कुछ जो शाश्वत है
खार ही खार हो अनंत सागर के अपरिमित अंबू में।
मोती हृदय में धारण करके शीपियाँ तो मुस्कुराएँगी।
तुषार पिघले कितना भी धीरे मौनी साधक सा चाहे।
अचल की कंकरियाँ तो सोत संग सुरीले गीत गाएँगी।
चाहे साँझ सुरमई सी चादर बिछा दे विश्व आँगन पर।
तम की यही राहें उषा के सिंदूरी आँचल तक जाएँगी।
भग्न हृदय की भग्न भीती पर उग आई जो कोंपलें।
जूनी खुशियों के चिर परिचित गीत तो गुनगुनाएँगी।
नाव टूटी ही सही किनारे बंधी हो चाहे निष्प्राण सी।
फिर भी सरि की चंचल लहरें तो आकर टकराएँगी।
दीप है तेल और बाती भी पर प्रकाश नहीं दिखता।
जलती अंगारी ढूंढ लो जो बातियों में जीवन लाएँगी।
स्वरचित
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
वाह
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 21 नवम्बर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
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ReplyDeleteखार ही खार हो अनंत सागर के अपरिमित अंबू में।
ReplyDeleteमोती हृदय में धारण करके शीपियाँ तो मुस्कुराएँगी।
सरस कृति