Sunday, 25 March 2018

उतरते एहसास

झील के शांत पानी मे
शाम की उतरती धुंधली उदासी
कुछ और बेरंग
श्यामल शाम का सुनहरी टुकडा
कहीं क्षितिज के क्षोर पर पहुंच 
काली कम्बली मे सिमटता
निशा के उद्धाम अंधकार से 
एकाकार हो
जैसे पर्दाफाश  करता
अमावस्या के रंग हीन
बेरौनक आसमान का
निहारिकाऐं जैसे अवकाश पर हो
चांद के साथ कही सुदूर प्रांत मे
ओझल कहीं किसी गुफा मे विश्राम करती
छुटपुट तारे बेमन से टिमटिमाते
धरती को निहारते मौन
कुछ कहना चाहते,
शायद धरा से मिलन का
कोई सपना हो
जुगनु दंभ मे इतराते
चांदनी की अनुपस्थिति मे
स्वयं को चांद समझ डोलते
चकोर व्याकुल कहीं
सरसराते अंधेरे पात मे दुबका
खाली सूनी आँखों मे
एक एहसास अनछुआ सा
अदृश्य से गगन को
आशा से निहारता
शशि की अभिलाषा मे
विरह मे जलता
कितनी सदियों
यूं मयंक के मय मे
उलझा रहेगा
इसी एहसास मे
जीता मरता रहेगा
उतरती रहेगी कब तक
शांत झील मे शाम की उदासियां।
             कुसुम कोठारी

8 comments:

  1. बहुत उम्दा
    मन को छूती रचना

    ReplyDelete
  2. बहुत बहुत बहुत बहुत सुंदर बिटिया कुसुम कोठारी

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार काकासा।

      Delete
  3. एहसास रंग को चुना आपने
    मन को छूती रचना......शानदार

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया सखी तहेदिल से ।

      Delete
  4. वाह क्या सुंदर एहसास लिखा है आपने

    ReplyDelete