Sunday, 8 July 2018

चांद भी तपता है

चांद भी तपता है

तपता हुवा चांद उतर आया
विरहन की आंखों मे
चांदनी जला रही है तन- मन,
झरोखे मे उतर उतर
कैसी तपिश है ये
अंतर तक दहक  गया
जेठ की तपती दोपहरी जैसे
सन्नाटे उतर आये मन मे
यादों के गर्म थपेड़े
मन झुलसाय
मुरझाये फूलों सा
रूप कुम्हलाय
नैनो का नीर गालों की
गर्मी मे समा कर सूख जाय
ज्यों धरा के तपते गात पर
तन्वंगी होता नदीयों का पानी
लताओं जैसे निस्तेज
घुंघराले उलझे केश
मलीन चीर की सिलवटें ऐसे जैसे
धरती का सूख कर सिकुड जाना
प्यासे पंछियों सा भटकता मन
उड़ता तृषा शांति की तलाश मे
हां चांद भी तपता है.....
            कुसुम कोठारी ।

8 comments:

  1. यादों के गर्म थपेड़े
    मन झुलसाय
    मुरझाये फूलों सा
    रूप कुम्हलाय
    नैनो का नीर गालों की
    गर्मी मे समा कर सूख जाय सुंदर रचना कुसुम जी

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    1. सुंदर मोहक ढंग आपकी सराहना का ,अतिशय आभार ।

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  2. वाह मीता
    तप्त शब्द और झुलसते भाव
    भरी दुपहरी सा लगा सखी आपका काव्य

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    1. बहुत सा स्नेह सिक्त आभार मीता ।

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  3. वाह दीदी जी लाजवाब रचना
    आपकी कलम
    कभी बरखा बौछार
    कभी उगलता अंगार
    सुंदर 👌

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  4. +anchal pandey कवि मन है जाने कब कौन सा भाव घट मे आ जाऐ ,पर सच ये है कि ये मैने हम कदम के "जेष्ठ की तपिस" पर लिखा था और पोस्ट अब कर रही हूं ।
    ये तो अच्छा है कि चांद तप रहा है रचना मे वर्णा मेघों की बरसती ऋतु मे सूरज जी की तपिश ....

    सस्नेह आभार शानदार प्रतिक्रिया आपकी ।

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  5. वाह सखी सदा की तरह फिर एक शानदार रचना लिखी आप ने .... बहुत सुन्दर

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    1. सस्नेह आभार सखी, आपका प्यार है जो इतना मान देते हो।

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