उतरा मुलमा
वक्त बदला तो संसार ही बदला नज़र आता है।
उतरा मुलमा फिर सब बदरंग नज़र आता है।।
दुरूस्त न की कश्ती और डाली लहरों में।
फिर अंज़ाम ,क्या हो साफ नज़र आता है।।
मिटते हैं आशियानें मिट्टी के ,सागर किनारे।
फिर क्यो बिखरा ओ परेशान नज़र आता है।।
ख़्वाब कब बसाता है गुलिस्तां किसीका
ऐसा उजड़ा कि बस हैरान नज़र आता है।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
वक्त बदला तो संसार ही बदला नज़र आता है।
उतरा मुलमा फिर सब बदरंग नज़र आता है।।
दुरूस्त न की कश्ती और डाली लहरों में।
फिर अंज़ाम ,क्या हो साफ नज़र आता है।।
मिटते हैं आशियानें मिट्टी के ,सागर किनारे।
फिर क्यो बिखरा ओ परेशान नज़र आता है।।
ख़्वाब कब बसाता है गुलिस्तां किसीका
ऐसा उजड़ा कि बस हैरान नज़र आता है।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
सार्थक अशआर
ReplyDeleteसादर आभार आपका आदरणीय।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(२५-०४-२०२०) को 'पुस्तक से सम्वाद'(चर्चा अंक-३६८२) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
**
अनीता सैनी
बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteचर्चा मंच पर मेरी रचना को शामिल करने केलिए हृदय तल से आभार।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका जेन्नी जी।
Deleteआपके कलम से बिल्कुल नए अंदाज की रचना , बहुत ही अच्छी बन पड़ी है। इस गजल हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका पुरुषोत्तम जी।
Deleteउत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया।
मिटते हैं आशियानें मिट्टी के ,सागर किनारे।
ReplyDeleteफिर क्यो बिखरा ओ परेशान नज़र आता है।।
वाह!!!
बहुत सुन्दर लाजवाब सृजन।
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी ।
Deleteआपकी टिप्पणी से लेखन को प्रवाह मिला।
वक्त बदला तो संसार ही बदला नज़र आता है।
ReplyDeleteउतरा मुलमा फिर सब बदरंग नज़र आता है।।
बहहुत खूब प्रिय कुसुम बहन | उर्दू पर अधिकार की ये रचना अपने आप में बहुत अच्छी बन पड़ी है | हार्दिक शुभकामनाएं|
बहुत बहुत स्नेह आभार आपका रेणु बहन आप की उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
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