Wednesday, 3 January 2024

मदी जा रही निशा

गीतिका:मदी जा रही निशा


लहर आ करे खेल तट पर उछल कर।

कभी सिंधु हिय में बसे फिर मचल कर।।


हवा कर रही क्यों यहाँ छेड़खानी।

लगे आ रही अब दिशाएँ बदल कर।।


बजे रागिनी ये मधुर वृक्ष डोले।

सरस गा रहा है पपीहा बहल कर।।


धरा पर नमी है उधर चा़ँद भीगा।

झटक वो गिरी चाँदनी भी सँभल कर।।


किरण सो रही है लता पर पसर अब।

मदी जा रही है निशा भी खजल कर।।


गगन आँगने में चमक जो बिखेरे‌

कई एक तारे जगे हैं पटल कर।।


स्वरचित 

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

14 comments:

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    1. आत्मीय आभार आदरणीय।

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  2. प्रकृति का सुंदरता आपकी लेखनी से चौगुनी हो जाती है दी।
    बहुत दिनों बाद आप की रचना ब्लॉग पर पढने को मिली। लिखते रहा करिए दी।
    सस्नेह
    प्रणाम
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. आत्मीय आभार प्रिय श्वेता।
      पाँच लिंकों पर रचना को रखने के लिए हृदय से आभार।
      मैं ब्लाग पर उपस्थित रहूंगी।
      सस्नेह।

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  3. सुंदर रचना

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।

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  4. किरण सो रही है लता पर पसर अब।

    मदी जा रही है निशा भी खजल कर।।

    बहुत सुंदर,सादर नमन कुसुम जी

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    1. रचना ऊर्जावान हुई आपकी बहुमूल्य टिप्पणी से कामिनी जी।
      सस्नेह

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  5. नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें कुसुम जी

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    1. आपको भी सपरिवार नववर्ष मंगलमय रहे कामिनी जी।
      सस्नेह।

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  6. मन में उतरती बहुत सुंदर गीतिका।

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    1. सस्नेह आभार आपका जिज्ञासा जी लेखन ऊर्जावान हुआ आपकी बहुमूल्य टिप्पणी से।

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  7. प्रकृति का सहज चितरन ... सुंदर अभिवयकत किय है ...

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका लेखन को संबल देती बहुमूल्य टिप्पणी आपकी
      सादर।

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