Wednesday 11 August 2021

सवैया छंद की छटा


 सवैया छंद, छन्दों का एक प्रमुख प्रचलित रूप है। यह चार चरणों का समपाद वर्ण छंद है। वर्णिक छंदों में २२ से २६ अक्षर के चरण वाले  छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहने की परम्परा है। इस प्रकार ये सामान्य छंदो से बड़े होते हैं इसलिए सवैया कहलाते हैं। इन में  वर्ण की मात्रा के साथ एक निश्चित माप दण्डों का पालन भी आवश्यक होता है ,यानि लघु और गुरु भी अपने निर्धारित स्थानों पर ही होते हैं। इन में प्रायः गणों की आवृत्ति होती , साथ ही अलग अलग सवैया  आरंभ या अंत में एक दो वर्ण बढ़ा कर बने होते हैं ।


यहाँ मैं अपने कुछ स्वरचित सवैया उदाहरण स्वरूप दे रही हूँ।


*(महाभुजंगप्रयात सवैया* 

मापनी-

१२२  १२२  १२२  १२२,

१२२  १२२  १२२  १२२.

१२/१२वर्ण पर यति।


१)माँ शारदे को समर्पित

सुनो शारदे हाथ आशीष का दो, लिखूँ छंद उत्कृष्ट हे मातृ अत्या।

कृपा आप की पावनी मात मेरी, भगा दो अविद्या तुम्ही आदि  नित्या।

रहे भाव भी उच्च भाषा सलौनी, कहे आज प्रज्ञा बनूँ दास भृत्या।

जले ज्ञान बाती उजाला नया हो, तुम्ही श्रीप्रदा हो तुम्ही रूप सत्या।।


२)कहो कान्हा

कहें क्या अरे ओ मुरारी सुनोजी, तुम्हारे बिना तो थकी श्वास डोले।

गये छोड़ के धाम प्यारा तुम्हारा, यशोदा कहे लाल क्यों प्राण तोले।

कहे गोपियाँ मित्र नैना भिगोते, बसी श्वांस आशा तुम्ही को टटोले।

नहीं सूर्यजा तान कोई सुनाए,  तटों पे अभी बाँसुरी भी न बोले।।


३(कामिनी

लगा बाल में पुष्प गोपी चली है, बड़ी मोहिनी चाल वो झूम गाये।

झुके लाज से नैत्र जो लोग देखे, हुई ओज से लाल बाला लुभाये।

हँसे दंत मोती उजाला समेटे, लगे भोर तारा समाधी रचाये।

कुएँ जा रही सोहिनी गौर वर्णी, भरे गागरी कामिनी नीर लाये।।


४(स्वार्थी

यहाँ एक ही भाव में कौन होता, सदा ही जहाँ लोग संकल्प तोड़े।

करे ज्ञानियों की अवज्ञा हमेशा, चलाते सभी क्षोभ के तेज कोड़े।

रखें नाम मिथ्या रचे रूप झूठे, गया काल तत्काल ही बात मोड़े।

जहाँ स्वार्थ का झूठ का बोलबाला, सरे काज नाता उन्हीं साथ जोड़े।


*सुखी सवैया* 

मापनी:-

११२ ११२ ११२ ११२, 

११२ ११२ ११२ ११२ ११.

१२,१४ वर्ण पर यति।


१)गणपति जी को समर्पित

अवनीश हरो सब विघ्न सदा, नव छंद रचूँ कर मैं पद वंदन।

सिर हाथ रखो तुम भीत भगे, रख लाज सदा प्रभु नाथ निरंजन।

तब शब्द रचूँ जब हे वरदा, भर दो मम काव्य सुधा वन नंदन।

सुख सौरभ से महके महके, करती सब काज तुम्ही मन  छंदन।।


२)ऋतुराज

ऋतुराज बसंत लगा सजनी, महि शोभित है करके अब नाहन।

भँवरा फिरता मधु चोर यहाँ, अँखुआ सकुचा सिमटा मन भावन।

पिक बोल लगे रस कान पड़े, हर ओर धरा लगती छवि सावन।

चल धाम चलें शुभ भाव लिए, स्तुति कीर्ति करें प्रभु की अति पावन।।


३)जीवन निस्सार

अब काम नहीं मन भावन है, कुछ काम करें बस बैठ अनंतर।

सबकी तरणी डिगती चलती, हर ओर यहाँ पर और दिगंतर।

सच झूठ नहीं कुछ भाण रहा, न भले शठ का दिखता अब अंतर।

करना फिर एक गवेषण हो, उपचार मिले बस ढूँढ धनंतर।।


दिगंतर=दिशाओं के बीच

धनंतर=धन्वन्तरि,वैद्य


४)किरणें

नभ भाल सुशोभित चाँद हँसे, किरणें करती वसुधा पर नर्तन।

जल केलि करें विहँसे सरसे, चपला करती तटनी घर नर्तन।

जब चाँद उगे सुलभा करती, पग पायल बांध चराचर नर्तन।

नग शीश चढ़े उतरे रमती, लगता करती प्रभु के दर नर्तन।।


५)तनया

रमती हँसती तनया घर में, लगती कितनी सुंदर मनभावन।

वनिता जिस आलय गौरव हो, सजता महका रहता घर पावन।

जग में सुचिता शुभता वरती, निशि वासर ही करती वह धावन।

निजता हर ठौर प्रमाणित है, फिर क्यों जग में नित का यह दावन।


*सुंदरी सवैया* 

मापनी-

११२ ११२ ११२ ११२,

११२ ११२ ११२ ११२ २.

१२/१३वर्ण पर यति।


१)गुरु देव को समर्पित

कथनी करनी सब एक रखे, सुर सी बहती रस धार बहे है।

हर शिष्य करे बस मान सदा, उनके नयनों अनुराग गहे है

करते सब का पथ दर्शन भी, जिनने हर बोल सु बोल कहे है।

गुरु संजय जी शुभ नाम यही, सुन के सब के हिय अज्ञ दहे है।।


२)ऋतु सावन

ऋतु सावन रंग हरी वसुधा, मन भावन फूल खिले सरसे है।

जल भार भरी ठहरी बदली, अब शोर करे फिर वो बरसे है।

जब बूंद गिरे धरणी पर तो, हर एक यहाँ मनई हरसे है।

बिन पावस मौसम सूख रहे, हर ओर बियावन सा तरसे है।।


३)छंदशाला 

यह आलय सुंदर ज्ञान धरा, नित सीख रहे नव छंद विधाएं ।

लिखते सब प्रीत यहां बहती, रहते मिल के रहती शुभताएं ।

नव ज्ञान सुगंध भरे सब को, मनसा नित बोधित को अपनाएं

स्वरपूरित लेखन मान मिले, मन हर्ष भरा सब ही सुख पाएं।।


४)अवतार

जब भी जगती पर पाप बढ़े, सुनते अवतार लिये तुम आये।

पुरुषर्षभ ने रण अस्त्र रखे, तब श्रीमुख से उपदेश सुनाये।

युग बीत गये गुण गान करे, भगवद् रस भौतिक विश्व सुहाये।

सुनते अब क्यों न पुकार कहो, मुख मोड़ लिया जब भक्त बुलाये।।


५)माधव

मनमोहन माधव मोहक हे, मुरली मधु मोह रही मन मेरा।

बजती सजती यमुना तट पे, रहता सब गोपन का सह डेरा।

पशु खैचर मोहित हैं सब ही, हिय बाँध दिया हरि नेह घनेरा।

सब भ्रांति विभूषित नाच रहे, अवलोकित मुंजुल आनन तेरा ।।


 *मदिरा सवैया:-* 

मापनी २११ २११ २११ २,

११ २११ २११ २११ २.

१०'१२वर्णो पर यति।


१)पनिहारिन

चाल चले मदरी मदरी, भर नीर चली गगरी खनके।

नार नई बनती ठनती, पथ पाँव रखे झँझरी झनके।

साथ सखी सरसी हरषी, खुल भेद रहे तन के मन के।

कंत बसे परदेश अभी, नित याद करे चुड़ियाँ खनके।।


२)मन मोहन

मोह लियो मन मोहन को, ललना दिखती निखरी निखरी।

वो वृषभानु सुता तन की, उजली सरसी मन नेह भरी।

ताक रहे मुरली धर भी, लब रेख रखे मधु हास धरी।

बादल छा कर के गहरे, बरसे नभ से रस बूंद झरी।।


 *सुमुखि सवैया* 

१२१ १२१ १२१ १२,

१ १२१ १२१ १२१ १२.

११,१२वर्णों पर यति.


१)भोर

विभोर हुआ तन मोद उठा, अब नाच मयूर रहा मन से।

प्रवाल खिला नभ सूर्य प्रभा, निकली सुषमा चमकी छन से।

प्रभात जगा तज माद चला, खनकी चुड़ियाँ कर से खन से।।

प्रशांत प्रवात चले मदरी, लट खेल रही अब आनन से।।


२)विवेक

विवेक रखें मन साफ रहे, अरु भाव रहे उजले उजले।

सुमित्र रहे जब साथ सदा, यश भी मिलता सब काज फले।

प्रभात लिए नव आस उठें, मन मंजुल सा अनुराग पले।

प्रशांत रहें मन प्रीत जगे, जग से भय भीत निराश टले।।


 *मत्तगयंद सवैया* 

२११ २११ २११ २११,

२११ २११ २११ २२.

१२,११ वर्णो पर यति।


१) कवि जातक

स्वांत सुखाय लिखे कवि जातक, खोल रहे निज मानस ताला।

बाधित क्यों फिर लेखन हो मन, भाव खिले नव अंकुर माला।

साथ लिखों सब छंद मनोहर, सुंदर शोभित हो हर द्वाला।

विज्ञ बनें यह चाव रहे फिर, सोम बनों बरसो बन ज्वाला।।


२)पावस के रंग

आज सुधा बरसे नभ से जब, भू सरसी महके तन उर्वी।

खूब भली लगती यह मारुत, धीर धरे चलती जब पूर्वी।

रोर करे घन घोर मचे जब,भीषण नीरद होकर गर्वी।

कश्यप के सुत झांक रहे जब, कोण चढ़े चमके नभ मुर्वी।।


३)प्रीति

राघव प्रीति विभूषित होकर, जूठन खा शबरी सुख पाते

लक्ष्मन के मन भाव असुंदर, लेकिन अग्रज मान दिखाते।

आँख झुका कर थाम लिये सब, हाथ धरे फिर दूर हटाते।

बोल अबोल रहे रघुनंदन, चाव लिए बस जूठन खाते।।


४)कल्पक

सुंदर गीत रचो मन भावन, भाव बहे सरिता पय जैसे।

निर्झर पावन धार निरंतर, गंग बहे जस निर्मल ऐसे।

कल्पक का रस धर्म रहे अरु, वाचक मुग्ध रहे पढ़ तैसे।

भाव नहीं जिनके मन सुंदर, स्वाद बिना कविता फिर कैसे।।


 *दुर्मिल सवैया* 

११२ ११२ ११२ ११२, 

११२ ११२ ११२ ११२.

१२,१२ वर्ण पर यति।


१)राम वन गमन 

निकले गृह से कुछ दूर चले, रघुराय चले बनवास लिये।

पग साथ धरे सुकुमार वधू, निज नाथ लखे प्रिय दृष्टि दिये।

सिर पे छलकी कुछ बूँद दिखे, पिय के दृग प्रश्न अपार किये।

फिर मौन रही झुक आँख गई, प्रतिकाश बनी बस ठान हिये।।


२)जमुना तट

खट जाग उठी मन में रुक के, जब पायल बैरन बोल गई।

पग धीर धरे चलती रुकती, जमुना तट आकर डोल गई।

अब श्याम नही दिखते सखि री, मन भेद सभी वह खोल गई।

दिखता हरि रंग सदा मुझ को, दृग बंद रखे सब तोल गई।।


३)सरसी वसुधा

अब देख सुधा बरसी नभसे, टप बूँद गिरी धरती पट पे।

सरसी वसुधा हरषाय रही, इक बूँद लगी लतिका लट पे।

झक चादर भीग भई कजरी, रमती सखियाँ जमुना तट पे।

अरु श्याम सखा मुरली बजती, तब गोपन दृष्टि लगी घट पे।।


४)भव सागर

भव सागर नाव फसी गहरी, अब लाज रखो तुम ही प्रहरी।

सुख दु:ख अधार लिया गुरु का, अब जीवन आस तुम्हार धरी।

करते तुम से विनती प्रभुजी, हरलो जग से रजनी गहरी।

तुम दीनदयाल यही महिमा, पत राख सुनो अब बात खरी।।


५) कोमल भावना

कलियाँ महकी उड़ सौरभ भी, इत वात चली अरु दूर भगी।

महका फिर चार दिशा अचरा, मन भीतर मोहक लग्न लगी।

हर ओर जगा कल राग सखी, जब भोर भई इक चाह जगी।

शिव रूप धरे सब मानुष तो, धरती बन जाय नवेल नगी।।


६)ऋतु का सौंदर्य

घन घोर घटा बरसे नभ से, चँहु ओर तड़ाग भरे जल से।

चमके बिजली मन भी डरपे, सरसे जल ताप हरे थल से।

मन मोहक ये ऋतु मोह गई, घन ले पवमान उड़ा छल से।

अब फूट गई नव कोंपल भी, झुक डाल गई लदके फल से।।


७)मन भावन

ऋतु सावन रंग हरी वसुधा, मन भावन फूल खिले सरसे।

जल भार भरी ठहरी बदली, अब शोर करे फिर वो बरसे।

जब बूंद गिरे धरणी पर तो, हर एक यहाँ मनई हरसे।

बिन पावस मौसम सूख रहे, हर ओर बियावन सा तरसे।।


 *किरीट सवैया* 

मापनी

२११ २११ २११ २११

२११ २११ २११ २११.

१२/१२वर्ण पर यति।


१)भंगुर

ये जग भंगुर जान अरे मनु, नित्य जपो सुख नाम निरंजन।

नाम जपे भव बंधन खंडित, दूर हटे  चहुँ ओर प्रभंजन।

अंतस को रख स्वच्छ अरे नर, शुद्ध करें शुभता मन मंजन।।

उत्तम भाव भरे नित पावन, सुंदर से दृग शोभित अंजन।।


२)महि का रूप

मंजुल रूप अनूप रचे महि, मोहित देख छटा अब सावन।

बाग तड़ाग सभी जल पूरित, पावस आज सखी मन भावन।

मंगल है शिव नाम जपो शुभ, मास सुहावन है अति पावन ।

वारि चढ़े सब रोग मिटे फिर, साधु कहे तन दाहक धावन।।


३)माँ की आराधना

छंद किरीट रचूँ मन भावन ,माँ तुम दो सिर हाथ सदा जब।

गीत लिखूँ गुणगान करूँ नित, जाप जपूँ मन अस्थिर हो तब।

भक्ति करूँ पग वंदन देकर, स्त्रोत लिखूँ शुभ भाव जगे सब।

चामर फूल करूँ निशिवासर, ज्ञान भरो मति विस्तृत में अब।।


४)रवि का अवसान

डूब रहा रवि पुष्कर सागर, मद्धम नील लगे अब अम्बर ।

लोहित रेख पड़ी नभ आँगन, लौट चले खग भी अपने घर।

चाँद खड़ा क्यों धीर धरे अब, आसन डाल रहा तब आकर।

निर्मल आभ जगे उजली फिर मोहित सा हर ओर चराचर।।


*गंगोदक सवैया*

मापनी:-

२१२ २१२ २१२ २१२,

 २१२ २१२ २१२ २१२.

१२,१२वर्ण पर यति।


१)झांझरी

रेशमी बोल बोले बजे झांझरी, नेह के गीत गाती लगे कान में।

तान श्यामा सुरीली लगे माधुरी, बोल मीठे रसीले अनुस्वान में।

वात धीमी बसंती चली मोद से, पेड़ की छाँव जोगी लगे ध्यान में।

गोपिका शीश पे गागरी नीर है, कूप से तोय लेके चली मान में।।


२) ऋतु मन भावन

लो बसंती हवाएँ चली आज तो, मोहिनी सी बनी रत्नगर्भा अरे।

बादलों से सगाई करेगी धरा, है प्रतिक्षा उसे मेह बूंदें झरे।

डोलची नीर ले के घटा आ गई, शीश मेघा दिखे गागरी सी धरे।

रंग रंगी सुहावे हरी भू रसा, कोकिला गीत गाए खुशी से भरे।।


३( राधिका उदास

आज श्यामा किनारे चले आ सखे, राधिका नाम तेरा पुकारे खड़ी।

दर्श की आस ले डोलती साँवरे, झील सी आँख से बूंद मोती झड़ी।

वेणु प्यारी उन्हें मूढ़ मैं क्यों जली, बात बेबात ही श्याम से यूँ अड़ी।

काम खोटा किया जो न मानी सुनी, क्यों अनायास गोपाल से जा लड़ी।।


४(श्रावणी मेघ

कोकिला कूकती नाचता मोर भी, मोहिनी मल्लिका झूमती जा रही।

आज जागी सुहानी प्रभाती नई, वात के घोट बैठी घटा आ रही।

श्रावणी मेघ क्रीड़ा करें व्योम में, गोरियाँ झूम के गीत भी गा रही।

बाग में झूलती दोलना फूल का, बाँधनी लाल रक्ताभ सी भा रही।


*मुक्तहरा सवैया* 

मापनी:-

१२१ १२१ १२१ १२,

११२१ १२१ १२१ १२१.

११,१३ वर्णों पर यति।


१)ॐ निनाद।

ऋचा शिव की भव बंध हरे, करते जड़ता सब नाश महेश।

कृपा जब भी उनकी मिलती, जलता मन में शुभ अंजनकेश।

निनाद उठे जब शून्य हँसे, गृह में निधियाँ भरते अखिलेश।

अबूझ अदीठ अगोचर है, हर वाहित ज्यूँ  रवि तेज ग्रहेश।।


२)अरदास

लगा यह नाद कहे सब ही, अब कौन सुने किसका यह रोर।

मचा दुख त्रास सभी दिशि में, सब भोग रहे विपदा हर ओर।

करो दुख भंजन पीर हरो, प्रभु जाप जपें हम तो निशि भोर।

दिखा किरणें सुख सूरज की, शशि शीतलता बिखरे हर छोर।।


 ३)धीर (धैर्य)

अधीर मना कुछ धीर धरो, मिलता सबको न सभी सुख मान।

विचार रखो सब उत्तम तो, फिर भाव पुनीत रहे हिय आन।

रहे मन में हित त्याग जहाँ, बहता बस पावन निर्झर पान।

सुधीर रहें सब संकट में, सहना सब कष्ट प्रमोद सुजान।।


४(कलहास

बयार बसंत भली बहती, कलहास करे मन अंतर आज।

लगे छलना महकी ऋतु भी, महका रस गंध चराचर आज।

सखी हुलसा हिय नाच रहा, दल पुष्प लगे सजके वर आज।

सुजान बने सब डोल रहे, भँवरे पहुँचे कलिका घर आज।।


*वाम  सवैया*  

१२१ १२१ १२१ १२१, 

१२१ १२१ १२१ १२२.

१२,१२वर्णों पर यति।


१)पुनीत धरा

पुनीत धरा पहने सिर मंजु, किरीट हिमालय तुंग विराजे।

पखाल करे पद दीर्घ जलेश, प्रभात सुनो मधु भैरव बाजे।

द्वि हाथ विशाल नदीश प्रवाह, हरी चुनरी हर अंगज साजे। 

धरा निखरी ऋतु सुंदर चार, छटा निरखे तव द्यौ सम राजे।।


२)बाल कृष्ण

मनोहर मोहन मंजुल मूर्ति, मचान चढ़े घट माखन तोड़े ।

निहार यशोमति क्रोध महेंद्र, झुके दृग खंजन औ कर जोड़े।

लला हरि का यह मोहक रूप, प्रसू मन हर्षित कान मरोड़े।

क्षमा अनुमोद सभी क्षण भूले, प्रसाद चढ़ें नित गागर फोड़े।।


३)नेह पियूष।

रखो जग में कुछ भाव विशाल, सुवास सुगंध प्रसून खिला दो।

करो उपकार समाज सुधार, दुखी जन नेह पियूष पिला दो।

विषाद घिरे जन का हित देख, उन्हें उनका अधिकार  दिला दो।

विहान नवीन लिए दिनमान, दिनेश बनों मृत प्राय जिला दो।।


४)सुधांशु

अनंत ललाट सुधांशु कुमार, धरे नव रूप उजास बिखेरे।

अमा पखवार छिपे सब कोर, कभी घन श्यामल आकर घेरे।

प्रवास किसी नगरी किस देश, लगा रहते नित ही बस फेरे।।

किलोल करे किरणें सुखमाल, नदीश विशाल तरंगिनि डेरे।।


*अरसात सवैया यति* 

२११ २११ २११ २११,

२११ २११ २११ २१२.

१२,१२ वर्णों पर यति।


१)विधिना की विसंगतियाँ

खेल कभी करती विधिना सब, गान वही दिशि पालक गा रहे।

घोर तपे रवि तेज दिखाकर, और कहीं करका बरसा रहे।

शीत लगे मनभावन मोहक, और दिखे उत बादल छा रहे।

ध्वंस विनाश मचा दिखता कित, और कहीं कुछ दृश्य लुभा रहे।।


२)प्रभु नाम सुख कारक

मंगल मंत्र जपो सुख कारक, मंजुल नाम सदा हिय धारणा।

ये मृण का तन टूट बिछे जस, गागर हो क्षण भंगु विचारणा।

घात करे कब काल महाबल, ठोकर मारक घोर प्रतारणा।

जो प्रभु नाम जपे मन से फिर, वो बन तारक ही भव तारणा।।


३) विजया

है विनती विजया वर दो तुम, आज धरो सिर हाथ करो दया।

बुद्धि सदैव सुबुद्धि रहे बस, पूजन भक्ति करूँ नित ही जया।

ज्ञान सदा बन दीप जले फिर, कर्म कठोर उड़े सब अंबया।

उद्यम उच्च रहे मन सुंदर, पावन चिंतन दो वर अक्षया।।


४) राह प्रशस्त

राह मिले जब शूल भरी तब, हो बढ़ना पथ देख सदा वहाँ।

जो मन हार चुका जग में यदि,वो फिर जीत नही सकता यहाँ।

नायक हो बनना जग में चल, मार्ग प्रशस्त बना रुकना कहाँ

दूर प्रमाद करो तन का फिर, काम वहीं कर आदर हो जहांँ।।


*अरविंद सवैया* 

मापनी:-

११२ ११२ ११२ ११२,

११२ ११२ ११२ ११२ १.

१२,१३वर्णों पर यति।


१)धरा के अँकवार

मधुमास लगा अब फूल खिले, सब ओर चली मृदु गंध बयार।

हर डाल सजे नवपल्लव जो, पहने वन देव सुशोभित हार।

अँकवार लिए तृण दूब कुशा, धरणी पहने चुनरी कचनार।।

मन है कुछ चंचल देख रहा, निखरी वसुधा बहती मधुधार।।


२) साँझ

ढलता  रवि साँझ हुई अब तो, किरणें पसरी चढ़ अंबर छोर।

हर कोण लगे भर मांग रहा, नव दुल्हन ज्यों मन भाव विभोर, खग लौट रहे निज नीड़ दिशा, अँधियार रहा कर भूमि अखोर।

तन क्लांत चले निज गेह सभी, श्रम दूर करे अब श्रांन्ति अथोर।।


४)सुधांशु

मन रे अब धीर धरो कुछ तो, तज चंचलता बन शांत सुधांशु।

तपती जगती तपनांशु दहे, हँसती निशि पाकर कांत सितांशु।

जब क्लांत हुआ तन पिंजर तो, नव जीवन सा भरता शिशिरांशु

घटता बढ़ता निज गौरव से, शिव भाल सदा भय क्रांत हिमांशु।।


४)शंख रव

कलियाँ महकी महकी खिलती, अब वास सुगंधित है चहुँ ओर।

जब स्नान करे किरणें सर में, लगती निखरी नव सुंदर भोर।

बहता रव शंख दिशा दस में, रतनार हुआ नभ का हर कोर।

मुरली बजती जब मोहन की, खुश होकर नाच उठे मन मोर।।


*वागीश्वरी सवैया*  

मापनी:-

१२२ १२२ १२२ १२२,

१२२ १२२ १२२ १२.

१२,११ वर्णों पर यति।


१) लेखनी कैसी हो

 बहे गीत भी स्वच्छ मन्दाकिनी ज्यों, रचूँ काव्य मंजू रहे जीत भी।

 रहे जीत भी छंद आनंद दे जो, अलंकार शोभा झरे रीत भी।

झरे रीत भी लेखनी से ऋचाएं, रचे नित्य आशा भरे प्रीत भी। भरे  प्रीत भी नाद संसार में जो, नयी धार गूँजे बहे गीत भी।।


२)विधना के लेख

लिखा भाग्य का लेख देखो प्रतिज्ञा, पिता की बनी है प्रतिष्ठा घड़ी।

चले राम उत्सर्ग व्हे भोग सारे, सुनो पुत्र ये बात है क्यों बड़ी।

तुम्हारे बिना क्षुब्ध हैं तात रोये, महा वेग घेरे दुखों की झड़ी।

न जाने विमाता हुई कैकई क्यों,  नहीं मुंह खोले हठी सी खड़ी।


३)आलोक

लिखो गीत प्यारे भरे मोद आशा, लहा दे उरों में सुधा बोहिनी।

बहादे सुरों की नदी गंग जैसी, लगे जो सदा ही शुभा सोहिनी।

जला दीप आलो करे जो सभी तो, भगेगा अँधेरा निशा मोहिनी।

तभी वास होगा उजाला सदा ही, भरी ही रहे क्षीर की दोहिनी।।


४)न जाओ मुरारी

न जाओ मुरारी सुनो विश्वकर्मा, न बंसी छुपाऊँ लड़ाई करूँ।

विरानी गली गाँव कान्हा तुम्हारी, खड़ी राह में धीरता मैं धरूँ।

अधूरा लगे धाम संसार सारा, दृगों में छुपा नीर बोले झरूँ।

हुई भूल जो नाथ मांगूँ क्षमा भी, कहो तो तुम्हारे पदों मैं परूँ।।


*चकोर सवैया* 

मापनी:-

२११ २११ २१२ २११,

२११ २११ २११ २१.

१२,११वर्णों पर यति।


१)प्रीति विभूषित श्याम

श्याम बढे निज वेणु लिए फिर, एक छड़ी लुटिया रख हाथ।

धूम मची पथ कानन निर्जन, ग्वाल चले अब गौ धन साथ।

दास बने निज भक्त जनो सह, प्रीति विभूषित होकर नाथ।।

नाम जपे भव बंध कटे हर,साधक जाप करें तव गाथ।।

 

२)विहाग

लो बगियाँ महकी मधु सौरभ, आज उमंग भरा हिय राग।

गूंज मिलिंद करें मन मोहित, कंज खिलें सर ताल तडा़ग।

साजन दूर बसे मुझ से सखि, छेड़ रहा मन राग विहाग।।

आस जगी अनुराग भरे मन, बोल रहा छत ऊपर काग।


३)तारे

सुंदर चीर मलीन दिखे अब, रात ढली सब तारक लुप्त।

जाकर बैठ गये कित ओझल, है करना कुछ मंथन गुप्त ।

या अरुणोदय से घबरा कर, कंबल ओढ़ पड़े सब सुप्त।

रैन गये चमके फिर हीरक, अद्भुत से यह नोक अनुप्त।।


नोक अनुप्त =बिना उगाई पौध या अंकुर।


४)उपकारी

जीवन मंत्र यही सब के हित, प्यार करो हर मानव संग।

जीत सदा उस की जग में सुन, हर्ष व्यथा पर कल्प अभंग।

काम करे हर श्रेष्ठ यहाँ वह, अंतस में धर चाव उमंग।

धैर्य रखे मन ही मन धारण, उत्तम ज्यों गुण शील लवंग।।


*सुख सवैया* 

मापनी :-

११२ ११२ ११२ ११२,

११२ ११२ ११२ ११२ १२.

१२,१४, वर्णों पर यति


१)प्रतीक्षा

मन मोहन आकर वेणु बजा, तकती सब गोपिन राह निहारती।

पद पंकज घायल हो न कभी, निज आँचल कंकर शूल बुहारती।

मृदु फूलन को पथ पे धरती, सजती फिर नाम पुनीत पुकारती।

कब श्याम धरे पग राह सखी, बन पूजक श्री पद जन्म सुधारती।।


२)जगत की रीति

यह रीति भली जग की सुन लो, चढ़ते उनको नमते सब ही यहाँ। 

ढलते रवि को कब मान कहो, उगता रवि पूज्य लगे सब को जहाँ।

जब मान नहीं घर में अपने, तब तो जग में फिर मान मिले कहाँ।

प्रतिमान जहाँ रुपया जिन को, न कभी रखना पग भी अपना  वहाँ।।


३)अपने अपने सपने

अपने अपने सपने सबके, मचले दृग में पलकों रमते रहे।

लखना चखना फल भी इनका, इनमें कितने रस भी सजते रहे।

करते रहते नित नेह नया, नित ही दुविधा सँग में बहते रहे।

बसती मन आस सदा फलती, नित ही नव मोद लिए भगते रहे।।


४(गंध निशा)

 रजनी रस गंध बहा सरसा, महकी महकी खिल गंध निशा पली। 

हर डाल रही लहकी लहकी, उजली किरणें कर से लिपटी भली।

रवि आवन आहट जो सुनली, कलिता कलियाँ तब मूर्छित हो ढली।

अब भोर हुई सब टूट गिरी, पसरी पथ पारण ताप लगा जली।


*विज्ञ सवैया* 

मापनी:-

११२ ११२ ११२ ११२,  

११२ ११२ ११२ २२.

१२/११ वर्णों पर यति।


१)प्रभु दयालु

रहना प्रभु आप दयालु सदा, शुभ नाम लिए दुख भी भागे।

करुणा करना करुणानिधि हो, कब साथ रहो विधिना जागे।

जब नाथ रहे सँग ताप हटे, सब टूट गये दुख के धागे।

भव बंध कटे विपदा मिटती, रखना प्रभु जी सुध भी आगे।


२)अवलंब

जड़ मूल मिटे अवलंब हटे, तब नाश विनाश दिखा ही है।

बिन स्तंभ कहां ठहरें कुछ भी, हर ज्ञान किताब लिखा ही है।

जलती मिटती तम को हरती, वह तेजस दीप शिखा ही है।

मिलता जग में कम ही लगता, यह मानव भाव त्रिखा ही है।


 *विदुषी सवैया* 

मापनी:-

२१२ २१२ २१२ २,

१२ २१२ २१२ २१२ २.

१०/१२वर्णों पर यति।


१( विजयी की जय

जीत का नाद भारी सुना है, पराजीत का गान भी कौन गाता।

पूछ होती उसी की धरा में, सदा जो नयी वेषनाएं बनाता।

तोड़ता व्योम की तारिकाएं, उन्हें गर्व प्रागल्भ्यता से सजाता ।

कालिमा से लड़े साहसी ही, 

 प्रजे आग सा ज्योति आभा जलाता ।।


२(प्रतिबद्धता जीवन की

नीर आँखों बहाना न प्यारे, नहीं आज कोई मनोभ्रंश पालो।

रीतियाँ  लोक में है अनूठी, इन्हीं में रहो ज्ञान दीया जलालो।

काम हो आज का आज पूरा, न कोई कभी दूसरे काल टालो ।

खोद के कौन पानी उगाहे, बहे धार गंगा तृषा को बुझालो।।


 *साँची सवैया* 

मापनी:-

२२१ २२१ २२१ ११२,

२२१ २२१ २२१ १२.

 १२/११ वर्णों पर यति।


१(जीवन का सत्य

है नाव धारा किनारा न दिखता, लो नाम स्वामी मिलेगा तट यूँ।

डाली खिले पुष्प है मानव सभी, टूटे झरे तोड़ श्वांसे पट यूँ।

कोई नहीं जो यहां पे अमर हो, जाते सभी ही यहां से झट यूँ।

राहें सभी की रहेगी अलग सी,

झांको भरा पुण्य का हो घट यूँ।।


२(छटा 

लो घोर गर्जी महा रोर करती, काली घटा नीर लेके मचली।

लागे भला काजली नेह बहता, भाने लगी दामिनी आभ भली।

छाई खुशी देख मेघा गगन में, हर्षे लगे प्रांत के द्वार गली।

नाचे कलापी पखौटे कलित हैं, औ मोहिनी चाल लागे बदली।।


 *कोविंद  सवैया* 

मापनी:-

२११ २२२ २११ २२,

२११ २२२ ११२ २२. 

११,११वर्णो पर यति।


१(सुंदर जीवन शैली

जीवन शैली हो सुंदर देखो, काम सभी होंगे फिर तो न्यारे।

मान बढ़ाना है मातृ धरा का, उज्ज्वल भावों के पथ हो प्यारे। 

थावर होगी आधारशिला तो, नाम करेंगे मानव जो हारे।

वांग्मय हो जो साहित्य सुधा भी, चित्र बनेंगे शोभित वो सारे। ।


२(माया का खेल

पूछ न मर्मज्ञों की इस भू में, खेल अनोखे से सब ही खेले ।  

कौन किसी का साथी डग में रे, भीत हुए पीड़ा सब ही झेले।

जाल बिछे जादू के उलझे से, दूर दिखे लो कृत्रिम ही मेले।

भूमि भरी है स्वार्थी जन से ये, लूट रहे जोगी बन के चेले।।


*प्रज्ञा सवैया* 

मापनी:-

२२२ २१२ २१२ २११,

२१२ २१२ २११ २२.

१२/११वर्णों पर यति।


१(शिव धनुष भंग

तोड़ा सारंग टंकार थी भीषण, राज आवास भी डोल रहा था।

पूछे कोई सखी बावली होकर, कौन कोदंड़ को तोल रहा था।

हर्षी सीता खुशी छा रही आलय, घोष उद्घोष भी बोल रहा था।

बाजे है बाँसुरी थाप दे ढोलक, फागुनी रंग सा घोल रहा था।


२(निर्झर

कानों में माधुरी घोलते हैं जब, रागिनी स्रोत के पाहन गाते।

ऊँचे शैलेन्द्र के शीश से पीघल, मोहिनी रूप वो धार लुभाते।

धारा है काँच सी मोहिता भावन, नीर मिश्री भरा ज्यों बरसाते ।

नीचे शैवालिनी मोहती है मन, भू धरा जीवनी धार बहाते।।


३)आ जाओ श्याम जी

आ जाओ श्याम जी नैन देखे पथ, प्रीत के गीत बंसी धुन गाये।।

राधा गोरी तके मुंह लीलाधर, कृष्ण का रूप देखे हरसाये।।

मीठी बोली यशोदा लला मंजुल, रूप चंदा दिखे लौ चमकाये।

कालिंदी कूल आये मुरारी अब, श्याम को देख गोपी मन भाये।।


४)नेह की धार

शोभा कैसी धरा की दिखे मोहक, ओढ़ के ओढ़नी मंजुल धानी।

कूके है कोयली बोल है पायल, झांझरी ज्यों  बजे वात सुहानी।

मेघा को मोह के जाल फंसाकर, व्योम पे मंडरा बादल मानी।

प्यारी सी मोहिनी सुंदरी शोभित, नेह की धार है कंचन पानी।।


*सुधी सवैया* 

मापनी:-

१२१ १२१ १२१ ११२, 

१२१ १२१ १२२ १२.

१२/११ वर्णों पर यति।


१(चाँद और उद्धाम लहरें

उतंग तरंग नदीश हिय में, प्रवात प्रवाह बहाता बली।

अधीर हिलोर कगार तक आ, पुकार सुधांशु उठी वो चली।

चढ़े गिरती हर बार उठती, रहे जलधाम सदा श्यामली।

पयोधि कहे प्रिय उर्मि सुनना, कलानिधि है छलिया ज्यों छली।।


२(सागर की सीख लहर को

तुम्ही सरला नित दौड़ पड़ती, छुने उस चन्द्र कला को चली।

न हाथ कभी लगता कुछ तुम्हें, तपी विरहा फिर पीड़ा जली।

प्रवास सदा मम अंतस रहो, बसो तनुजा हिय मेरे पली।

न दुर्लभ की मन चाह रखना, मयंक छुपे शशिकांता ढली ।।


*राधेगोपाल सवैया* 

मापनी:-

२२१ १२१ १२१ १२,

१ १२१ १२१ १२१ १२२.

११/१३ वर्ण पर यति।


१(सूरज की दहकन

ज्वाला निज की निज ही तपता, रवि पीकर सागर प्यास बुझाता।

क्यों वो  नित ही दहता रहता, फिर पीर लिए भटका वह आता। 

कैसा तप लाल हुआ नभ भी, धरती तक आग लगाकर जाता।

है साँझ ढले कुछ क्लांत रहे, अवसान हुआ खुश होकर गाता।।


२(सूरज के बदलते रूप

यामा जब आँचल नील धरे, सविता जलधाम समाकर सोता।

आँखे फिर खोल विहान हुई, हर मौसम रूप पृथक्कृत होता।

गर्मी तपता दृग खोल बड़ी, पर ठंड लगे तन दे सब न्योता। 

वर्षा ऋतु में नभ मेघ घने, तब देह जली अपनी फिर धोता।।


 *अर्णव सवैया*

 मापनी:-

२२१ २१२ २१२ २१२, 

२१२ २१२ २२१ २२.

१२/११ वर्णों पर यति।


१(दसरथ  पुत्रों का विवाह

वे राजपुत्र कंदर्प से मोहते,चार ही फूल से मंजू लुभाते।

राजा प्रसाद में धूम भारी मची, चार का ब्याह था आदित्य गाते।

कन्या सहोदरा सी सभी सुंदरी, चार को रत्न की डोली बिठाते।

लो ढोलके बजी गीत गाती सखी, चार की राह पुष्पों से सजाते।।


२(मात क्यों हुई विमाता

आगाध स्नेह माँ कैकई का सदा,

क्यों हुई मात निर्मोही न जाने।

थे राम प्राण से भी दुलारे रहे,

रक्षिता अंबिका सी डोर ताने।

है कौन लेख प्रारब्ध यूँ तोलता,

राज छूटा गये निर्वास पाने।

माता कभी प्रसू से दुलारी रही,

विश्व सारा लगा धन्या बुलाने।


*सपना सवैया* 

मापनी:-

२२२ १२२ १२२ १२२,

१२२ १२२ १२२ २२२.

१२/१२ वर्णो पर यति।


१(दाता तुम्ही

हे दाता हमें दो  किनारा सहारा, तुम्हारे बिना घोर छाया है पाला।

है माना तुम्ही विश्व पालो सदा ही, तुम्हारे बिना कौन तोड़ेगा जाला।

रोये दुर्दशा की प्रभाती अनूठी, तुम्हारे बिना काल मारे है भाला।

हारा मैं दयाला बसाके ठिकाना, तुम्हारे बिना है उजाला भी काला।।


२) पावनी गंगा

है गंगा नदी पावनी जो पवित्रा, बहे शूलपाणी जटा से ये न्यारी।

जो हो मान सम्मान तो ये रहेगी, सदा दुग्ध क्षीरा सभी को है प्यारी।

है निर्विघ्न पानी पिलाती धरा को, सुधा साथ लाती न टूटी वो हारी।

है भागी रथी वाहिनी सौम्य मुख्या, रहे उग्र श्री कंठ गंगा के धारी।।


*कुमकुम सवैया* 

मापनी:-

११२ ११२ ११२ ११२,

११२ ११२ ११२ १२.

१२/११ वर्णों पर यति।


१(देश सम्मान

मन गर्व रहे निज भारत का, मम देश रहे अब मान से।

सबके अनुराग जगे हिय में, जय हो जय हो अब तान से।

जब गान यहाँ जन के हित हो, रहना सहना सब आन से।

नित कर्म करें अपना अपना, जग नाम बढ़े फिर ज्ञान से।।


२(निजता

हिय में रखना निजता अपने,रख अंतस गौरव भी यहाँ ।

जब नेह पियूष नहीं मिलता, तब पत्र हटा तरु से वहाँ।

बहती नदिया निज राह सदा, मिलती तब अर्णव हो जहाँ।

धन से सब ही कुछ तो न मिले, प्रतिती बिन उत्तमता कहाँ।


*तेजल सवैया* 

मापनी:-

 ११ ११२ ११२ ११२ १, 

१२ ११२ ११२ ११२ २.

१२/१२ वर्णों पर यति।


१) सुन्दरी

झन झँझरी झनकी झन आज, अहा सुन बोल यहाँ पर बोले।

सज चलदी वह पुष्कर तीर, चली रख के गगरी सिर तोले।

पग रखती जल में चढ़ घाट, उठा कर से निज घूंघट खोले।

अमल मनोरम शोभित रूप, हठी भ्रमरा ललना मुख डोले।।


२)नार नवेली

अब फहरी चलती पवमान, बड़ी मदरी मदरी मन भाई।

नव सपने खिलते हर आज, अरे झुकके बदरी घिर आई।

फिर फहरा सिर आँचल लाल, अहा लट श्यामल सी लहराई।

जल सलिला लगता नव रूप, दिखे जल में छवि वो सकुचाई।।


*विज्ञात बेरी सवैया*

मापनी:-

२२१ १२२ २११ २११,

२११ २११ २२१ २२.

१२,११वर्णों पर यति।


१(केवट का हठ

आनंद घना छाया मन में जब, यूँ तट राम सिया साथ आये।

लो केवट दौड़ा मोद भरा तन, भाग बड़े प्रभु के दर्श पाये।

झूठी वह कैसी रार मचाकर, एक घड़ा भर के अंभ लाये।

माने न किसी की बात हठी वह, हाँ पद धोकर नौका बिठाये।।


२(प्रभु पर उधारी केवट की

नौका चढ़ सीया देख रही मुख, राम ललाट लगे रेख भारी।

ले हाथ अँगूठी हीर रखी कर, नेत्र झुका सब बोली सुनारी।

ये नेह निशानी मित्र रखो तुम, केवट ये अब से है तुम्हारी।

हे राम खिवैया हो तुम पालक, आप रखो प्रभु ये है उधारी।।


 *शान्ता सवैया*

 मापनी :--

२२ ११२ ११२ ११२ ११,

२ ११२ ११२ ११२ २२.

१३/१२वर्णों पर यति।


 १)राधा जी और मयंक

राधे तुम सुंदर रूप धरोहर, मंजुल सी छवि हो अलभा नारी।

राकापति दाह रहा अनुभावन, मोहक सी मन मोह रही प्यारी।

झांके तुम पल्लव ओट निशाकर, स्वांग करे धर नाम सदाचारी।

वो क्यूँ भटका पथ छोड़ सुधाकर, जो लगता नभ में  सुचिता धारी।।


२)राधा जी का सौंदर्य

कान्हा हिय में  रहती नलिनी बन, हे वृषभानु सुता शुभता कोरी।

काले मृग लोचन से दिखते दृग,  लाल रदच्छद औ छवि है गोरी।

चंपा सम बाँह दिखे लचके जब, गोप कहे बृज की ललिता छोरी। 

वो हेम लता लहरी बल खाकर, अच्युत के हिय की करती चोरी।।


*पूजा सवैया* 


२१ ११२ ११२ ११२ १,

१२ ११२ ११२ ११२ १२.

१२,१३वर्णो पर यति।


१)श्री कृष्ण का निवास भवन

है महल सुंदर भव्य विशाल, लगी नव झालर भी मन भावनी।

वो कनक रत्न जड़े हर द्वार, जले नव दीपशिखा गृह पावनी।

माणिक बिछे लगते रतनार, गवाक्ष खुले बह वात सुहावनी।

है सरस पंकज मोहक ताल, लगे बहता झरना जल सावनी।।


२(सुदामा का सत्कार

द्वार पर निर्धन विप्र सुधीर, खड़े मन में अनुराग लिए तहाँ।

निर्गुण कहे वह मित्र विनम्र, कदा मम बाल सखा रहते यहाँ।

दौड़ निसरे प्रभु बाहर द्वार, लगा हिय से फिर अंक भरे वहाँ। 

पात्र जल से पग धावन आप, कहो जग में यह प्रीति रखी कहाँ।।


 *महेश सवैया* 


२२ ११२ ११२ ११२ ११,

२ ११२ ११२ ११२ २.

१३,११ वर्णों पर यति।


१(छंद गीत


हाँ मैं अनुवादित भाव सदा शुभ, गीत कहो कह दो कविता भी।

छंदों बहती सुर के स्वर में जब, जाग उठे खग औ सविता भी।

उन्मुक्त कभी नभ को भरती कर, या फिर बोल कहूँ भविता भी।

पुण्या स्तुति हूँ शुभता रखती वर, पूजन की विधि में स्तविता भी।।


२(छंद कविता

लीला रचती नवता भरती लय, ताल सुरों खनकी बहती है।

ज्यों बूँद गिरे तपती वसुधा पर, बोधित वेद शुभा कहती है।

आभा बन के झरती रवि कंचन, भाव ढहे निज भी ढहती है।

रत्नाकर चंचल चालित उर्मिल, त्यों उठती गिरती रहती है।।


 *एकता सवैया* 

२२१ ११२ ११२ ११२,

११२ ११२ ११२ ११२ २.

१२'१३वर्णों पर यति.


१)निशा

हीरों जड़ित सेज लुभावन सी, रजनी निज के दृग खोल रही है।

तारा पति सजे नव रूप लिए, महकी पुरवा रस घोल रही है।

ज्योत्स्ना रजत सी वसुधा पसरी, हर पादप पादप दोल रही है।

श्रृंगार रचती धरणी नित ही, कर उर्मि लिए तम तोल रही है।


२) शशिकांत

निर्मेघ नभ में शशिकांत जड़ा, चमका दमका दिखता रमता सा।

वो केलि करता नभ सागर में, उजला तन रोप्य धरा गमता सा।

तारों जड़ित नीलम चादर है, चलता रुकता लगता थमता सा।

छाया उदधि में हिलकोर करे, विधु खेल करे झुकता नमता सा।



 *जय सवैया* 

२ २१२ २१२ २१२ २ ,

१२ २१२ २१२ २१२ २ .

११,१२वर्णां पर यति,


१(सत्पुरुष

हो भावना निर्मला पंडिता सी, जटा धारते शूलपाणी सदा ही।

पाते रहें मान भी विश्व में  वो, रखे उच्चता सोच में नित्यदा ही।

भूले न वो कर्म ओछा करेंगे, अकल्याणकारी नहीं अन्यदा ही।

वाणी रहे कोकिला सी लुभाती, खुशी बाँटते  रुष्ट होते कदा ही।


 *सुवासिता सवैया* 

१३,११वर्णों पर यति,

२१२ ११२ १२२ १२१ १, 

२१२ १२२ ११ २११ .


१)बसंत

कोंपले महकी खिले फूल सुंदर, पात पात शोभा बरसे वन।

नाचती मन मोरनी चाल मंजुल, पोर पोर खोया उलझा मन।

ये बसंत सुहावना रूप पावन, पाँव घूँघरू भी झनके झन।

मेदिनी सरसी सुधा नीर पाकर, आज चीर धानी पहने तन।।


*विज्ञात सवैया* 

२१२ २२१ २२१ २२२,

२१२ २११ २२१ २२.

१२,११,वर्णों पर यति।


१(क्यों भाव खोते

मोतियों से गीत पातों सजे हैं जो, है मसी व्याकुल क्यों भाव खोते।

शब्द के सोपान ऊँची चढ़ाई तो, ठान ले जो चढ़ उत्तीर्ण होते।

हो अलंकारों सजा लेख भी प्यारा, व्यंजना को सह लक्ष्णा पिरोते।

मौन तोड़े निर्झरी सी बहाते जो, वो अभिव्यक्त नहीं शब्द सोते।


२(गुरु को समर्पित

छंद भावों के लिखे हैं सवैया भी, आज वो ही गुरु के हाथ देना।

हो गवेक्षा छंद की औ सवैया की, है वही तो निज का शोध लेना।

लेखनी है मान सम्मान की भूखी, साथ हो शोधित सी काव्य धेना।

नाव जो डोले अभी पार भी होगी, साथ जो है गुरु का ज्ञान छेना।


धेना=नदी


 *कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'*

34 comments:

  1. वाह बहुत ही उत्कृष्ट सृजन एक से बढ़ कर एक है सभी सवैया के भाव पक्ष।
    आप को और आप की लेखनी को नमन दीदी जी

    ReplyDelete
  2. बेहतरीन भाव छंद रचना कुसुम दी, लेखनी की धार मर्मस्पर्शी बहुत बहुत बधाई दीदी ।

    ReplyDelete
  3. वाह कुसुम जी ....शानदार पोस्ट👌👌👌

    ReplyDelete
  4. सवैया शतकवीर पूर्ण होने की हार्दिक बधाई, दीदी।

    वार्णिक छंद की यह विधा अत्यंत क्लिष्ट है, इसके विभिन्न भेदों को इतने सुंदर शब्द व भावों में पिरो कर आपने जो अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया है वह प्रशंसनीय है। आप के ये छंद मेरे जैसे नवाँकुर कवियों के मार्गदर्शन में सहाई होंगे।

    गीतांजलि 🙏🏼

    ReplyDelete
  5. अरे वाह क्या कहने 🙏

    ReplyDelete
  6. वाह मीता क्या कहने! अप्रतिम 👌🏾👌🏾👌🏾 बहुत ही सुंदरता और सरलता से वर्णन किया आपने। आपका छंद ज्ञान अद्भुत है। हम जैसे नवांकुरों को इससे सीखने में बहुत मदद मिलेगी।
    🙏 साधुवाद स्वीकारें

    ReplyDelete
  7. सखि उत्कृष्ट सवैये
    शतकवीर की बहुत बहुत बधाई

    ReplyDelete
  8. प्रिय कुसुम अप्रतिम सवैये ,बहुत बहुत बधाई।

    ReplyDelete
  9. वाह,आनंद आ गया,क्या खूब रचा है आपने । आपको गुरु बनाना पड़ेगा। ऐसे सृजन हिंदी को समृद्ध करेंगे।आपको बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  10. वाह!!!
    लाजवाब सवैये कुसुम जी!सभी एक से बढ़कर एक
    आश्चर्य में हूँ मैं इतने उत्कृष्ट भाव आपके...
    बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं
    नमन आपको एवं आपकी लेखनी को।

    ReplyDelete
  11. अद्भुत, अनुपम, अनन्य।
    हार्दिक बधाई💐💐💐

    ReplyDelete
  12. वाह अद्भुत लेखन सखी। बहुत सुंदर सवैये लिखे आपने 👌👌

    ReplyDelete
  13. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (13-08-2021) को "उस तट पर भी जा कर दिया जला आना" (चर्चा अंक- 4155) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

    ReplyDelete
  14. बहुत ही सुन्दर शानदार 👌👌 लेखन
    अनंत बधाइयां

    ReplyDelete
  15. यह लेख अपने आप में एक सम्पूर्ण पुस्तक है जिसमें नव-अभ्यर्थियों हेतु विधा का ज्ञान एवं शिक्षण भी है तथा सवैया-रसिकों हेतु निस्सीम माधुर्य भी। इन सवैयों को एक बार पढ़ने से कहां किसी रसिक का मन भर सकता है कुसुम जी? इस आनंद-सरिता में तो पुनः पुनः उतरना होगा, तरण करना होगा, ओतप्रोत होना होगा। आप निश्चय ही किसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार की अधिकारिणी हैं। आपकी प्रतिभा, निष्ठा एवं विधा के प्रति समर्पण की जितनी भी श्लाघा की जाए, अल्प ही प्रतीत होगी।

    ReplyDelete
  16. बहुत सुंदर बन पड़ा है जितनी भी प्रसंशा की जाय कम है संग्रह करने योग्य 👌👌 बधाई

    ReplyDelete
  17. वाह कुसुम जी ! आप तो काव्य-शास्त्र की महा-पंडिता हैं.
    अपने राम तो दोहे, चौपाई, शेर आदि की रचना भी बिना मात्रा गिने कर देते हैं. लिखते समय उनको बोल कर पढ़ो तो मात्राओं का हिसाब आसानी से ठीक किया जा सकता है.
    आपको इस भागीरथ प्रयास के लिए बधाई !
    काव्य-शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए यह बहुत उपयोगी सामग्री है.

    ReplyDelete
  18. वाह क्या बात है ...
    इतनी बारीकी और सहजता लिए आपने हर छंद को बाखूबी समझा दिया ...
    मात्राओं के इस खेल को आसानी से समझना और इस तरह से लिखना की दूसरों को समझ भी आ जाए ... एक दुरूह कार्य आसान कर दिया ... उत्तम पोस्ट ...

    ReplyDelete
  19. सवैया छंद की विशेषता के साथ सटीक मार्गदर्शन किया है । बहुत उपयोगी पोस्ट है ।।
    आभार ।

    ReplyDelete
  20. अद्भुत सवैया

    ReplyDelete
  21. अद्भुत सृजन वार्णिक छंद पर लेखनी चलाना सहज नहीं होता परन्तु आपने यह कार्य इतनी सहजता से कर दिखाया है और वह भी पृथक पृथक प्रकार के सवैया उपजाति सवैया आदि सृजित करके प्रशंसनीय कार्य कर दिखाया है। एक सशक्त लेखनी का परिचय देते आपके ये सवैया पुनः अनंत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐💐 सवैया शतकवीर बनने पर 💐💐💐

    निरंतर इसी प्रकार से उत्तम सृजन कर पाठकों के लिए भाव भरी तथा सुंदर रचनाएं प्रस्तुत करते रहें 💐💐💐

    ReplyDelete
  22. दी सस्नेह प्रणाम,
    आपकी रचनात्मकता के अद्भुत विस्मयकारी रूप से अत्यंत प्रभावित हूँ।
    दी, जिस निष्ठा और समर्पण से आप विधा को सीखकर उसमैं शब्दप्राण फूँक रही हैं यह अत्यंत प्रशंनीय है।
    आपके सकारात्मक प्रयास से सुसज्जित संपूर्ण संकलन,विश्लेषात्मक वर्णन इस विधा को सीखने के उत्सुक नवीन साहित्य.प्रेमी विद्यार्थियों के लिए मार्गदर्शक बनेंगे।
    मेरी असीम शुभकामनाएं स्वीकार करें दी।
    सप्रेम
    सादर।

    ReplyDelete
  23. कुसुम दी,सवैया छंद...बाप रे एक एक अक्षर गईं कर उस हिसाब से अर्थपूर्ण रचना करना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य है ये। साधुवाद आपको।

    ReplyDelete
  24. सुन्दर एवं सार्थक रचनाएँ, प्रत्येक सवैया नव सन्देश देते हुए। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  25. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय प्रस्तुती । हर सवैया एक संदेश वाहक । बार बार पढ़ने लायक ।

    ReplyDelete
  26. अतुलनीय साहित्यिक रचना - - भावगर्भित, हमेशा की तरह असाधारण रचना - - अभिनंदन मीना दी - - नमन सह।

    ReplyDelete
  27. आपकी प्रतिभा को नमन🙏🙏🙏,अद्भुत सृजन,हम जैसे शिक्षार्थियों के लिए प्रेरणादायी, हार्दिक शुभकामनाएं आदरणीया🙏🙏

    ReplyDelete
  28. आप बहुत ही प्रभावी और गहन लिखती हैं, गहन शब्दावली, गहन भाव और लेखन की गहनतम समझ...।

    ReplyDelete
  29. मनभावन मंजुल छंद लिखा
    अति पावन सुंदर भाव दिखा
    बधाई बधाई बहुत बहुत बधाई

    ReplyDelete
  30. देरी से आने के लिए माफ़ी आदरणीया कुसुम दी जी।
    सोचा पढ़कर प्रतिक्रिया करुँगी परंतु अभी तक पूरे सवैया नहीं पढ़ पाई। दिल से नमन आपकी लेखनी को...
    माँ शारदे की कृपा यों हीं आप पर बनी रहे।
    आपको हार्दिक बधाई एवं ढेरों शुभकामनाएँ।
    सादर

    ReplyDelete