Sunday, 29 July 2018

लम्हा लम्हा बिगड़ती सिमटती जिंदगी

लम्हा लम्हा बिखरती सिमटती जिंदगी

क्या है जिंदगी का फलसफा
कभी नर्म परदों से झांकती
खुशी सी जिंदगी
कभी तुषार कण सी
फिसलती सी जिंदगी
कभी ख्वाबों के निशां
ढूंढती जिंदगी
कभी खुद ख्वाब
बनती सी जिंदगी
आज हंसाती
कल रूलाती जिंदगी
लम्हा लम्हा बिखरती
सिमटती जिंदगी
कभी चंद सांसों की
दास्तान है जिंदगी
और कभी लम्बी
विराने सी फैली जिंदगी
हर बार निकलता
एक लफ्ज है लब से
क्या है जिंदगी ?
क्या यही है जिंदगी ?

        कुसुम कोठारी ।

8 comments:

  1. कभी खुद ख्वाब
    बनती सी जिंदगी
    आज हंसाती
    कल रूलाती जिंदगी
    लम्हा लम्हा बिखरती
    सिमटती जिंदगी बेहतरीन रचना सखी

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  2. बहुत सुन्दर रचना सखी
    ज़िंदगी को समझने और समझाने का अंदाज़ बहुत अच्छा लगा

    ज़िंदगी की तलाश में निकले थे
    ज़िंदगी ही खो गई
    जाने ये राज़ भी
    कबतक राज़ ही रह जायेगा

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    1. वाह बहुत सुन्दर प्रतिपंक्तियां सखी …
      जाने ये राज भी कब तक राज ही रह जायेगा।

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  3. वाह मीता वाह ...जिंदगी का फलसफा विविध भांति समझाया
    कभी सहजता कभी कठिनता दोनों भाव दर्शाया

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    1. स्नेह आभार मीता सुंदर सकारात्मक प्रतिक्रिया का।

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ६ अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. सस्नेह आभार मै अवश्य आऊंगी।

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