Saturday, 3 March 2018

मन का उद्वेग


पूर्णिमा गयी,बीते दिन दो
चाँद आज भी पुरे शबाब पर था
सागर तट पर चाँदनी का मेला
यूं तो चारों और फैला नीरव
पर सागर मे था घोर प्रभंजन
लहरें द्रुत गति से द्विगुणीत वेग से
ऊपर की तरफ झपटती बढ़ती
ज्यो चंन्द्रमा से मिलने
नभ को छू लेगी उछल उछल
और किनारों तक आते आते
बालू पर निराश मन के समान
निढ़ाल हो फिर लौटती सागर मे
ये सिलसिला बस चलता रहा
दूर शिला खण्ड पर कोई मानव आकृति
निश्चल मौन मुख झुकाये
कौन है वो पाषण शिला पे
क्या है उस का मंतव्य,
कौन ये रहस्यमयी, क्या सोच रही
गौर से देखो ये कोई और नही
तेरी मेरी सब की क्लान्त परछाई है
जो कर रही सागर की लहरों से होड
उससे ज्यादा अशांत
उससे ज्यादा उद्वेलित
कौन सा ज्वार जो खिचें जा रहा
कितना चाहो समझ न आ रहा ।
           कुसुम कोठारी ।

8 comments:

  1. वाह! बहुत ख़ूब! लाजवाब कल्पनाशक्ति मानो चित्र जीवंत हो गया हो।
    बधाई एवं शुभकामनाएं।

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  2. मन का आवेग भी तो सागर की लहरों की तरह ही है ... उठता है प्रीत मिलन के लिए लौट आता है सर पटकता रेत पर ...
    मन के भाव शब्द बन निकलें हैं ...

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  3. वाह !!! बहुत सुन्दर

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  4. मन को छूने वाली सुन्दर रचना है

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