में।
      सादर।

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  3. सही दी....प्रकृति का इस विनाशकारी रुप ने दहलाकर रख दिया है।
    काश कि मानव सुन पाये प्रलय की आहट।
    हृदयस्पर्शी रचना दी👌

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    1. सच मन कितना विहल हो जाता है, हम कितने मजबूर, जिसमें ऐसा चोर कोई और नही कि घर में घुसने से पहले ठक ठक कर के चेतावनी देता है कि मैं आऊंगा अवश्य ही।
      सस्नेह आभार।

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  4. बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति

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  5. दिल को द्रवित कर गया आपका काव्य ....नमन

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