Saturday, 20 June 2020

काया क्षण भंगुर

काया क्षण भंगुर

एक यवनिका गिरने को है।

जो सोने सा दिख रहा वो
अब माटी का ढेर होने को है।
लम्बे सफर पर चल पङा
नींद गहरी सोने को है।।

एक यवनिका गिरने को है।

जो समझा था सरुप अपना
वो सरुप अब खोने को है।
अब जल्दी से उस घर जाना
जहाँ देह नही सिर्फ़ रूह है।।

एक यवनि का गिरने को है।

डाली-डाली जो फुदक रहा
वो पंक्षी कितना भोला है ।
घात लगा  बैठा बहेलिया
पल किसी बिंध जाना है ।।

एक यवनिका गिरने को है।

जो था खोया रंगरलियों में
राग मोह में फसा हुवा ।
मेरा-मेरा के, मोहपास में बंधा हुवा।
आज भस्म अग्नि में होने को है।।

एक यवनिका गिरने को है।

           कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

7 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२१ -०६-२०२०) को शब्द-सृजन-26 'क्षणभंगुर' (चर्चा अंक-३७३९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  2. बहुत सुन्दर।
    सारगर्भित गीत।

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  3. बहुत सुंदर गीत।

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  4. जो समझा था सरुप अपना
    वो सरुप अब खोने को है।
    अब जल्दी से उस घर जाना
    जहाँ देह नही सिर्फ़ रूह है।।

    एक यवनिका गिरने को है
    क्षण भंगुर काया यहीं माटी में मिलने को है
    बहुत ही सुन्दर... लाजवाब सृजन।

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  5. ये यवनिका मृत्यु के साथ गिरती है ... क्योंकि ये सब खो भी जाये तो दूसरी इच्छाएं खड़ी हो जाती हैं फिर वो ख़त्म होती हैं तो दूसरी ... सुन्दर रचना ...

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  6. बहुत सुंदर और सार्थक सृजन सखी

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  7. बहुत सुंदर और सार्थक सृजन

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