Tuesday, 24 November 2020

भाव पाखी


 भाव पाखी


खोल दिया जब मन बंधन से

उड़े भाव पाखी बनके 

बिन झांझर ही झनकी पायल

ठहर ठहर घुँघरू झनके।


व्योम खुला था ऊपर नीला

आँखों में सपने प्यारे

दो पंखों से नील नाप लूँ

मेघ घटा के पट न्यारे

खुला एक गवाक्ष छोटा सा

टँगे हुए सुंदर मनके।।


अनुप वियदगंगा लहराती 

रूपक ऋक्ष खिले पंकज

जैसे माँ के प्रिय आँचल में 

खेल रहा है शिशु अंकज।

बिखर रहा था स्वर्ण द्रव्य सा  

बिछा है चँदोवा तनके।।


फिर घर को लौटा खग वापस

खिला खिला उद्दीप्त भरा।

और चहकने लगा मुदित 

हर कोना था हरा हरा।

खिलखिल करके महक रहे थे 

पात हरति हो उपवन के।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

12 comments:

  1. वाह!कुसुम जी ,खूबसूरत सृजन ।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२६-११-२०२०) को 'देवोत्थान प्रबोधिनी एकादशी'(चर्चा अंक- ३८९७) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  3. बहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।

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  4. सुंदर भावपूर्ण कविता।

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  5. खोल दिया जब मन बंधन से

    उड़े भाव पाखी बनके
    बहुत बहुत सुन्दर , मधुर |

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  6. बेहतरीन रचना।

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  7. फिर घर को लौटा खग वापस

    खिला खिला उद्दीप्त भरा।

    और चहकने लगा मुदित

    हर कोना था हरा हरा।

    खिलखिल करके महक रहे थे

    पात हरति हो उपवन के।।बहुत ख़ूब...।सुंदर सृजन...।

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