Monday, 20 April 2020

बहे समसि ऐसे

बहे समसि ऐसे

आखर आखर जोड़े मनवा ,
आज रचूं फिर से कविता।
भाव तंरगी ऐसे बहती ,
जैसे निर्बाधित सविता।

मानस मेरे रच दे सुंदर ,
कुसमित कलियों का गुच्छा।
तार तार जस बुने जुलाहा ,
जैसे रेशम का लच्छा।
कल-कल धुन में ऐसी निकले,
लहराती मधुरम सरिता।।

अरुणोदयी लालिमा रक्तिम ,
क्षितिज का अनुराग प्यारा ।
झरना जैसे झर झर बहता,
प्रकृति का शृंगार न्यारा ।
सारे अद्भुत रूप रचूं मैं ,
बहे वात प्रवाह ललिता ।

निशि गंधा की सौरभ लिख दूं ,
भृंग का श्रुतिमधुर कलरव ।
स्नेह नेह की गंगा बहती ,
उपकारी का ज्यों आरव ।
समसि रचे रचना अति पावन ,
रात दिन की चले चलिता।।

         कुसुम कोठारी।

4 comments:

  1. मानस मेरे रच दे सुंदर ,
    कुसमित कलियों का गुच्छा।
    तार तार जस बुने जुलाहा ,
    जैसे रेशम का लच्छा

    अदभुत सृजन कुसुम जी ,अत्यंत सुंदर भावों से सजा ,सादर नमन

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  2. वाह वाह अति मनमोहक बहुत सुंदर सृजन दी।

    मानस मेरे रच दे सुंदर ,
    कुसमित कलियों का गुच्छा।
    तार तार जस बुने जुलाहा ,
    जैसे रेशम का लच्छा।
    कल-कल धुन में ऐसी निकले,
    लहराती मधुरम सरिता।।
    बहुत सुंदर शब्द संयोजन है दी।

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  3. वाह.... प्रिय कुसुम कमाल की रचना जिसमें बहती है शब्दों की अनुपम सरिता 👌👌👌👌

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  4. अहा!बहुत ही सुन्दर मनमोहक सृजन

    अरुणोदयी लालिमा रक्तिम ,
    क्षितिज का अनुराग प्यारा ।
    झरना जैसे झर झर बहता,
    प्रकृति का शृंगार न्यारा ।
    सारे अद्भुत रूप रचूं मैं ,
    बहे वात प्रवाह ललिता ।
    वाह!!!

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