कविता का ह्रास
शब्द आड़म्बर फसी सी
लेखनी भी है बिलखती।
कौन करता शुद्ध चिंतन
भाव का बस छोंक डाला
सौ तरह पकवान में भी
बिन नमक भाजी मसाला
व्याकरण का देख क्रंदन
आज फिर कविता सिसकती।।
रूप भाषा का अरूपा
स्वर्ण में कंकर चुने है
हीर जैसी है चमक पर
प्रज्ञ पढ़ माथा धुने है
काव्य का अब नाम बिगड़ा
विज्ञ की आत्मा तड़पती।।
स्वांत सुख की बात कह दो
या यथार्थी लेख उत्तम
है सभी कुछ मान्य लेकिन
काव्य का भी भाव सत्तम
लक्षणा सँग व्यंजना हो
उच्च अभिधा भी पनपती।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'